इस्लाम और स्त्रियों से जुड़े मुद्दे

Table of contents 
 1.  तीन तलाके और अल्लाह का हुक्म 
 2. अल्लाह के आदेश का उल्लंघन है 'तलाक उल बिदअत' का बेवजह  प्रचलन 
 3.  हलाल नासमझी का दौर 
 4.  हलाला के कानून का मक़सद क्या है
 5.  मुस्लिम स्त्रियों को पति से तलाक लेने का है समान अधिकार 
 6.  पत्नियों के साथ बहुत भला सुलूक करना सिखाता है इस्लाम
 7.  क्या इस्लाम घरेलू हिंसा की शिक्षा देता है 
 8.  घरेलू हिंसा पर आरोपित हदीसो की व्याख्या
 9.  पवित्र क़ुरआन मे स्त्रियों की तुलना खेती से क्यों 
10.  क्या इस्लाम में औरत को नाकिस आक्ल  माना जाता है 
11.  स्त्रियों पर पुरषों को वरीयता (क़ुरआन 4:34)
12.  इस्लाम ने दाम्पत्य जीवन का आधार प्रेम को बनाया है न कि डर और अत्याचार को 
13.  स्त्रियों की मर्यादा और प्राणों की रक्षा (उम्म किर्फा)
14.  इस्लाम के मुताबिक़ औरत अपने शौहर के लिए बरकत का सबब होती है
15.  क्या इस्लाम मे स्त्रियों की तुलना कुत्तों और गधों से कर के स्त्रियों को अपमानित किया गया है 
16.  स्त्री का सम्मान तय करते है संस्कार . और संस्कारों को तय करता है धर्म 
17.  इस्लाम मे पुरुषों को एक से आधिक विवाह की अनुमति मोज मस्ती के लिए नहीं है 
18.  इस्लाम मे बहुपत्नी की इजाज़त क्यों
19.  बहुविवाह और पत्नियों के साथ न्याय का प्रश्न
20.  कोन सा धर्म देता देता है एक पत्नी का आदेश 
21.  इस्लाम मे बहुपती की अनुमति क्यों नहीं 
22. पवित्र क़ुरआन और विवाहित दास स्त्रियां
23.  इस्लाम मे बिना विधिवत विवाह के दास स्त्रियों से शारीरिक सम्बन्ध बनाने की अनुमति क्यों थी
24.  दहेज प्रथा और इस्लाम 
25.  Kya mehar aurat ka mol hai 
26.  इस्लाम मे पैतृक सम्पत्ति में बेटे और बेटियों का हिस्सा बराबर क्यों नहीं 
27.  इस्लामी कानून पर लगाए गए एक मूर्खतापूर्ण आरोप का उत्तर
28.  इस्लाम से चिढ़ने वालो की मूर्खता का एक और प्रमाण : पति पत्नी के बीच सम्बंध की चर्चा पर आपत्ति, और लिव इन रिलशनशिप की वकालत
29.  क्या नाबालिग लड़की की शादी कुरआन से साबित है 
30.  मत मारो बेटी को . जीने दो





1 तीन तलाके और अल्लाह का हुक्म 
कुरआन ए क़रीम में सूरह बक़रह में आयत 226 से लेकर 232 तक तलाक़ के अहकाम बताते वक़्त ही आयत 231 में अल्लाह ने लोगों को इस बात से खबरदार किया है कि तलाक़ के इन अहकामो से खिलवाड़ हरगिज़ न किया जाये वरना अल्लाह की आयतों का मज़ाक बनाने वाला शख्स सख्त अज़ाब में पड़ जाएगा.

सूरह बक़रह की आयतों 229 और 230 में अल्लाह ने फरमाया है कि 3 तलाक़ों के बाद उन औरत मर्द की सीधे शादी नही हो सकती, इसके बाद औरत की शादी किसी दूसरे ही मर्द से हो सकती है.  अफ़सोस कि लोगों ने इस हुक़्म की सही मंशा को अनदेखा कर के इसे क़ुरान में एक बैठक में ट्रिपल तलाक़ की एक गुंजाइश मानना शुरू कर दिया. जबकि ट्रिपल तलाक़ में एक बैठक में तीन बार तलाक़ कह दिये जाने के बाद रुजू की गुंजाइश ही ख़त्म कर दी जाती है, और अल्लाह ने इद्दत की मुद्दत में रुजू का जो हुक़्म बार बार दिया है, उसकी खुली नाफरमानी की जाती है.

