इस्लाम मे व्यभिचार का दण्ड विरोधी ऐसा दिखाते हैं, जैसे इस्लाम मे किसी भी तरह के व्यभिचार पर मौत का दण्ड है, और वो भी केवल औरत को पर ऐसा नहीं है
एडल्टरी यानि व्यभिचार की तीन कैटेगरीज़ हैं
पहली किसी पुरुष का किसी स्त्री के साथ जबरन बलात्कार इसमें पुरुष के लिए कठोरतम दण्ड मौत की सजा है जबकि स्त्रियों के साथ सहानुभूति
दूसरी कैटेगरी जिसमें अविवाहित स्त्री पुरुष कामोत्तेजना को निकालने के वैध मार्ग के अभाव मे एक दूसरे की सहमति से सहवास करते हैं, इस मे मौत की सजा नहीं है बल्कि 100 कोड़े का दण्ड स्त्री पुरुष दोनों को है
तीसरी कैटेगरी जब विवाहित स्त्री पुरुष अपने पति और पत्नी को धोखा देकर अन्य किन्हीं स्त्री पुरूषों के साथ सहमति से सम्भोग करते हैं तो उन दोनो के लिए कठोर दण्ड है (न कि केवल स्त्री के लिए)
ये दण्ड यदि कानून मौत की सजा निर्धारित करे तब भी वो न्यायोचित है, कैसे न्यायोचित है और व्यभिचार पर दण्ड क्यों है वो मेरे इस लेख पर पढ़ लें और कृपया कोई भी प्रश्न इस लेख को पूरा और ध्यानपूर्वक पढ़ने के बाद ही करें
कुछ भाईयों की इस्लामी शरीयत मे वर्णित सख्त सज़ाओं के प्रावधान के विषय मे विशेषकर दो आपत्तियां जताते हैं
पहली आपत्ति ये, कि चोरी या व्यभिचार जैसे "छोटे" अपराधों पर शरीयत मे अपराधी के हाथ काटने और मृत्युदण्ड जैसी सख्त सज़ाएं देना क्रूरता और अमानवीयता है
और दूसरी ये कि शरीयत मे हत्या और बलात्कार आदि जैसे अपराधों पर भी मृत्युदण्ड देना ठीक नही क्योंकि जब हम किसी को प्राण दे नहीं सकते तो किसी के प्राण लेने का भी हमें कोई अधिकार नही है
मित्रों । अस्ल में होता ये है कि व्यभिचार की सजा का विरोध करने वाले लोग अक्सर खुद को किसी से भी शारीरिक सम्बन्ध बनाने की छूट दिलाने की बात दिमाग मे रखकर व्यभिचार की गम्भीर सजा पर आपत्तियां जताते हैं,
लेकिन वे ही लोग अपने दिल पर हाथ रखकर सोचे कि क्या वे अपनी मां, बहन, बेटी, पिता और बेटों को भी कई अलग अलग लोगों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने को प्रोत्साहित करना चाहेंगे ?
निश्चय ही वे ऐसा नहीं चाहेंगे,
बल्कि वे चाहेंगे कि उनके माता पिता एक दूसरे के प्रति वफादार रहें, और उनका जीवनसाथी उनके प्रति निष्ठावान रहे
वे नही चाहेंगे कि उनके माता पिता, बहन बेटी या पत्नी के अवैध सम्बन्धो के कारण उनके घर की सुख शांति और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा नष्ट हो जाए ,
इसलिए वे अपने परिवारीजनो को इस प्रकार के किसी भी सम्बन्ध से हर हाल मे दूर रखना चाहेंगे
शरीयत मे बताई गई सज़ाओं का मोटिफ भी यही है , कि उसके कार्यक्षेत्र मे आने वाला कोई भी व्यक्ति खुद को किसी भी कुकर्म से भरसक बचाकर रखे
और जैसा कि मैं पहले भी कई बार बता चुका हूँ कि, शरीयत मे कुछ विशेष अपराधों के लिए सख्त सज़ाओं का प्रावधान इसलिए नहीं कि ईश्वर अपने बंदो को मरवा देना चाहता है,
बल्कि ये प्रावधान इसलिए है ताकि जो व्यक्ति थोड़े से आनन्द की प्राप्ति के लिए कोई अपराध करना चाहता हो, तो वो उस अपराध की भयंकर सजा के बारे मे सोचकर बुरी तरह से डर जाए, और अपराध करने की सोच ही न पाए फिर जब अपराध ही न होगा तो मौत की सज़ा से मारा कौन जाएगा ?
