[2] जीवों पर वास्तविक क्रूरता हैं उनका जीवन कष्टपूर्ण बनाना
[3] मांसाहार से कैसे बच पाएंगे आप
[4] मांस मनुष्य के लिए अखाद्य है तो पूरे विश्व के मनुष्यो का प्रिय भोजन मांस कैसे ?
[5] क्या भोजन के पशु हत्या का आदेश देकर अल्लाह ने बेजुबान पशुओं के साथ बैर किया है
[6] पशुबलि का आदेश इस्लाम मे क्यों हैं
[7] इस्लाम में पशुबलि : पशुओं के साथ असमानता या मनुष्य की सेवा ?
[8] एक दिन मे असंख्य पशुओं की हत्या क्यों ?
[9] शाकाहारी व्यक्ति हर सब्जी खाता है तो एक मुस्लिम मांसाहारी हो कर हर हर पशु का मांस क्यूं नहीं खाता
[10] इस्लाम मे मांसाहारी पशुओं का मांस मुस्लिम के लिए प्रतिबंधित क्यों है
[11] मुसलमानों को केवल पेड़ पोधों से भी कम बुद्धि वाले पशुओं का मांस खाने की अनुमति हैं
[12] सूअर का मांस हराम क्यों है
[1] मनुष्य प्राकृतिक रूप से शाक व मांस खाने वाला सर्वाहारी प्राणी है
कुछ लोग शारीरिक बनावट के आधार पर मनुष्य का मिलान शाकाहारी पशुओं से कर के मनुष्य को शाकाहारी जानवर सिद्ध करना चाहते हैं, और मनुष्य मे मांसाहारी जानवरों के अंग पारिस्थितिक अनुकूलता के कारण उत्पन्न होना मानते है और कुछ लोग मांसाहारी पशुओं से मिलान कर के मनुष्य को मांसाहारी सिद्ध करना चाहते हैं क्योंकि मनुष्य मे शाकाहारी पशुओं के समान भी कई लक्षण हैं और मांसाहारी के समान भी इसलिए बहस लम्बी खिचती जाती है
इस बहस का अंत मै इतना कहकर करना चाहता हूँ कि मनुष्य सर्वाहारी प्राणी है यानी मनुष्य प्राकृतिक रूप से साग और मांस दोनों खाने के लिए बना है
देखिए कि मनुष्य की बनावट सबसे ज्यादा बन्दर से मिलती है और बन्दर भी एक सर्वाहारी जानवर है बन्दर फलों के साथ पक्षियों के अण्डे और कीड़े मकोड़े भी शौक से खाते हैं
और मनुष्यों मे मांसाहारी अंग होने का कारण पारिस्थितिक अनुकूलन को बताना भी ठीक नहीं. आप देखेंगे कि शाकाहारी जानवरों के हाथ पैरों मे न अंगुलियां होती हैं और न नाखून जबकि मांसाहारी जानवरों मे शिकार को चीरने फाड़ने के लिए नाखून भी होते हैं, और शिकार को पकड़ कर खाने के लिए अंगुलियां भी
अगर पारिस्थितिक अनुकूलता का ही नियम मानकर चलें यदि मनुष्य शाकाहारी जीव था तो उसके हाथ पैरों मे अंगुली और नाखूनों की जरूरत नहीं थी, न कभी उसे शिकार की इच्छा होती फिर मनुष्य के शरीर मे अंगुली और नाखून कैसे बन पाए ?
और बने तो बने अब जब हजारो वर्षों से जब मनुष्य को नाखूनों की कोई आवश्यकता नहीं है, तो पारिस्थिक अनुकूलन के नियम के चलते ये नाखून लुप्त क्यों नहीं हो जाते ?
सोचकर बताईए.
[2] जीवों पर वास्तविक क्रूरता हैं उनका जीवन कष्टपूर्ण बनाना
एक गैर मुस्लिम भाई से जब हमने उनके यहाँ की पशुओं को लोहे की गर्म सलाख से दागने की प्रथा के विषय मे कहा कि ईश्वर के बनाए जीवों को अकारण कष्ट देना पाप है, तो वे भाई बोले कि एक तरफ तो तुम मुस्लिम कहते हो कि हर जीव पर दया करनी चाहिए, वहीं दूसरी तरफ तुम सब लोग मांस खाते हो ॥ भला ये जीवों पर दया हुई ?
हमने उन भाई से कहा
मेरे भाई, अल्लाह की बनाई हर वस्तु को कष्ट देने से इस्लाम रोकता है, यानी जानवरों को अकारण घायल करने की भी इस्लाम मे मनाही है, पेड़ पौधों को अकारण काटने पर भी इस्लाम मे मनाही है और यहाँ तक कि धरती पर पैर पटक कर चलने पर भी मनाही है क्योंकि चेतना इन सभी चीजों मे होती है
रही बात जानवरों को भोजन के लिए उनके प्राण लेने की, तो भाई ये जान लीजिए कि कुदरत ने इन्सान को बनाया ही ऐसा है कि वो अपनी भूख मिटाने के लिए अन्य जीवों की हत्या करता है, मनुष्य के खाने की हर चीज मे प्राण होते है
सब्जी से लेकर दूध और पानी सब मे लाखों जीवाणुओ का वास होता है पेड़ो मे पशुओं के समान ही जान होती है और भोजन करे बिना मनुष्य का जीवन सम्भव ही नहीं है यानि जीवों पर दया कि सम्बन्ध मनुष्य के भोजन से नही है चूंकि भोजन करने के लिए व्यक्ति प्राकृतिक रूप से ही मजबूर है, यदि भोजन न करे तो उस व्यक्ति की स्वयं बड़ी दर्दनाक मौत हो जाएगी.
तो मजबूरी मे किए जाने वाला ये कार्य अत्याचार की श्रेणी मे नही आता बल्कि आत्मरक्षा की श्रेणी मे आता है ॥
मनुष्य को अपना जीवन बचाने के लिए किसी न किसी जीव हत्या करनी ही पड़ती है चाहे वो मनुष्य सम्पूर्ण शाकाहारी भोजन ही क्यों न करता हो. ये क्रूरता नही है क्योंकि जीव खाना बनाने के समय ही मर जाता है और उसको बहुत ही कम पीड़ा झेलनी पड़ती है लेकिन जीवों को घायल कर के छोड़ देने पर वो पशु महीनों तक पीड़ा झेलते रहते हैं तड़पते रहते हैं, जबकि उन पशुओं के पीड़ा झेलने से न तो किसी को कोई लाभ होता है न किसी के प्राण बचते हैं
तो इस तरह जीवों को घायल कर देना या उनके अंग भंग कर के कष्टकारी जीवन देना अथवा जानवरों को बेदर्दी से पीटते रहना ही वास्तव मे क्रूरता है ।
[3] मांसाहार से कैसे बच पाएंगे आप
1683 ईसवी मे एण्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक (Antoy Von Leeuwenhoek) ने अपने बनाए सूक्ष्मदर्शी से पानी, मुंह की लार, और दांत से खुरचे हुए मैल के अन्दर देखा तो उन्हें उनमें असंख्य महीन कीड़े चलते नजर आए, ये जीवाणु यानी बैक्टीरिया थे
ये महीन कीड़े हमेशा, हर मनुष्य के मुंह मे रहते हैं, और हर खाने पीने की चीज के साथ मनुष्य इनको भी जिन्दा ही खा डालता है
पानी मे Clostridium Butyrium नाम का जीवाणु होता है. तो जो जीवहत्या के विरोधी हैं, उन्हें निर्जल उपवास करते रहना चाहिए आजीवन, क्योंकि एक ही घूंट पानी पीने पर वो लाखों निर्दोष जीवों की हत्या के दोषी जो बन जाते हैं ।
Bacteria जब छोटा ही होता है तभी इनसान उसे खा डालता है, यदि बैक्टीरिया का बड़ा रूप देखना है तो दही को कुछ दिन के लिए रख छोड़िए बैक्टीरिया उसमें बडे बडे कीड़े बना देगा जिन्हें आप नंगी आंख से भी देख पाओगे
दही Lactic Acid Bacteria की वजह से जमता है, शाकाहारी लोग मजे से दही खाते हैं लेकिन अगर वो लोग अच्छी दही मे भी सूक्ष्मदर्शी लगाकर देखें तो उसमें भी महीन कीड़े तैरते नजर आएंगे
अब अगर कोई ये सोचे कि दही छोड़ो अब से हम दूध पिया करेंगे, तो ये भी सुन लीजिए कि दूध मे भी Bacterium Lactici Acidi और Bacterium Acidi LactiCi नाम के ज़िन्दा जानवर हमेशा मौजूद रहते हैं ॥
तो भाईयों, मांसाहार से कैसे बच पाएंगे आप ?