इस बात को तमाम मुसलमानों को ज़हन नशीन कर लेना चाहिए कि तलाक़ अल्लाह की निगाह में एक बेहद खराब चीज़ है, और अल्लाह का हुक़्म ये है कि तलाक़ को टालने की जितनी कोशिश की जा सकती है की जाए.  न कि इस ख़राब काम को करने में जल्दबाज़ी की जाए, 

तीन तलाक़ों के बाद औरत और मर्द का एक दूसरे से सीधे शादी करना हराम ठहराए जाने के पीछे अल्लाह की हिकमत भी ये है कि तलाक़ की संगीनी को लोग समझें और तलाक़ देने के दरमियान भी सोच विचार करके तलाक़ को रोक सकें तो रोक लें कि दो मौकों पर तलाक़ कह भी चुके हों तो तीसरी बार ये लफ्ज़ कहने से बचें, वरना अपनी बीवी से वो हमेशा के लिए जुदा हो जाएंगे. (जैसाकि स्पष्ट है, हलाला प्लान नही किया जा सकता, और इसलिये बेहद मुश्किल है कि तीन तलाक़ के बाद वापस वोही मियां बीवी आपस में शादी कर सकें) .

तो अल्लाह ने तीन तलाक़ के बाद निकाह हराम की व्यवस्था इंसान के दिमाग में एक चेतावनी बैठाने के लिये की थी.  क्योंकि इंसान की ये प्रकृति है कि किसी काम को करने का निश्चित अप्रिय परिणाम उसे मालूम हो तो बहुत ज़रूरी होने पर ही वो उस काम में हाथ डालता है, और पूरे वक़्त उसका दिमाग उस काम के अप्रिय परिणाम को रोकने के बारे में भी गम्भीरता से सोचता है.  जबकि किसी काम के परिणाम अपने लिये गम्भीर न दीखते हों तो इंसान दूसरे का हित सोचे बगैर लापरवाही से काम करता है.

एक बैठक में तलाक़ की तो कोई सूरत ही नही बनती उस हुक़्म से क्योंकि इंसान अपनी बीवी को तलाक़ देने के फैसले पर खूब गम्भीरता से सोचे ऐसा तभी मुमकिन है जबकि तीनों तलाक़ों के दरम्यान कुछ मुद्दत का वक़्फ़ा (समय अंतराल) रहे, ताकि आदमी को अपने फैसले के हर पहलु पर देर तक सोचने का मौका मिले.  अल्लाह ने ये सोचने का मौका इंसान को इद्दत की सूरत में लोगों को दिया है, तो लोगों को इतना तय कर लेना चाहिये कि एक इद्दत की मुद्दत पूरी होने से पहले तो कम से कम तीन तलाकें न कही जाएं,

एक वक़्त में तीन तलाक़ कहने के बारे में सुनन निसाई शरीफ़ में एक हदीस आई है

"महमूद बिन लबीद रज़ि० ने फ़रमाया कि नबी क़रीम ﷺ को एक शख्स के बारे में बताया गया जिसने एक ही बैठक में अपनी बीवी को तीन तलाकें दे दी थीं, ये सुनकर हुज़ूर ﷺ गुस्से से खड़े हो गए और फ़रमाया, कि ये तो अल्लाह की किताब के साथ खेल किया जा रहा है, जबकि अभी मैं तुम लोगों के बीच ही मौजूद हूँ, (नबी ﷺ को इस कद्र गुस्से में देखकर) एक शख्स ने उठकर कहा कि "या रसूलल्लाह ﷺ क्या मैं उस शख्स को कत्ल न कर दूँ ?"
सुनन निसाई, किताब 27 हदीस 13

और मुहद्दिसीन ने इसे सहीह की सनद दी है.   इन तमाम बातों से ज़ाहिर है बयक वक़्त तीन तलाकें देना अल्लाह की आयतों के साथ खिलवाड़ करना है कि आयतों के मकसद पर अमल करने की बजाय उसके उलट अमल करने लग जाएं, ये बात अल्लाह और रसूलल्लाह को सख्त नाराज़ करने वाली बात है.  और हर एक शख्स जिसे अल्लाह की शरीयत प्यारी है, ज़रूरी है, कि इस जानकारी को वो बाक़ी मुसलमानों तक भी पहुँचाये जो नही जानते


2  अल्लाह के आदेश का उल्लंघन है 'तलाक उल बिदअत' का बेवजह प्रचलन 
कुछ दिनों पहले मैने अखबार अमर उजाला मे हनफी स्कूल को मानने वाले यानी देवबन्दी और बरेलवी विद्वानों के विचार "तीन तलाक" जिसे कानूनी भाषा मे "तलाक उल बिद्दत" कहा जाता है, के बारे मे पढ़े, सभी विद्वान तलाक के इस तरीके को गलत और कुरान व हदीस की शिक्षा के विपरीत बता रहे थे.   लेकिन फिर भी खुलकर किसी ने ये नहीं कहा कि इस विधी पर पूर्ण प्रतिबंध लगना चाहिए.