लेकिन इस सख्त कानून के लागू होने के बावजूद यदि कोई अपराधी कानून को धता बता कर दण्डनीय अपराध करे तो इसका मतलब यही है कि उस अपराधी ने पकड़े जाने की हालत मे अपना अन्जाम जानते बूझते ये अपराध करने का फैसला किया था, अगर वो सख्त सजा से डर जाता तो ये अपराध ही न करता
तो फिर जो व्यक्ति खुद सख्त सजा पाने को तैयार हो उस समाज मे बिगाड़ पैदा करने वाले अपराधी से किसी को भी किसी तरह की सहानुभूति क्यों हो ?
दूसरी बात शरीयत यदि अन्यायपूर्ण ढंग से काम करे, यानि किसी निरपराध को दण्ड दे, या फिर किसी मुजरिम को उसके जुर्म पर ऐसा कठोर दण्ड दे, जिसके बारे मे मुजरिम को पहले से चेतावनी न दी गई हो , तब तो शरीयत की सज़ाओं पर ऐतराज करने का कोई तुक भी है
लेकिन शरीयत कानून सिर्फ अपराधियों के लिए बुरा है ,
ये सदाचारी, शांतिप्रिय और निरपराध लोगों पर कोई सख्ती नहीं करता, बल्कि ये तो कानून का पालन करने वाले सज्जन लोगों का जीवन सुगम ही बनाता है
पता नहीं वे लोग अपराधियों के क्या लगते हैं, जो शरीयत का विरोध किया करते हैं ?
शरीयत कानून किसी के जुर्म करने से पहले ही उस जुर्म के लिए नियत सज़ाओं का ऐलान कर देता है, ताकि वो जुर्म करने को इच्छुक कोई भी व्यक्ति उस जुर्म का अंजाम पहले से जान रखे , और सजा के भय से ही सही, खुद को जुर्म करने से बचाए रखे
यदि इसके बावजूद कोई व्यक्ति अपराध कर बैठता है तब भी शरीयत दोषी को अन्यायपूर्ण ढंग से सजा नही देती, बल्कि पहले कोर्ट मे जुर्म के सभी पहलुओं पर विचार किया जाता है, देखा जाता है कि अपराध अगर किसी मजबूरी के तहत विवश होकर किया गया है, तो सज़ा माफ या कम भी की जा सकती है
उदाहरणार्थ विवाह न हो पाने के कारण अपनी कामोत्तेजना के आगे विवश होकर यदि कुंवारे स्त्री पुरुष व्यभिचार कर बैठें, तो उन्हें मौत की सजा शरीयत नहीं देगी, मौत की सजा केवल उनके लिए है जो लोग विवाहित होकर भी व्यभिचार मे लिप्त रहे हों , यानि जिनके पास अपनी कामवासना की पूर्ति का वैध साधन होने के बावजूद, यानि कामोत्तेना से विवश होकर नहीं बल्कि जिन्होंने केवल मनमानी करने को कानून का उल्लंघन किया हो, केवल वे ही लोग कठोर सजा के अधिकारी हैं शरीयत की नजर मे
इसी तरह भूख या गरीबी से विवश हो कर कोई व्यक्ति चोरी कर बैठे तो शरीयत उसका हाथ काटने का हुक्म नहीं देती बल्कि हाथ काटने की सजा केवल उसको सुनाई जाती है जो व्यक्ति बिना किसी मजबूरी के सिर्फ ऐश करने के लिए चोरियां किया करता है
यानि, कठोर सजा केवल उन्हीं व्यक्तियों को उनका जुर्म कोर्ट मे पूरी तरह सिद्ध हो जाने के बाद दी जाती है जो सजा के अंजाम से भली भांति परिचित होकर भी, किसी मजबूरी या दबाव के न होने के बावजूद, कोई अनुचित लाभ या अनुचित आनंद लेने के लिए अपराध करते हैं
शरीयत का विरोध अक्सर इस सोच के कारण किया जाता है क्योंकि लोग सोचते हैं कि जिन देशों इतने कठोर कानून होते हैं , वहाँ का हर नागरिक एक घुटन और तनाव मे जीता होगा,
पर ऐसा नहीं है,
आप विश्व के उन अनेक विकसित देशों का उदाहरण ले सकते हैं जहाँ नशीली वस्तुओं के व्यापार और भ्रष्टाचार जैसे मामूली जुर्म पर मौत की सजा देने का कानून लागू है, लेकिन खुशहाली इन देशों मे भारत से कहीं अधिक ही पाई जाती है
अमरीका जैसे विकसित देश में ही विभिन्न अपराधों पर बिना किसी रियायत के लगातार मृत्युदण्ड दिया जाता है,
अमेरिका मे कानूनों का सख्ती से पालन किया जाता है,
कितने लोग सोचते हैं कि अमेरिका के नागरिकों का जीवनस्तर भारतीयों से खराब है ?