[4] मांस मनुष्य के लिए अखाद्य है तो पूरे विश्व के मनुष्यो का प्रिय भोजन मांस कैसे ?
इनसान या जानवर को जिस भी खाने से सबसे ज्यादा पोषण मिलता है एक खास कुदरती निज़ाम है कि वो उसी खाने को सबसे ज्यादा पसंद भी करता है
जैसे बकरियों को आप हरे पत्ते दिखा दो, तो वो अपनी जान पर खेल कर उन्हें खाने पहुंच जाएंगी, अगर जंगल मे शेर को हिरन नजर आ जाए तो वो पूरे जंगल मे उस हिरन के पीछे दौड़ लगाकर आखिर उस हिरन को खा ही लेगा
उसी तरह अगर आप किसी गोश्त खाने वाले शख्स से उसकी मन पसंद डिश का नाम पूछो तो वो फौरन किसी गोश्त की डिश का ही नाम लेगा , हालांकि उसने सभी तरह के फल और सब्जियां खाए होते हैं, लेकिन उसे गोश्त से अधिक स्वादिष्ट कुछ नहीं लगता
सबसे ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक और पोषक खाना ही सबसे ज्यादा स्वादिष्ट लगता है ये बात शाकाहारी लोग भी समझ सकते हैं क्योंकि उन्हें भी उबली दाल और रूखी रोटी से ज्यादा स्वादिष्ट सब्जी पूड़ी, घी, मक्खन और तले हुए मेवे लगते हैं
तो भाईयों जब एक बकरी किसी मुर्गी को खाने के लिए उसके पीछे नहीं दौड़ती ,कोई शेर कभी सेब खाने के लिए पेड़ पर नहीं चढ़ता. उसी तरह अगर गोश्त आदमी के लिए अखाद्य होता तो बिरयानी की महक नाक मे जाते ही आदमी को भूख न लगने लगती , दुनिया भर की दावतें गोश्त के बिना अधूरी न रहती
दुनिया मे पहली बार जब किसी आदमी ने शिकार कर के गोश्त खाया होता तो वो उसे खा ही न पाता और कभी गोश्त खाने का रिवाज ही आदमियों मे न चल पाता
लेकिन पहली बार शिकार करने वाले आदमी को गोश्त खाना अच्छा ही लगा इसलिए वो बार बार शिकार कर के गोश्त खाने लगा. तो गोश्त खाना अप्राकृतिक नहीं है बल्कि पूरी तरह प्राकृतिक काम है ईश्वर ने हमें गोश्त खाने लायक बना के पैदा किया है
कुछ लोग तर्क करते हैं कि भले ही मांस कितना ही स्वास्थ्यवर्धक हो पर मांस खाना अनैतिक है क्योंकि जानवर को मांस पाने के लिए काटने पर जानवर को बहुत पीड़ा होती है, जबकि पौधों मे दर्द का पता चलाने वाली ग्रंथि नहीं होती इसलिए पौधों को काटे जाने पर कोई दर्द का एहसास नहीं होता. इसलिए शाकाहार नैतिक है, जबकि मांसाहार निर्दयता और क्रूरता है.
ये तर्क भी पूरी तरह मिथ्या पर आधारित होने के कारण बेकार है क्योंकि चेतना तो हर जीव मे बलकि पेड़ पौधों तक मे भी बड़ी जागृत होती है ये तथ्य तो भारत के महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने ही सिद्ध कर दिया था हर जीव और वनस्पति को पीड़ा पहुंचती है पीड़ा पहुंचाए जाने पर हर जीव चीखता चिल्लाता, कांपता और भागता है. हां ये बात और है कि उनका चीखना चिल्लाना और कांपना वगैरह मनुष्य को नहीं दिखता
तो ऐसा कहिए कि अपनी सुनने देखने की खराब क्षमता के कारण इन्सान कुछ जीवों को तो छोड़ देता है और उनके बदले अनेकों जीवों की क्रूरतापूर्वक हत्या करता चला जाता है
और फिर खुद को आदर्शवादी भी बनता है
[5] क्या भोजन के पशु हत्या का आदेश देकर अल्लाह ने बेजुबान पशुओं के साथ बैर किया है ?
प्रश्न ये है कि अल्लाह यदि प्राणिमात्र से प्रेम करता है तो केवल जानवरों की ही बलि क्यों लेता है, मनुष्यों की क्यों नहीं ?
ये प्रश्न अक्सर इस रूप मे पूछा जाता है कि अल्लाह ने पशुओं को मारने की अनुमति देकर बेजुबान पशुओं से शत्रुता क्यों निभाई ??
इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर है कि अल्लाह मनुष्य की बलि इसलिए नहीं लेता क्योंकि अल्लाह ने मनुष्य को अपनी इबादत के उद्देश्य से बनाया है, न कि किसी प्राणी का भोजन बनने के उद्देश्य से, जबकि मनुष्य के अतिरिक्त सारे जीवजगत , वनस्पतियों आदि को मनुष्य के उपभोग के लिए बनाया है ( कुछ पौधे व पशु भोजन के लिए, शेष धरती पर मनुष्य का जीवन सुगम बनाने के लिए बनाए ) तो जिसको बनाने का जो उद्देश्य है उसके लिए अल्लाह ने वैसा ही आदेश दिया है । यानी मनुष्यो के लिए इबादत (सदाचार), और कुछ पशुओं के लिए मनुष्य का भोजन बनना
साथ ही अल्लाह ने मनुष्य के हर खाद्य मे जीव और प्राण रखकर ये कहे जाने की सम्भावना को बिल्कुल खत्म कर दिया है कि अपना पेट भरने के लिए जीव हत्या करना क्रूरता है. जो मनुष्य इस धरती पर रहकर कुछ भी खाएगा पीएगा वो जीव हत्यारा ही होगा
अल्लाह का जीव जगत के प्रति प्रेम सत्य है जिस तरह वो मनुष्यों से प्रेम करता है और मनुष्यों को कष्ट देनेवाले पर कुपित होता है वैसे ही समस्त जीवजगत से भी वो प्रेम करता है और इनको भी अकारण कष्ट देने वालों पर कुपित होता है और ये कतई न समझा जाए कि कुछ पशुओं को खाने के लिए मारने की अनुमति देकर, उन पशुओं से कोई बैर किया है क्योंकि जिस अल्लाह के आदेश पर मनुष्य खाने के लिए पशुओं को मारते हैं, उसी अल्लाह के आदेश पर मौत का फरिश्ता तमाम मनुष्यों को भी मार देगा. चाहे उनमें अल्लाह के कितने ही प्रिय मनुष्य क्यो न हों
स्पष्ट है कि जीवन देने और मारने से भले हम मनुष्यों के प्रेम और बैर का आकलन कर सकते हैं, पर अल्लाह के प्रेम और बैर का आकलन जीवन देने और मारने से अलग रखकर किया जाना चाहिए.