दरअसल, एक बैठक मे तीन बार तलाक के शब्द उच्चारित कर के अपनी स्त्रियों को तलाक दे देने का तरीका नबी ﷺ से पूर्व अरब मे प्रचलित था, लोग जब तब अपनी पत्नी को छोटी मोटी बातों पर महज़ मज़ा चखाने के लिए तलाक देकर छोड़ देते.  और फिर जब कभी दिल मे आता तो फिर उसी स्त्री से विवाह कर लेते, यानी औरत की जिन्दगी हमेशा डांवाडोल ही रहती । उसे कुछ पता न रहता कि कब किस बात पर उसका पति उसे तलाक दे देगा, और फिर कभी अपनाएगा भी या नहीं .

इस्लाम ने सबसे पहले तो इस एक बैठक मे तलाक देने की कुप्रथा को खत्म किया, और तलाक की प्रक्रिया को तीन महीने लम्बा बनाया जिस समय मे किसी भी वक्त तलाक का फैसला वापस लिया जा सकता है.   और तलाक के फैसले पर कई बार पुनर्विचार कर के उसको टालने की सम्भावना बढ़ाई जा सकती है, अफसोस कि आज के समय अधिकतर भारतीय व पाकिस्तानी मुस्लिम इस विषय मे जागरूक नहीं हैं .  
दूसरा विधान इस्लाम ने तलाक की प्रक्रिया को जटिल बनाने के लिए और स्त्री को आर्थिक सम्बल देने के लिए मेहर की रकम तय करने का बनाया,

और तीसरा विधान हलाला का रखा गया जिससे एक बार तलाक के बाद दोबारा विवाह लगभग नामुमकिन सा हो जाए जिस अंदेशे को जानकर तलाक की सुविधा का गलत इस्तेमाल पुरुष स्त्रियों को सताने के लिए न कर सके 

एक बैठक (एक समय मे) में तीन बार तलाक बोलकर तलाक देने का ये तरीका यानी 'तलाक उल बिदअत' सभी इस्लामी विद्वानों के अनुसार पापकर्म है .  और अल्लाह व रसूल ﷺ का हुक्म यही है कि तलाक कुछ क्षणों मे घटित होनेवाली दुर्घटना न बन सके बल्कि तलाक तब ही पूर्ण हो सके जब वास्तव मे पति और पत्नी साथ जीवन बिताना बिल्कुल न चाहते हों.  पवित्र कुरान मे आदेश है कि तलाक तीन महीनों की अवधि मे जा के पूर्ण हो, इससे पहले किसी भी पल तलाक का विचार त्यागा जा सकता है, और पति पत्नी पहले की तरह सामान्य रूप से साथ रह सकते हैं, यदि तीन महीने पूरे होने से पहले वो तलाक का विचार छोड़ दें 
कुरान 2:228

सही बुखारी शरीफ़ मे Book of Divorce, यानी किताब 63 में अलग अलग चेन्स से नम्बर 178,179, और 184 पर एक हदीस बयान की गई है कि हजरत इब्ने उमर रज़ि. ने अपनी पत्नी को एक बैठक मे तलाक दे दिया (और उनकी पत्नी अपने मायके चली गईं )
जब हजरत इब्ने उमर के पिता यानी हजरत उमर बिन खत्ताब रज़ि. ने इस विषय मे नबी ﷺ से पूछा तो आप ﷺ ने फरमाया कि अपने बेटे से कहो कि वो अपनी पत्नी को वापस घर बुलाए और तीन तुहर की अवधि तक पास रखे व इतनी मुद्दत मे यदि चाहे तो तलाक का विचार त्याग कर अपनी पत्नी को साथ रख ले, और यदि तलाक ही देना चाहे तो इन तीन महीनों की अवधि मे बिना अपनी पत्नी से सम्बन्ध बनाए उसे भले तरीके से विदा कर दे,

तो ये रहा हदीस और कुरान का आदेश .  लेकिन हमारे मुआशरे के मज़हबी रहनुमा खुलकर इस विषय मे मुस्लिमों को जाने क्यों शिक्षित नहीं कर रहे. ?  और एक बैठक मे तलाक का तरीका इस्लाम मे प्रतिबंधित होने के बाद फिर कब कैसे और क्यों मुस्लिमों मे प्रचलित हो गया. ?