बल्कि भारत के मुकाबले इन देशों मे जीवन प्रत्याशा,स्वास्थ्य और खुशहाली कहीं अधिक है
क्या घुटन और तनाव के वातावरण मे जनता का अच्छा स्वास्थ्य और खुशहाली सम्भव है ? नही न.
बल्कि इन देशों मे लागू कठोर कानूनों ने वहाँ आम जनता का जीवन भ्रष्टाचार, गुण्डागर्दी और किसी भी प्रकार के अपराध के डर से बिल्कुल मुक्त कर दिया है, जिससे वे लोग ऐसा चिंतामुक्त और खुशहाल जीवन जीने लगे हैं जैसे जीवन की आज हम अपने देश मे रहते हुए कल्पना भी मुश्किल से कर पाते हैं
वास्तव में किसी भी देश मे न्याय व्यवस्था बनाए रखने के लिए ,वहां के निवासियों मे कानून का डर होना जरूरी है, और कानून का डर होने के लिए उस कानून मे सख्त सजाओं का प्रावधान होना भी जरूरी है, इसी कारण हमारे देश भारत और चीन, पाकिस्तान, दक्षिण कोरिया, जापान तथा अमेरिका समेत 39 देशों ने 2012 में संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में मृत्युदण्ड उन्मूलन के लिए रखे गये वैश्विक प्रस्ताव का विरोध किया था,
Chor ka hath kaatne ki Saza
Kuch logo ka Sawal hai ki Sharia law ki baaki Sakht Sazayn to thek hain lekin Chor ka hath kaatne ki Saza bahot bada Zulm hai, kai baar log Bhookh se majboor hoke khane peene ka saman chura lete hain, to kya Sharia wale in majboor logo ke hath bhi katwa denge?
Jawab : kisi bhi Desh me Aman aur khush-haali banay rakhne ke liye Sakht kanun hona Zaruri hai, Lekin kanun Andha na ho, Yani kisi Begunah ko Saza na mile, Shariat Is baat ka khas khyal rakhta hai
Shariyat Sabse Pahle to Desh ke hakim Se Ye Ummeed karti hai ki Wo desh me Barabari ka Mahaul banayega, kisi ko kisi pe galat tareeke se tarjeeh na di jaay kisi ghareeb ka haq maar ke kisi aur ko galat tareeke se faayda na pahochaya jaay,
Ameer log Ghareebo se hamdardi aur Mohabbat se Pesh aayn, aur Ghareebo ki madad ke kaam ko hamesha apna farz maan kr karte hon Aur Ameer log waqt se Ghareebo ki madad ke liye Zakaat aur fitra ada karte rahen
Agar hakim aisa Samaj bna lega to Zahir hai Paise ki Zarurat Padne pe koi gareeb kisi se bhi udhar maang sakta hai aur usko Paise diye jaaynge Phir kisi Gareeb pe wo wakt he nhi aayga ki usy majboor hoke chori karni pad jaay
Lekin agar hakim Apne Mulk me Zakat aur fitra bhi Gareebo ko dilwa na paay Apne Mulk ke ameero ko he Imaandar na bana paay To usko Ye haq nahi ki wo Ghareeb ko Chori karne Pe hadd ki Saza de
Ek Bahot Mash-hoor Riwayat hai ki Hazrat Umar Razi. ki khilafat me ek baar Mulk me Akaal pad gaya tab unhone Chori ki Saza hath kaatna us wakt ke liye band karwa di thi kyunki Akaal me khane peene ka saman itna mahnga ho jata hai jise ghareeb kabhi khareed na paaynge aur bhook se mar jaynge, Hazrat Umar ne Ghareeb ka dard Samjha aur us musibat ke wakt majboor hoke chori kar baithne wale pe raham kia . is riwayat se zahir hai ki Chori ki Saza hath kaatna us wakt laagu hogi jab Mulk me amuman khush-haali ho kamaai ke mauke hon, khane Peene ki Cheezo ki kami na ho