यानि प्राणी जब तक जिए तब तक सुखपूर्ण परिस्थितियों मे जिए, यही व्यवस्था अल्लाह ने प्राणिमात्र के लिए बनाई है, और ये व्यवस्था बनाए रखने का मनुष्यों को आदेश दिया है, और यही उसका प्राणिमात्र के लिए प्रेम है , जो सबके लिए हितकारी है !!
[6] पशुबलि का आदेश इस्लाम मे क्यों हैं
कुछ भाईयों का सवाल है के ठीक है कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से मांस खा सकता है क्योंकि जैसी जीवहत्या मांसाहार मे होती है वैसी ही जीव हत्या शाकाहार मे भी होती है. लेकिन जब जीव हत्या अपनी इच्छा के बजाय धार्मिक आडम्बर के रूप मे की जाए तो वही सबसे बुरी बात है, और पशुओं की कुरबानी देने से जन्नत मिलने की बात या बकरीद मे निर्दोष जीवों की हत्या करने से अल्लाह के प्रसन्न होने की बात बडी निन्दा योग्य है क्योंकि अपने बनाए जीवों की हत्या करवा के ईश्वर कभी प्रसन्न नही हो सकता ।
कुछ लोग ये भी कुतर्क करते हैं कि हजरत इब्राहीम के अपने पुत्र की कुरबानी देने की याद मनाने के लिए मुस्लिम बकरीद मनाते हैं , तो यदि वास्तव में मुस्लिम भाई अल्लाह को खुश करना चाहते हैं तो क्यों न वे अपने पुत्र की कुर्बानी दिया करे?
इस बात का तो इतना ही जवाब है कि हजरत इब्राहीम ने भी अल्लाह के आदेश को सर माथे लेकर अपने पुत्र की कुर्बानी का निश्चय किया था, और मुसलमान भी अल्लाह के आदेश को सर माथे लेकर बकरीद मे जानवर जिबह कराते हैं
मुसलमान कभी अपनी इच्छा से उस हद से आगे नही बढ़ सकता जो अल्लाह ने उसके लिए नियत कर दी हैं वरना मैंने ऐसे कई मूर्ख भी देखे हैं (जो मुस्लिम समाज से नहीं हैं ) जो अपनी मूढ़ बुद्धि लगाकर अपने नहीं पर दूसरों के पुत्रों की बलि जरूर ईश्वर के प्रसन्न होने की झूठी आशा मे कर डालते हैं ।
इन भाईयों के विरोध का कारण अस्ल मे संसार के सभी धर्मों मे फैले बलि प्रथा के विकृत स्वरूप के कारण है इन धर्मों मे ये मान्यता थी और है कि बलि दिए गए पशु का मांस ईश्वर खाता है और तब प्रसन्न होता है ईश्वर तक बलि दिए पशु का रक्त और मांस पहुंचाने के लिये वे लोग पशु के मांस को आग मे जला कर खत्म कर देते थे या अपने मन्दिरो मे देवता की मूर्ति के आगे बने कूप मे डाल देते थे अर्थात् मांस का कुछ भाग या सम्पूर्ण मांस इस तरह अकारण ही नष्ट कर डालते थे, या फिर ईश्वर तक उस मांस को पहुंचाने के लिए उन पुजारियों को खिलाते थे जिनके पेट पहले ही भरे होते थे. पशुओं के मांस की बर्बादी के इन कर्मकाण्डों का ही अनेक महात्माओं ने विरोध किया है
परंतु इस्लाम मे पशुओं की कुरबानी का उद्देश्य अल्लाह को वो मांस खिलाकर प्रसन्न करना नही है बल्कि अल्लाह तो खाने-पीने , सोने-जागने और प्रसन्न और दुखी होने जैसी मानवीय भावनाओं से परे है
देखिए अल्लाह स्वयं पवित्र कुरान मे फरमाता है कि कुरबानी के पशुओं के रक्त और मांस उसे नही चाहिए बल्कि वो तो मनुष्य को सन्मार्गी बनाना चाहता है
" ना उनके मांस अल्लाह को पहुंचते हैं और न उनका रक्त ही अल्लाह को पहुंचता है किन्तु उस तक तुम्हारा तक़वा ( अल्लाह के लिए सत्कार्य का वरण और दुष्कर्म का त्याग करने की प्रवृत्ति ) पहुंचता है ॥"
पवित्र कुरान 22:37
हां ये है कि यदि हम अल्लाह की आज्ञा मानकर मानवजाति की सेवा करें तो अल्लाह का आशीर्वाद हमें प्राप्त होगा जिसे मानवीय भाषा मे हम अल्लाह का प्रसन्न होना कह देते हैं इस के विपरीत यदि हम मनुष्यों को कष्ट दें तो उस के परिणामस्वरूप अल्लाह हमें दण्ड देगा, जिस स्थिति को हम मानवीय भाषा मे अल्लाह की अप्रसन्नता या क्रोध कह देते हैं ।
लिहाजा पशुओं की कुरबानी का आशय भी यही है कि पैसे वाला मनुष्य, उन निर्धन मनुष्यों को वो भोजन दान करे, जो मनुष्य निर्धनता के कारण कभी पौष्टिक भोजन करने की बात भी नही सोच पाते वे अक्सर भूखे रहते हैं, या जब भोजन करते हैं तो न्यून पौष्टिकता वाला भोजन करते हैं ,क्योंकि वो भोजन सस्ता होता है, ऐसे मे निर्धन लोग कुपोषण और अनेक रोगों का शिकार हो जाते हैं
अल्लाह स्पष्ट रूप से फरमाता है कि कुरबानी का मांस मनुष्य के स्वयं के उपयोग के लिए और गरीबों को दान करने के लिए है, न कि अल्लाह को भेंट चढ़ाने या पण्डे पुजारियों के लिए :-
" ताकि वो उन लाभों को देखें जो वहाँ उन के लिए रखे गए हैं, और कुछ ज्ञात और निश्चित दिनों मे उन चौपायो पर अल्लाह का नाम लें, जो अल्लाह ने उन्हें दिए हैं . फिर उस मे से खुद भी खाओ और भूखे तंगहाल को भी खिलाओ "
पवित्र कुरान 22:28
तो बकरीद मे हम पशु की कुरबानी कर के न उस का मांस जलाते हैं, न व्यर्थ फेंकते हैं, न भरे पेट वाले पण्डे पुजारी को खिलाते है बल्कि मांस के तीन भाग करते हैं एक भाग निर्धन मोहताजो को दान करते हैं, दूसरा भाग देने के लिए अपने कमजोर आर्थिक स्थिति वाले दोस्त और रिश्तेदारों को वरीयता देने का आदेश है और तीसरा भाग स्वयं के खाने के लिए रखते हैं और पवित्र हदीस मे ये आदेश है कि यदि हमारे आसपास निर्धन लोग अधिक हैं तो हमें सारा का सारा मांस उनमें दान कर देना चाहिए ॥
सो बकरीद की कुरबानी हमारे विचार मे कोई बेकार का आडम्बर नही बल्कि मोहताज की सेवा का एक बड़ा पुण्य कार्य है ॥
अंत मे इतना ही कहना चाहता हूँ कि ईश्वर की दी हुई नेमतों को व्यर्थ नष्ट करना वाकई एक बडा पाप है क्योंकि दुनिया मे संसाधन सीमित हैं , यदि हम धार्मिक त्योहार के नाम पर अनाज की बालियां जलाकर नष्ट करते हों, त्योहार के नाम पर पेड़ काटकर लकड़ियाँ व्यर्थ ही जला डालते हों, त्योहार के नाम पर दूध और मिठाई जैसी खाने पीने की महंगी चीजें नदी नालों मे बहाकर व्यर्थ कर देते हों, तो उस की जरूर निन्दा करना चाहिए, क्योंकि एक तो ये सारे काम जीवहत्या भी हैं दूसरे, इन संसाधनो को व्यर्थ नष्ट कर के हम कहीं न कहीं, किसी न किसी को भूखा जरूर मार देते हैं पर हम पाते हैं कि बकरीद मे ऐसी कोई संसाधनो की बरबादी नहीं है ॥
[7] इस्लाम में पशुबलि : पशुओं के साथ असमानता या मनुष्य की सेवा ?