हजरत उमर जब खलीफा थे तब मिस्र पहुंचने वाले कुछ मुस्लिमों ने वहाँ की स्त्रियों के सम्मुख विवाह के प्रस्ताव रखे, वे स्त्रियाँ मुस्लिमों से विवाह करने को इस शर्त पर तैयार हुईं कि पहले ये पुरुष अपनी पूर्व पत्नियों को प्रचलित अरबी तरीके "तीन तलाक" बोलकर तलाक दे दें, तभी वे उनसे विवाह करेंगी,उन पुरूषों ने तीन बार तलाक का उच्चारण अपनी पूर्व पत्नियों के लिए कर के मिस्र की उन स्त्रियों को विश्वास दिला दिया कि उन्होंने अपनी पूर्व पत्नियों को तलाक दे दिया है, और मिस्र की स्त्रियों ने उनसे विवाह कर लिया .॥

इन स्त्रियों को नहीं मालूम था कि इस्लाम मे एक बैठक मे तलाक की इस विधी पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है.  पर जब उन स्त्रियों को पता चला कि उनके पतियों के उनकी पूर्व पत्नियों से तलाक नहीं हुआ तो वे अपने साथ हुए इस धोखे की शिकायत लेकर खलीफा हजरत उमर रज़ि. के पास गईंपूरा मामला जानकर हजरत उमर ने उन धोखेबाज पुरुषों पर बहुत क्रोध किया और एक बैठक मे दी गई तलाक को भी पूर्ण तलाक मानने का विधान फिर से इसलिए लागू कर दिया ताकि दोबारा से कोई पुरुष ऐसा धोखा किसी स्त्री के साथ न कर पाए. ॥

स्पष्ट है एक बैठक मे तलाक को विधि सम्मत एक विशेष परिस्थिति मे माना गया ताकि पुरुष किसी प्रकार का धोखा किसी के साथ न कर पाएं.  लेकिन एक बैठक मे तलाक का ये तरीका हमेशा और हर काल के लिए नहीं था. ये बात कम से कम अब हर मुस्लिम को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए. ॥

आज हमारे मुआशरे मे तलाक का मजाक इसीलिए बना हुआ है क्योंकि किसी वक्त के झगड़े मे, गुस्से मे यदि पति के मुंह से तलाक के अल्फाज़ तीन बार निकल आएं तो उसका तलाक हो गया मान लिया जाता है, इसके बाद या तो न चाहते हुए मियां और बीवी को अपनी फजीहत से बचने को, जिन्दगी भर के लिए अलग हो जाना पड़ता है, या हलाला के नाम पर उन्हें अनजाने मे वो काम करना पड़ता है जिसे इस्लाम मे कब का हराम ठहराया जा चुका है ॥ 

हमारे रहनुमा कब मामला साफ करेंगे ?


3  हलाल नासमझी का दौर 
फिल्म मीडिया मे तलाक और हलाला की रस्म की तस्वीर देखिए ज़रा

"मर्द ने अपनी मर्दानगी के नशे मे चूर होकर बेचारी औरत को तलाक के तीन पत्थर मार दिए, और ज़िन्दगी भर के लिए बांधा गया शादी का बंधन एक झटके मे टूट गया. रोती कलपती मजबूर औरत माएके आ बैठी, और अपने नसीब पर रो रो कर आंखे सुजाती रही. फिर एक दिन उसके शौहर को अपनी बीवी पर प्यार आया, और शौहर अपनी मिल्कियत यानी अपनी बीवी के जिस्म को अपने से पहले किसी गैर मर्द को सौंपने पर 'मजबूर' हो गया ताकि वो दूसरा आदमी उसकी तलाकशुदा से शादी कर के उसके साथ रात गुजारे और फिर उसे तलाक दे दे ताकि हलाला की रस्म पूरी हो सके ॥"

हमारे देश मे मुस्लिमों मे तलाक के विधान का बहुत ही गलत रूप, और हलाला की रीति का बेहद अश्लील रूप से वर्णन किया गया है सिनेमा टीवी के जरिए, इन विधानो को स्त्री पर अत्याचार दिखाया गया है,