Phir Jab mulk me har tarah se khush-haali aur Imandari ka mahaul ban Jayga uske baad jo balig aur aklmand insan chori karega to iski yahi wajah hogi ki wo khud Mehnat nahi krna chahta balki Dusro ki khoon pasine ki kamai pe aish karna chahta hai Aise he insan ko Chori se baaz rakhne ke liye usko Haath kaatne ki Saza ka dar Dikhaya jata hai,
Raha Sawal un logo ka jo kahte hain ki Koi bhookha ghareeb agar majboor hoke Roti chura le to Sharia wale uska bhi hath kat denge ? Ji nahi bhaiyo koi bhookha majboor khana chura le to usko hath katne ki Saza Shariat me nahi hai balki ek had Yani Nisab ki keemat se kam ki cheezen chura lene pe bhi hath katne ki Saza nahi hai
Nisab ki keemat Alag alag Riwayato me alag alag batai gai hai Sahi Bukhari me Chauthai Dinar Yani 1 gram sone ki keemat se leke Musnad Ahmad me Ek Dinar yani 4 gram sone ki keemat tak hai
Bharat me Hanfi Muslim rahte hain jinke Imam Abu Hanifah, ke mutabik Nisab ki keemat 10 dirhams Yani Ek Deenar hai Jiski keemat Aaj bharat me 12000 rupay hai Yani is se kam ki koi chori kare to uska hath nahi kata jaayga
Yani kisi chhoti moti Chori pe nahi balki ek bade Jurm pe Yani badi keemat ki chori pe he Chor ka hath kata Jayga Wo bhi tab Jab Mukadma Adalat me Le Jaya Jayga
Agar us Insan ko Jiska Saaman Chori hua Chor pe taras aa Jaay aur wo Mukadma Adalat me le he na Jaay To Chor ka hath badi chori karne ke baad bhi katne se bach jaayga
Lekin khud Buraai kr ke Dusro se bhalai ki Ummeed kam he rakhni Chahiye !
रजम की सजा
पश्चिमी मीडिया व्यभिचारी को रजम यानी पत्थरवाह द्वारा मौत की सजा देने को लेकर इस्लाम की आलोचना किया करता है,
पर वास्तविकता ये है कि रजम कोई इस्लामी कानून नहीं बल्कि यहूदियों और ईसाइयों की ही धार्मिक पुस्तकों तोराह, बाइबल ओल्ड टेस्टामेण्ट मे वर्णित कानून है,
और सबसे अधिक ईसाई और यहूदियों द्वारा ही रजम के विधान का प्रयोग किया गया है,
जबकि कुरान मे रजम का विधान कहीं मौजूद नहीं
वैसे कुरान पाक मे रजम का विधान न होने पर भी गैरमुस्लिमो द्वारा सवाल उठाए जाते हैं कि कुरान अधूरी है, उन नादान लोगों से मैं कहना चाहता हूँ कि इससे कुरान का अधूरा होना सिद्ध नहीं होता बल्कि रजम का इस्लाम से असम्बन्धित होना सिद्ध होता है...
हदीसों मे मुस्लिमों द्वारा व्यभिचारियों को रजम का दण्ड देने के वर्णन मौजूद हैं क्योंकि उस समय जिन भी अपराधों के बारे मे कुरान मे कोई विधान नहीं आया था,
तब नबी ﷺ की आज्ञा से उन मामलों मे मुस्लिमों ने यहूदियों के कानूनों का अनुकरण करने की रीति अपनाई थी परंतु नबी ﷺ जानते थे कि रजम का विधान इस्लाम का अंग नहीं थे, इसी कारण स्वयं नबी ﷺ ने रजम से सम्बन्धित आयतों को कुरान मे लिखने से रोका ऐसा कुछ एक हदीस से सिद्ध होता है कि सहाबा ने रजम सम्बन्धी विधानों को (जो सम्भवत: तोरैत की आयतें थीं, व सूरः नूर के अवतरण के पहले उन विधानों के अनुपालन की नबी ﷺ ने उस समय के लोगों को शिक्षा दी थी) कुरान मे लिखने की अनुमति चाही पर नबी ﷺ ने उन्हें इस बात की इजाज़त नहीं दी