जब इस प्रश्न कि "इस्लाम मे ईद ए अज़हा मे पशु बलि से अल्लाह खुश क्यों होता है ?" का उत्तर हमने बताया कि ये जानवर अल्लाह को भोग लगाने के लिए नहीं, बल्कि वृहद स्तर पर निर्धन, भूखे असहाय लोगों को भोजन दान करने के लिए है. वैज्ञानिक तथ्य से ये बिल्कुल फल या सब्जी वितरण जैसा है, क्योंकि जान शाक भाजी मे भी उतनी ही होती है और अल्लाह पशुबलि की बजाय गरीबों की भोजन देकर सहायता करने से आशीर्वाद देता है जिसे मानवीय भाषा मे अल्लाह का खुश होना कहा जाता है ॥
इस पर एक भाई साहब पूछते हैं कि इस्लाम मे जानवर की कुरबानी गरीब लोगों का पेट भरने के लिए दी जाने पर अल्लाह प्रसन्न होता है तो क्या वो अल्लाह गरीब जानवरों का पेट भरने के लिए इनसानो की कुरबानी से भी प्रसन्न होगा ? और अगर नहीं होगा तो बेजुबन जानवरों के साथ इतना अन्याय अल्लाह क्यों करता है ?
हालांकि मैने भाई को कई बार बताया कि जानवरों और पौधों एक समान अक्ल और जान और पीड़ा का अनुभव होता है, तो जैसी क्रूरता मांसाहार है वैसी ही क्रूरता शाकाहार भी है और अगर भोजन के लिए जीवहत्या की अनुमति को अल्लाह का अन्याय माना जाए, तो आप कैसे इस अन्याय को न्याय मे बदलेंगे वो बताइए, क्योंकि दुनिया के हर शाकाहारी खाद्य मे भी तो जीव है, तो न्याय तो तभी हो सकता है जब आप खाना पीना और सांस लेना भी छोड़ दें. लेकिन भाई इसके लिए राज़ी नहीं
मज़े की बात ये है कि भाई को गोश्त खाने से भी कोई परहेज़ नहीं यानी खुद तो अपने हिसाब से भी ये कोई "न्याय" नहीं करेंगे बस सिर्फ अल्लाह से शिकायत करेंगे कि वो इनसान की भी कुरबानी करवाए तभी वो न्यायप्रिय अल्लाह कहलाएगा वरना नहीं. कुल मिलाकर मुझे तो ये लगा कि भाई इस्लाम मे बकरीद वाले दिन निर्धनो को भोजन दान के नियम से खफा हैं,
या फिर लगता है भाई के मुताबिक़ तान्त्रिक धर्म का वो आराध्य सबसे ज्यादा न्यायप्रिय है जो पशुबलि तो लेता ही है, साथ ही नरबलि भी लेकर प्रसन्न हो जाता है और अपने भक्तों की मनोकामनाओं को पूरा कर देता है. भाई ऐसा न्याय और ऐसा आराध्य आपको ही मुबारक हो .
विज्ञान से सिद्ध है कि पशुबलि या साग-भाजी, हिंसा दोनों मे है, लेकिन इस हिंसा बिना मानव जीवन भी असम्भव है सो बकरीद मे ढेर से पशुओं की हत्या या किसी भी शाकाहारी भोज का आयोजन एक ही बात है और निन्दनीय बात ये होती है जब खाना फेंक कर बर्बाद किया जाए और ये निन्दनीय काम अधिकतर शाकाहारी भोज के आयोजनों मे होता पाया जाता है
बकरीद के बहाने करोड़ों गरीबों को गोश्त दान कर के 20-25 दिनों के उनके भोजन की व्यवस्था कर दी जाती है, ये तो एक बहुत बेहतरीन और पुण्य का काम है
पर उथली सोच वाले लोग बात को समझना ही नहीं चाहते ॥
[8] एक दिन मे असंख्य पशुओं की हत्या क्यों ?
अब जबकि पशुओं की हत्या पर कोई आपत्ति बची, न मांसाहार को अनैतिक मानने का कोई तर्क बचा, तो अजीब आपत्ति उठाई गई कि चलिए सब ठीक है लेकिन एक दिन मे धर्म के नाम पर असंख्य पशुओं का काट डाला जाना गलत है ?
क्यों गलत है भाई ? न भोजन के लिए जीवहत्या के सिवा कोई चारा, न गरीब भूखे लोगों को धर्मार्थ भोजन दान के काम मे आपत्ति का कोई स्थान फिर गलत कैसे ?
जब खुद एक एक कर के पशुओं को काटकर खाना सही मानते हो तो कुछ निश्चित दिनों मे एक साथ उन जानवरों का काटा जाना गलत और निन्दनीय क्यों ?
ये मांस भी फेंका नहीं खाया ही जाता है, बल्कि आमतौर पर काटे गए जानवरों से बढ़कर बकरीद मे काटे गए जानवरों का अधिकांश मांस भूखो को दान कर के पुण्य कार्य ही किया जाता है ।
ये सोच भी निरा भ्रम है कि बकरीद के कारण सामान्य से बहुत अधिक जानवरों की हत्या कर दी जाती हैं
गौर से देखिए, बैलेन्स वहाँ भी बना हुआ है अरब मे विश्व भर से गए हजयात्रियो के कारण बकरीद के तीन दिनों मे विश्वभर की बाकी जगहों के मुकाबले सर्वाधिक जानवरों को काटा जाता है तो एक बात तो ये कि अरब और उसके आसपास के क्षेत्रों मे रेगिस्तान होने के कारण भोजन के लिए लोग मुख्य तौर पर मांस पर ही निर्भर होते हैं और आम दिनों मे भी अलग अलग स्थानों पर अच्छी खासी मात्रा मे पशु खाने के लिए काटे जाते हैं, बकरीद के दिनों मे केवल इतना ही फर्क पड़ता है कि अनेक पशु एक स्थान पर काट दिए जाते हैं
तो वहाँ एक दिन मे इतने जानवर क्यों काटे गए, ये प्रश्न ही बेतुका है. जैसे कोई भारतीयों के विषय मे पूछे कि भारतीय लोग रोज खाना क्यों खाते हैं, तो ये भारतीयों के लिए शर्मिन्दगी की बात नहीं होगी, बल्कि प्रश्न पूछने वाले की मूर्खता का प्रतीक होगा. ॥
और भारत मे अव्वल तो अधिकांश मुस्लिम निम्न आय वर्ग के हैं, कुछ ही मुस्लिम सम्पन्न हैं जो बकरीद मे पशु ज़िबह कराते हैं फिर देखिए भारत के जिन क्षेत्रों मे मांस ज्यादा खाया जाता है जैसे रूहेलखण्ड के शहरों मे वर्ष भर तकरीबन रोज लोग गोश्त खाते हैं तो यहाँ पर जब बकरीद का समय आता है तो कसाई बकरीद के पहले और बाद मे मांस काटना बेहद कम कर देते हैं क्योंकि घरों मे तकसीम का गोश्त स्टोर कर के रखा गया होता है इसलिए कसाईयों को पता होता है कि अभी उनकी बिक्री नहीं होगी.
इसके बरअक्स जिन क्षेत्रों मे मुस्लिम लोग मांस कम खाते हैं, उदाहरणार्थ पूर्वी उत्तर प्रदेश, जहाँ अमूमन लोग महीने भर मे एकाध बार गोश्त खाते हैं, वहाँ बकरीद होने के डेढ़ दो महीने बाद ही गोश्त खरीद कर खाया जाता है यानी औसत वही रह जाता है जो शेष वर्ष भर मे मांस खाने का रहता है. ॥
अरब देश हों, या भारत जैसा गरीब मुस्लिमों का देश, जो भी इनसान बकरीद मे जानवर कटवाता है, वो अनिवार्य रूप से 66% गोश्त बांटता है, शेष 33% अपने खाने के लिए रखता है .
अरब से गोश्त के पैकेट बनाकर अफ्रीकी देशों मे बांटे जाते हैं. विश्वभर मे बकरीद दानपर्व के रूप मे ही मनाया जाता है, क्योंकि कुरान और हदीस इस गोश्त के दान का आदेश देते हैं, फिर यदि ये मांस दान न किया जा रहा होता, या फेंका जा रहा होता, तो ये बड़ी निन्दनीय बात तो होती पर इसे फिर भी कुरान और हदीस की कमी तो नहीं कहा जा सकता था फिर धर्म से ऐसी आपत्तियों का क्या तुक ?
बड़े फालतू की ऐतराज ये भी किए जाते हैं कि इतनी मंहगी चीज के बदले गरीब को सस्ती चीज दान की जाती तो ज्यादा दिनों तक गरीब का पेट भरता. मतलब कि अच्छी और मंहगी चीजें खाने का कोई हक ही नहीं गरीब को ?
सारी अच्छी चीजें सिर्फ अमीरों के लिए. ऐसे आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी लोग फिर दया और प्रेम की बात भी करते हैं. अरे भई, इस्लाम तुम्हें एक ही दिन के दान की शिक्षा नहीं बल्कि हर गरीब को जहाँ तक हो सके दान करने की शिक्षा देता है, सदका,फितरा, ज़कात जैसे अनेकों रास्ते तो अनिवार्य कर दिए हैं ताकि कठोर दिलों के लोगों को भी दान करना पड़े और समाज मे बदहाली न पैदा हो, बाकी तो हमारे नबी ﷺ ने भूखे लाचार लोगों को खाना खिलाने और उनकी सहायता करने की बहुत सारी तालीमात दी है
मंहगे गोश्त का ही दान क्यों वो भी सुनिए.
मांस शरीर को पुष्ट करता है, और इतनी मात्रा मे गरीबों को मिल जाता है कि वो 20-25 दिन तक रखकर खा सकें यानि सेहत अच्छी करने लायक वक्त के लिए गरीबों को अच्छा खाना मिल जाता है, शेष समय मे भी दान पुण्य पर कोई रोक नहीं है इस्लाम मे जो बकरीद के दान को एक दिन की बहार समझने लगो.
अगर गरीब को गोश्त की कीमत के पैसे दे दिए जाएं तो वो कभी मंहगी और पौष्टिक चीज खुद खरीद कर खाएगा ? बल्कि वो तो उन पैसों को सेंत कर रख लेगा ताकि बहुत दिनों तक खाए. और कभी पौष्टिक चीज खरीद कर नहीं खाएगा .
जबकि महीने भर बकरीद मे मिला गोश्त खाने के बाद भी उसे हम मुस्लिमो द्वारा ही और खाना खिलाने का आदेश है ,
तो क्या ये बेहतर नहीं कि उन्हें किसी उपलक्ष्य मे मंहगा और पौष्टिक खाना खाने का भी अवसर दिया जाए ?
[9] शाकाहारी व्यक्ति हर सब्जी खाता है तो एक मुस्लिम मांसाहारी हो कर हर हर पशु का मांस क्यूं नहीं खाता
हमें हमारे मां बाप ने हमेशा ये तहज़ीब सिखाई कि अपने शाकाहारी परिचितो के सामने मांस खाना तो क्या, हम मांस का जिक्र भी न किया करें, ताकि उन शाकाहारी मित्रों का जी न खराब हो, हमने भी इस तहज़ीब का सदा ध्यान रखा
हालांकि शाकाहारी मित्रों ने कई बार मांस खाने पर हमें आड़े हाथों लिया मगर हम सभ्यतावश चुप ही रहे. पर सोशल मीडिया पर जब हमने देखा कि मांसाहार को लेकर शाकाहारी लोग पवित्र अल्लाह पर आपत्तिजनक आरोप लगा रहे हैं, तो हमें मांसाहार का लॉजिक बताना पड़ा. !!
अब जब इस बात का विरोध न कर सके कि शाकाहार भी जीवहत्या है, और मांसाहार इंसानी स्वास्थ्य के लिए ज्यादा लाभकारी है, तो कुछ लोग ये कुतर्क लेकर बैठ गए कि जब मुस्लिम मांस खाने को नैतिक मानते हैं तो सूअर भी खाया करें, क्योंकि वो भी तो मांस है और अमेरिका मे सब खाते हैं
वैसे यही कुतर्क जब जान अब्दुल्लाह भाई को किसी ने दिया तो अब्दुल्लाह भाई ने पलटकर उस भाई से पूछ लिया कि भाई तुम देश की किसी भी लड़की से शादी करने को नैतिक मानते हो तो अपनी सगी बहन से भी शादी करने का चलन भी बना लो, वो भी तो तुम्हारे देश की लड़की है, जर्मनी मे तो लोग ऐसा करते हैं , उस व्यक्ति के तर्क को अब्दुल्लाह भाई ने जब उसी पर लागू कर दिया, तो उस व्यक्ति को बहुत "शर्म" आने लगी, जाहिर है उसका पांसा उसी पर उल्टा पड़ चुका था
हमसे भी हमारे एक प्रिय मित्र कहते हैं कि भाई मैं तो दूध दही, फल सब्जी खाने वाला इंसान हूँ और हर सब्जी खाता हूँ, तो ज़िया भाई अगर तुम बकरे, मुर्गे का मांस खाते हो तो सुअर भी खाया करो, आखिर को मांस तो मांस है
हमने उन भाई से कहा कि भाई तुम गाय भैंस का दूध पीते हो, तो सुअर का दूध भी पी सकते हो, अपने तर्क को सिद्ध करने के लिए, क्योंकि दूध भी तो दूध है. लेकिन वो भाई साहब अब तक सूअर का दूध पीने को राज़ी नहीं हुए हैं
समस्या ये है कि ये भाई लोग जोश मे हकीकत की बात भूल जाते हैं, कि हर समाज, हर समुदाय का रहन सहन का एक कायदा होता है, जिस कायदे का पालन करने का उस समुदाय का हर व्यक्ति अभ्यस्त होता है, और उस कायदे से बाहर जाने वाली कोई बात समुदाय के लोगों के गले से हरगिज नहीं उतर सकती, जैसे हमारे देश और हमारे धर्मो मे अपनी सगी बहन से विवाह की बात निषेध है और हमारे गले से नीचे नहीं उतर सकती, या उत्तर भारत के लोग सूअर का दूध पीने के नाम पर ही घिना उठते हैं, क्योंकि ये हमारी सभ्यता से बाहर की बातें हैं, उसी तरह कोई भी मुस्लिम हलाल ठहराए गए जानवरों के अलावा किसी भी जानवर का मांस खाने की बात सोच ही नहीं सकता, क्योंकि ये उसकी सभ्यता से बाहर की बात है. और मुस्लिमों की इस कुछ चुने हुए जीवों का मांस ही खाने की नीति के पीछे का कारण भी स्पष्ट है कि मुस्लिम के लिए हर वो चीज खाना हराम ठहराया गया है जिस चीज की प्रकृति दूषित है और जिसे खाने पर स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है
सूअर क्यों दूषित है, ये बताने की जरूरत नहीं है, जल्द ही पोर्क खाने वालों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे मे भी मैं आपको बताऊंगा. पर अभी के लिए इतना ही कहना चाहता हूँ कि वाद विवाद मे भी अगर लोग सभ्यता और तर्क के साथ बातें करें तो ज्ञान बढ़ता है, लेकिन अगर बहस असभ्यता से, कुतर्को का सहारा लेकर की जाए तो आप अपनी ही अशिक्षा और मूर्खता सिद्ध करते हैं, किसी और का कुछ नहीं बिगाड़ते ॥
[10] इस्लाम मे मांसाहारी पशुओं का मांस मुस्लिम के लिए प्रतिबंधित क्यों है
कुछ लोग अक्सर ये प्रश्न करते हैं कि जब इस्लाम मुस्लिमों को मांसाहार की अनुमति देता ही है, तो फिर आखिरकार सिर्फ कुछ पशुओं को ही खाने की अनुमति ही क्यों देता है. विशेषकर इस्लाम कुत्ते बिल्ली जैसे शिकारी और मांसाहारी पशुओं और सांप आदि जैसे जहरीले जीवों का मांस खाने पर रोक क्यों लगाता है जबकि विश्व के कई भागों मे इन मांसाहारी पशुओं का मांस लोग चाव से खाते हैं, फिर मुस्लिमों पर ये प्रतिबंध क्यों ?