(मुस्तदरिक़ अल हाकिम मे हदीस नम्बर 8184 पर हजरत ज़ैद बिन साबित रज़ि. की रिवायत, हाकिम ने इसे सही प्रमाणित किया है)
(स्पष्ट है कि नबी सलल्लाहो अलैहि वसल्लम ही जानते थे कि कौन सी बात कुरान का अंग है और कौन सी बात नहीं, सहाबा ए किराम इस विषय मे खुद नहीं जानते थे बल्कि वो केवल नबी ﷺ के बताए अनुसार कुरान को लिपिबद्ध करते थे, रजम की आयतें क़ुरान का अंग नही थीं, इनका पालन केवल तब तक किया गया जब तक अल्लाह ने क़ुरान में व्यभिचार के दंड की आयात नही उतारी थी
तत्पश्चात व्यभिचार के दंड के विषय में क़ुरान में सूरह नूर नाज़िल हुई, जिसमे व्यभिचारी को सौ कोड़े मारने का दंड नियत किया गया है, तब से क़ुरान पाक के नियमानुसार व्यभिचारी को दंड दिया जाने लगा. सूरह नूर नबी ﷺ द्वारा मदीना हिजरत के 6 वर्ष बाद नाज़िल हुई थी, और जिन अहादीस में नबी ﷺ द्वारा व्यभिचारी को रजम का दंड देने का उल्लेख किया गया है, उनमें कहीं ऐसा नही कहा गया कि रजम का दंड सूरह नूर के अवतरण के बाद भी दिया जाता रहा हो )
नबी ﷺ ने रजम सम्बन्धी विधान को कुरान मे लिखने से रोका इसका साफ अर्थ ये भी है कि रजम का विधान यानी व्यभिचारी को पत्थर मार मार कर मृत्युदण्ड देने का विधान हर समुदाय और हर परिस्थिति के लिए न होकर केवल उस समुदाय और उस जैसी परिस्थितियों के लिए था
जहाँ के लोग रक्तपात के आदी थे और बेहद सख्त दिल के थे जो किसी की साधारण ढंग से मृत्यु होते देखकर भी विचलित नहीं होते थे तो उनको भयाक्रान्त करने को उस समय रजम की सजा कायम रखी गई
क्योंकि इस्लाम मे हुदूद की सजाओं का एक मुख्य मकसद ये है कि उस सख्त सजा से समुदाय के व्यक्ति डर जाएं और पापकर्म से खुद को इस डर के कारण रोक लें
पर जो समुदाय ऐसे रक्तपात का आदी और सख्तदिल न हो उसमें समलिंगी या विपरीत लिंगी का दैहिक शोषण, बलात्कार जैसे अपराध, जिन्हें इस्लामी विधि मे समाज मे अव्यवस्था पैदा करने वाले अपराध माना जाता है
(वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर की गई स्त्रियों और कुंवारे युवक युवतियों द्वारा कामोत्तेजना के आगे विवश होकर सहमति से किए गए सहवास के मामले इस श्रेणी से बाहर हैं ) ऐसे अपराधों के लिए किसी भी अन्य प्रकार से दण्ड दिया जा सकता है, जो कम वीभत्स लगे
धरती मे अव्यवस्था पैदा करने वाले इन अपराधों की गम्भीरता के अनुसार कोई अन्य कठोर दण्ड या मृत्युदण्ड आदि के विधान कुरान 5:33 मे स्पष्ट रूप से वर्णित हैं, जो दण्ड समाज की मानसिकता के अनुसार रजम या अन्य किसी भी विधि से दिया जा सकता है
यदि मेरी राय पूछी जाए तो आज के समय मे मैं बलात्कारी को मौत की सजा के लिए रजम की बजाए फांसी जैसी किसी विधी की वकालत करूंगा .
साथ ही जो लोग रजम को वीभत्स तरीका बताते हैं, उनसे ये भी पूछना चाहूंगा कि यदि अपराधियों के दण्डस्वरूप रजम वीभत्सतम और निन्दनीय कृत्य है,
तो अफगानिस्तान, इराक़ और सीरिया के बेकुसूर मासूम बच्चों पर बम गिराकर उनके चीथड़े उड़ा देने वालों को वीभत्सता की किस श्रेणी मे रखा जाएगा ?
कुछ उस पर भी बोलिए.
मुस्लिम देशों द्वारा अपराधियों के लिए दण्ड निर्धारित करना आपको क्रूरता लगती है तो पश्चिम द्वारा निरपराध जनता की जघन्य हत्याओं पर आपका दिल क्यों नहीं तड़पता ?
माफ कीजिएगा, आपकी पक्षपाती करूणा आपको भी हत्यारों की जमात मे ले जाकर खड़ा करती है