उत्तर : इस प्रश्न का बड़ा ही स्पष्ट उत्तर खुद कुरान पाक मे सर्वशक्तिमान अल्लाह ने दिया है, सूरह मायदा की चौथी आयत मे-
“ (ऐ रसूल) तुमसे लोग पूछते हैं कि कौन कौन सी चीज़ उनके लिए हलाल की गयी है, तुम (उनसे) कह दो कि तुम्हारे लिए साफ सुथरी चीजें हलाल की गयीं (उन्हें खाओ)”
यानी जो चीजें साफ सुथरी हैं केवल वही चीजें मुस्लिम के लिए खाना हलाल हैं, और दूषित चीजों को खाना निषेध है. और मांसाहारी , सर्वाहारी व जहरीले प्राणियों का मांस निश्चित ही दूषित होता है जिसको खाने पर भयंकर बीमारियों का खतरा बना रहता है, ये तो स्पष्ट सी बात है कि जहरीले जीवों का मांस किस तरह दूषित होता है. हां ये समझने मे लोगों को दिक्कत हो सकती है कि भला शिकारी, मांसाहारी व सर्वाहारी जानवरों का मांस किस तरह दूषित होता है.
बहुत से कारणों से मांसाहारी पशुओं का मांस दूषित होता है, जैसे ये शिकारी पशु अन्य पशुओं का खून पीते हैं, और खून मे अनेक हानिकारक कीटाणुओं का वास होता है जिस कारण मांसाहारी पशु का मांस भी दूषित रहता है ,
आपने भयंकर जानलेवा बीमारी "रेबीज़" के विषय मे अवश्य सुना होगा ये घातक बीमारी मुख्यतया आवारा कुत्तों के काटने या मनुष्य के खुले घाव पर कुत्तों द्वारा चाटने से होती है , और यदि एक बार इस बीमारी के कीटाणु मनुष्य के मस्तिष्क तक पहुंच जाएं तो मनुष्य की भयंकर मौत निश्चित है. और केवल कुत्तों मे ही नहीं बल्कि ये बीमारी अन्य पशुओं मे भी होती है, और इस बीमारी का विस्तार ये अन्य पशु भी करते रहते हैं, और ये रैबीज़ आम तौर पर माँसाहारी पशुओं को ही होती है जो आवारा होते हैं, जैसे शहर मे घूमने वाले कुत्ते बिल्ली और बन्दर, और वो मांसाहारी पशु जो जंगल में रहते हैं जैसे लोमड़ी, चीता, सियार, भेड़िये और चील ,गिद्ध आदि शिकारी पक्षी। यह बीमारी जंगलों में काफी आम होती है। बहुत से जानवर हर साल इस बीमारी से मर जाते हैं, और जो मनुष्य इन रोगी जानवरों के सम्पर्क मे आता है, वो भी रेबीज़ से ग्रसित हो जाता है .
मेडिसन विशेषज्ञों का मानना है कि रेबीज (हलक जाना) का कोई इलाज नहीं है और रेबीज़ ग्रसित व्यक्ति की तीन महीने के भीतर मौत होना निश्चित है।
ये बीमारी होने पर व्यक्ति के शरीर मे तेज दर्द होता है, व्यक्ति को प्यास लगती है, पर पानी देखते ही उसे दौरा पड जाता है, रोगी चीखने चिल्लाने लगता है, धीरे धीरे रोगी का व्यवहार बढ़ते रोग के साथ मनुष्य की बजाय एक हिंसक जानवर की तरह का हो जाता है, व्यक्ति बोलना छोड़ देता है और कुत्ते की तरह गुर्राना और भौंकना शुरू कर देता है, लोगों को झपटने और काटने दौड़ता है, तदन्तर रोगी की रीढ़ की हड्डी भी किसी जानवर की तरह मुड़ जाती है और अंतत: इसी कष्ट मे रोगी प्राण त्याग देता है, ये रोग कितना घातक है इसका अनुमान इस बात से लगाइए कि आज तक कोई भी इस रोग से ठीक नहीं हुआ है ।
ये प्रश्न सहज दिमाग़ मे उठेगा कि रेबीज़ जानवरों के काटने से फैलता है, लेकिन उनका मांस खाने पर सम्भवत: ये रोग न फैले,
तो सुनिए, चीन व फिलीपीन्स मे रेबीज़ ग्रसित कुत्ते का मांस खाकर मनुष्यों के रेबीज़ की चपेट मे आने की कई घटनाओं के सामने आने के बाद इसी वर्ष मार्च मे international public health media ने चेताया है कि कुत्ते का मांस खाने पर रेबीज़ फैल सकता है .
वर्ष 2009 मे स्वयं चीन सरकार द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक रेबीज़ से मौत के मामले में भारत और चीन विश्व में शीर्ष स्थान पर हैं, समझा जा सकता है कि जहाँ भारत मे गरीबी के कारण इलाज न मिल पाने पर रेबीज़ से लोग मरते हैं, वहीं जानकारों के अनुसार चीन मे विश्व भर मे सबसे ज्यादा रेबीज़ फैलने का मुख्य कारण है कुत्ते का मांस खाया जाना ॥
और न सिर्फ खाया जाना, बल्कि मांस के लिए कुत्ते बिल्ली को काटने, उस मांस का प्रसंस्करण करने और उसे पकाने के दौरान भी मनुष्य रेबीज़ की चपेट मे आ सकता है , वियतनाम मे रेबीज़ के एक भयंकर प्रकोप मे अनेक मौतों के बाद वहाँ की सरकार ने आधिकारिक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें लिखा था कि जहाँ रेबीज़ से 70% मौतें जानवरों के काटने या अन्य कारणों से हुईं, वहीं 30% मौतें केवल इस कारण हुई क्योंकि वे व्यक्ति कुत्ते बिल्लियों का मांस काटते थे जिस कारण उनमें रेबीज़ फैल गया
ध्यान दीजिए रेबीज़ के संवाहक ये वही सारे जानवर हैं जिनका मांस खाना इस्लाम ने हराम ठहराया है. ये ठीक है कि आज हर छह महीने पर एण्टी रेबीज़ टीके लगवा कर इन जानवरों को काफी हद तक रेबीज़ से बचाया जा सकता है, लेकिन टीके को शत प्रतिशत इलाज मानकर इन जानवरों का मांस खाने का रिस्क लेना बहुत बड़ी मूर्खता सिद्ध होगी.
जबकि शाकाहारी जानवर को ऐसे कोई टीके लगवाने की जरूरत नही, शाकाहारी पशु चाहे आपको जंगल मे भी मिले उसका मांस आप बिना किसी भय के खा सकते हैं ॥
[11] मुसलमानों को केवल पेड़ पोधों से भी कम बुद्धि वाले पशुओं का मांस खाने की अनुमति हैं
मैं ये तो नहीं कहता कि मांस के लिए जानवर को काटने पर उसे पीड़ा नही होती, यदि मैं ऐसा कहूँ तो ये कुतर्क होगा .
पर मैं ये जरूर कहता हूँ कि जितनी पीड़ा जानवर को काटे जाने पर होती है, उतनी ही पीड़ा पौधे को भी सब्जी भाजी के लिए काटे जाने पर होती है
उस तरह तो पशु हत्या जैसी ही हिंसा वृक्ष हत्या मे भी हुई
पर क्या मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों की हत्या (चाहे वो जंतु हो या वनस्पति) मनुष्यों की हत्या के समान ही जघन्य अपराध की श्रेणी मे रखा जा सकता है ?
मेरे विचार से तो नहीं. मनुष्य की हत्या और जानवर की हत्या समान नहीं है.
वास्तव मे मरने वाले जीव के लिए मौत कष्ट की पराकाष्ठा नहीं है, यहां तक की मनुष्य के लिए भी नही.
पर मनुष्य के लिए मौत को कष्ट की पराकाष्ठा इसलिए माना जाता है क्योंकि मनुष्यों मे प्रियजनों से मोह और प्रेम और सहजाति के लोगों से सहानुभूति का विलक्षण गुण होता है , जो मनुष्य जैसा किसी और जीव मे नहीं पाया जाता इसलिए एक मनुष्य की मौत से उसके परिवारीजन, उसके मित्र एवं परिचित यहां तक कि नितान्त अपरिचित लोग भी दुख महसूस करते हैं, डर से जाते हैं ,
सो इस कारण मनुष्य की हत्या भी जघन्य अपराध ठहरती है. पर किसी जानवर की मौत से सामान्यतः उसके किसी परिवारीजन या परिचित जीव को कोई फर्क भी नहीं पड़ता यदि वो उसे कटते न देखे. हां हर जीव की बाल्यावस्था मे उसकी जन्मदात्री जरूर उस जीव से वात्सल्य रखती है और उसके मर जाने पर दुख से व्याकुल हो जाती है .
इन बातों का ध्यान रखते हुए इस्लाम ने किसी भी अबोध बालक को नहीं बल्कि युवा जानवर को ही कुरबानी देने की अनुमति दी है. साथ ही जानवर को ज़िबह होते दूसरे जानवर न देखें, इस बात का भी विशेष ध्यान रखने का आदेश दिया है
और आगे देखें तो बेशक ईश्वर ने कुछ ऐसे जीव भी बनाए हैं जो मनुष्य जितनी तो नहीं पर काफी कुछ मनुष्य जैसी ही समझ रखते हैं प्रेम और मित्रता जैसी भावनाओं को समझने के लिए, मुख्यतया ये विशिष्ट बुद्धि के जीव कुत्ते, बिल्ली और बन्दर जैसे मांसाहारी, शिकारी या सर्वाहारी जानवर होते हैं. और इस्लाम ने शिकारी जानवरों का मांस खाने को भी हराम ठहराया है.
इस्लाम ने तो केवल कुछ ऐसे जानवरों का मांस खाने की अनुमति दी है जिनमे पेड़ पौधों से भी कम बुद्धि होती है और छुईमुई जैसे पौधे भी उन्हें मूर्ख बना देते हैं ।
तो जिन जिन आधारों पर व्यक्ति जीवित शाकाहारी भोजन को खाने को नैतिक मानता है, मतलब पौधों मे जानवरों से कम बुद्धि होती है, और पौधे मे अनेक जीवो के मुकाबले कम करूणा होती है .
कमोबेश इन्हीं आधारों पर मुस्लिमो द्वारा भी कुछ निर्धारित जीवों का मांस खाना नैतिक माना जाएगा .
और यदि किसी को बुद्धिमान पशुओं का मांस खाने पर आपत्ति हो तो वो अपनी आपत्ति उन लोगों के आगे जता सकता है जो लोग अपनी जीभ के स्वाद के लिए कुत्ते, बिल्ली, लोमड़ी और बंदर जैसे विलक्षण बुद्धि वाले जीवों को भी नहीं छोड़ते
निसन्देह, ये लोग मुस्लिम नहीं मिलेंगे ॥
[12] सूअर का मांस हराम क्यों है
"सूअर के नाम से भी मुसलमान नफरत करते हैं " मैं इसे एक जुमले से ज्यादा नहीं समझता, क्योंकि सूअर से यदि नफरत की बात हो तो सबसे ज्यादा पोर्क खाने वाले पश्चिम मे भी "स्वाइन" शब्द एक गाली की तरह इस्तेमाल होता है, और हमारे ही देश मे गैर मुस्लिम समुदायों के लोग खुद गालियों मे सूअर शब्द का बहुत प्रयोग करते हैं, सूअर को सबसे गन्दा जानवर मानकर नफरत की राजनीति मे सूअर और सूअर के मांस का प्रयोग किया करते हैं,
तो हमारे कुछ भाई लोगों को सूअर से सिर्फ मुस्लिमों की ही विरक्तता क्यों दिखाई देती है, ?
हां ये ठीक है कि सूअर का मांस खाना मुस्लिमों के लिए प्रतिबंधित है और प्रतिबंधित इसलिए क्योंकि सूअर की प्रकृति गंदगी खाने की होती है, इसलिए मुस्लिम इस जानवर से घिन महसूस करते हैं और इसी घिन के कारण अपने घर या खाने मे इस जानवर की कल्पना नहीं कर सकते हैं, सिर्फ मुस्लिम ही नहीं हमारे देश के अधिकांश गैर मुस्लिम भी समान कारणों से सूअर से घिन रखते हैं
अब इस घिन या "नफरत" मे मुस्लिम क्या करते हैं सिवाय इसके कि वो सूअर को अपने घरों से दूर रखते हैं
कहीं नफरत के चलते मुस्लिम लोग सूअरों को मार मार कर घायल कर रहे हों, या सूअर की निर्मम हत्या कर रहे हों, ऐसा तो कोई उदाहरण आज तक हमारे सामने नहीं आया, बल्कि सूअर को प्रकृति का सफाईकर्मी बनाया गया है, ये बात और इस कारण सूअर के जीवित रहने की जरूरत हम मुस्लिम अच्छी तरह से जानते हैं ॥
कुछ लोग ये तर्क देते हैं कि सूअर 1400 वर्ष पहले सिर्फ मल खाता था, तब उसका मांस हराम ठहराया जाना ठीक था पर अब सूअर को सफाई सुथराई के साथ साफ आहार खिलाकर पाला जाता है तो अब मुस्लिमो को सूअर का मांस हराम न समझकर खा लेना चाहिए. पर ये तर्क देने वाले सूअर के आहार की मूल प्रकृति को भूल जाते हैं जिस प्रकृति को बदला नहीं जा सकता, इसी प्रकृति के चलते उसे चाहे कितनी ही सफाई से रखा जाए व साफ खाना खिलाया जाए तब भी सूअर अपना और बाड़े के अन्य सूअरों का मल खाया करता है, इसलिए ये तर्क देने का कोई अर्थ नहीं कि सफाई से पाले हुए सूअर का मांस खाने मे हर्ज नहीं,
सूअर की मल खाने की प्रकृति के कारण इस जानवर का शरीर अशुद्धियों से भरा हुआ होता है, क्योंकि जाहिर है किसी भी जीव का शरीर उसके द्वारा खाए गए भोजन के तत्वों से ही बनता बढ़ता है, तो विभिन्न जीवों, मनुष्यों के मल को खाकर बने सूअर के मांस मे खतरनाक बीमारियां पैदा करने वाले कीटाणुओं की भरमार रहती है, मेडिकल एक्सपर्टस के मुताबिक पोर्क मे मौजूद किस्म किस्म के बैक्टीरिया लगभग 70 तरह की बीमारियां पैदा कर सकते हैं, जो लोग पोर्क खाया करते हैं उनकी आंतों मे पिन वर्म, हुक वर्म और रोइण्ड्रम जैसे कीड़े पैदा हो जाते हैं, जिनमें कदुदाना नाम का आंत मे पैदा होने वाला कीड़ा सबसे ज्यादा घातक होता है, ये कीड़ा खून के बहाव के साथ जिस्म के किसी भी हिस्से मे पहुंचकर हार्ट अटैक, दिमागी बीमारी, अंधापन जैसी खतरनाक बीमारियां दे सकता है.
सूअर के मांस मे मौजूद बैक्टीरिया उसको अच्छी तरह पकाने के बावजूद जिन्दा रह सकते हैं, अमेरिका मे किए गए एक अध्ययन मे ये बात सामने आई कि "Trichura Tichurasis" रोग से पीड़ित 24 मे से 22 लोगों ने पोर्क को अच्छी तरह पकाकर खाया था फिर भी वो इस रोग से पीड़ित हो गए ॥
कुछ लोग ये कह सकते हैं कि अगर सूअर का मांस इतना ही हानिकारक है तो अमेरिका मे तो सभी पोर्क खाते हैं तो सब बीमार क्यों नहीं रहते वहाँ ? वो लोग स्वास्थ्य के मामले मे भारत के लोगों से बेहतर कैसे रहते हैं ?
उसका उत्तर ये है कि अमेरिका के लोग पोर्क के साथ ही साथ बहुत सी स्वास्थ्यवर्धक चीजें, फल,मेवे, मछली, शुद्ध दूध मक्खन आदि भी भरपूर मात्रा मे खाते हैं जिन चीजों के गुणों से इनके शरीर को जो क्षति पोर्क खाने से हुई होती है उसकी क्षतिपूर्ति हो जाती है, ये ठीक ऐसा है जैसे एक चेन स्मोकर , सिगरेट पीने के साथ साथ खाने मे विटामिन सी से भरपूर चीजों की भी खूब मात्रा ले रहा हो तो उस व्यक्ति की त्वचा और बाल स्मोकिन्ग के प्रभाव से बचे रहेंगे लेकिन कोई इसका ये निष्कर्ष निकाले कि भरपूर सिगरेट पीने से त्वचा मुलायम और बाल काले घने रहते हैं तो इसे निष्कर्ष निकालने वाले की अज्ञानता ही कहा जाएगा ॥
बहरहाल कुरान के अलावा बाइबल मे भी सूअर के मांस पर प्रतिबंध है तो हम समझ सकते हैं कि पहले के नबियों के लिए भी ये चीज हराम थी और अल्लाह का नियम सदा एक सा और स्पष्ट रहा है कि स्वास्थ्य के लिए हानिकर चीजों से सदा दूर रहा जाए, अज्ञानी तो वो मनुष्य हैं जो इन बातों पर ध्यान न देकर अस्वास्थ्यकर चीजों मे मजा ढूंढने चलते हैं और बीमारी मोल ले लेते हैं ॥
[13] काश कि मुझे मांसाहार का ये लाभ पहले से पता होता
बचपन मे मेरे घर की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी. सो शारीरिक पोषण की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शुद्ध दूध, फल, मेवे, मछली, मुर्गा, मटन आदि सुलभ नहीं थे
सिर्फ बीफ (भैंस का मांस) ही सस्ता और सुलभ साधन था जो हम बढ़ते बच्चों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं को पूरा कर सकता था. सब्जियां हर बच्चे की तरह मुझे भी सख्त नापसन्द थीं
पर लगभग 7 वर्ष की अवस्था मे ही मैंने टीवी पर जीवहत्या के विरोध के कुछ कार्यक्रम देखे जिन्होंने मेरे संवेदनशील ह्रदय पर बहुत असर डाला और मैंने मांसाहार का पूरी तरह त्याग कर दिया. क्योंकि मेरे ददिहाल मे काफी सदस्य गोश्त स्वाभाविक रूप से नहीं खाते थे इसलिए मेरे गोश्त न खाने पर मेरे घरवालों ने ददिहाल का प्रभाव मानकर कोई विशेष ध्यान न दिया हालांकि मेरे ददिहाल के वे लोग फल व सब्जियां और मेवे तो खाते थे. पर मैं सिर्फ कुछेक दालो, आलू, भिण्डी, टमाटर जैसी एकाध सब्जी और कभी कभार अण्डे पर निर्भर होकर रह गया, शुक्र है मैंने अण्डे को मांसाहार मे सम्मिलित नहीं समझा था. वरना मेरी दशा क्या होती
मैं वर्षों तक शाकाहारी रहा, पर तब मुझपर घड़ो पानी पड़ गया जब 11-12 वर्ष की उम्र मे मैंने स्वास्थ्य विज्ञान की कुछ पत्रिकाओं मे संतुलित भोजन के चित्र मे अनिवार्य रूप से मुर्गा और मछली बने पाए, डाक्टरों के मुताबिक बेहतर स्वास्थ्य के लिए मांस मछली एक उत्तम भोजन था. विशेषकर नेत्रज्योति के लिए मछली खाने की सलाह दी जा रही थी.
ये देखकर मेरे दिमाग मे एक ही विचार कौन्धा कि अगर अल्लाह ने मांस को इनसान का खाद्य नहीं बनाया तो मांस मे इनसानी शरीर के लिए इतने फायदे क्यो रख दिए. अगर कुदरत न चाहती कि गोश्त को कोई खाए तो गोश्त को भी जहर या शराब की तरह बना देती , जिसे खाकर या तो आदमी मर ही जाता, या बुरी तरह बीमार पड़ कर धीरे धीरे मरता. .ये ज्ञान होने पर मैंने धीरे धीरे फिर मांस खाने की शुरूवात कर दी
लेकिन ये ज्ञान मिलते मिलते बहुत देर हो चुकी थी. मेरी प्राकृतिक नेत्र ज्योति बहुत क्षीण हो चुकी थी. जब मैंने डाक्टर को अपनी आंखे दिखाई तो उसने कहा था कि अच्छा हुआ जो अभी आंख चेक करा लीं कुछ देर और लगाते तो आंख की रौशनी पूरी तरह जा सकती थी . और मैं बचपन से ही पूरे समय चश्मा लगाए रखने पर मजबूर हो गया, जबकि समान परिस्थितियों मे रहने वाले, लेकिन मांस भी खाने वाले मेरे समवयस्क भाई बहन की आंखे माशाअल्लाह पूरी स्वस्थ थीं ।
खैर किसी ने सही कहा है कि अनुभव वो कंघा है जो बाल गिर जाने के बाद (उम्र बीत जाने के बाद ) प्राप्त होता है .
अगर मांसाहार सिर्फ जीभ का स्वाद होता, लेकिन शरीर के लिए पोषण या लाभ न होता. तो फिर मैं भी मांसाहार का प्रबल विरोधी होता शायद. लेकिन मांसाहार केवल स्वाद नही बल्कि सबसे ज्यादा पोषक खाद्य है जिसे अल्प मात्रा मे खाने पर भी शरीर की कार्य प्रणाली काफी सुचारू हो जाती है और शरीर को शक्ति मिलती है ॥
अफसोस, कि मांस के पोषण की सबसे ज्यादा आवश्यकता जिस निम्न वर्ग को रहती है उसी को मांस खाने को नहीं मिलता. और इसी वर्ग के अनगिनत लोग, स्त्रियाँ, बूढ़े, बच्चे आज दुनिया मे कुपोषण और भुखमरी से मर जाते हैं
ऐसे लोगों को खाने के लिए मांस उपलब्ध कराना ही सच्चा जीवप्रेम होगा. मैं नही समझता कि मनुष्यों की मौत की कीमत पर अगर कुछ जानवरों की जान बचा ली जाए तो ये कोई सत्कार्य होगा
आज मैं हर छोटे बच्चे के अभिभावकों को यही सलाह देता हूँ कि बच्चों को मांस मछली जरूर खिलाएं