लेकिन वास्तविकता ये है कि अव्वल तो एक बैठक मे तलाक को इस्लाम मे पाप माना गया है. बल्कि कुरान 2:228-229 मे अल्लाह के आदेशानुसार तलाक तीन महीने की अवधि मे किसी भी पल लौटा लेने की पूरी सम्भावना के बावजूद पति पत्नी मे मेल न होने के बाद ही पूर्ण हो सकेगा , इतनी अवधि मे पति द्वारा तलाक के फैसले को प्रभावित करने का अवसर पत्नी के भी पास रहेगा, यानी तलाक एकतरफा और अन्यायपूर्ण न रहेगा ।
दूसरे, हलाला का विधान महिला अधिकारों की सुरक्षा का एक मजबूत स्तम्भ बनाया गया है न कि स्त्री की यौन शुचिता के हनन के लिए .

वास्तव मे हलाला का विधान इसलिए रखा गया है ताकि एक बार यदि तीन महीने की गहन सोच विचार के बाद पति तीन बार तलाक का उच्चारण कर के अपनी पत्नी को तलाक दे चुका तो फिर वो ये भी जान रखे कि 
अब दोबारा उसका उसी स्त्री से विवाह करना लगभग नामुमकिन है , इसलिए तलाक देते वक्त पति ये बात भी अच्छी तरह समझे रहे कि ये तलाक कोई खेल न होगा सो यदि सचमुच उन दोनों का साथ जीवन बिताना मुश्किल हो तभी तलाक का फैसला लिया जाए.  वरना तीन महीनों मे पति पत्नी आपस मे बैठकर खूब राय मशविरा कर लें , बहुत मुमकिन है कि विवाह टूटने की नौबत न आए.

हलाला के बारे मे ये समझ लिया गया है कि खास हलाला को पूरा करने के मकसद के लिए एक तलाकशुदा औरत की शादी किसी ऐसे आदमी से करवाई जा सकती है जो उससे हमबिस्तरी कर के उसे तलाक देने को राज़ी हो.  जबकि ये तो खुली हरामकारी होगी कि हलाला की आड़ लेकर अनजान मर्द औरत एक रात के शौहर बीवी बनें. ऐसी शादी जिसमे किसी औरत के साथ निकाह होने से पहले ही उस औरत को तलाक देने की बात तय कर दी जाए यानी कॉन्ट्रैक्ट पर शादी [ MUTA MARRIAGE ] की जाए ऐसी शादी इस्लाम मे हराम है, ऐसी शादी के हराम होने का बयान और ऐलान बहुत सी अहादीस मे है, जैसे.   सही बुखारी Vol.5/59/527, सही मुस्लिम 8/3259, सही मुस्लिम 8/3260, सही मुस्लिम 8/3262, सही मुस्लिम 8/3263, सही मुस्लिम 8/3264, सही मुस्लिम 8/3265 और अनेक अहादीस .

और कॉन्ट्रैक्ट मैरिज के हराम होने की वजह पवित्र कुरान मे अल्लाह का ये हुक्म है कि

''शादी (मर्द और औरत, दोनों की पाक दामनी यानी यौन शुचिता) पाक दामनी की हिफाज़त करने के लिए करो, न कि नाजायज ढंग से जिस्मानी ताल्लुकात बनाने के लिए ''
कुरान 4:24 

हलाला के लिए प्लानिंग कर के किसी औरत से शादी करने वाला व्यक्ति भी न उस औरत के सतीत्व की सुरक्षा करेगा न अपनी, बल्कि उसके दिल मे तो उस औरत के साथ रात गुज़ार कर उससे अलग हो जाने का खयाल ही होगा.

हलाला का अस्ल ये है, कि हलाला को प्लान बिल्कुल नहीं किया जा सकता, बल्कि जब एक बार मर्द अपनी बीवी को पूरी तरह तलाक दे चुका,  तो फिर दोबारा से उसी औरत से शादी करना उस आदमी के इख्तियार मे नही रह जाता, वो किसी भी मर्द को इस बात के लिए हायर नहीं कर सकता कि वो उसकी तलाकशुदा से शादी कर के उसे तलाक दे दे, क्योंकि ये हराम होगा .  बल्कि अब वो शख्स सिर्फ ये इन्तज़ार कर सकता है कि शायद उसकी तलाकशुदा अपना नया घर बसाने के लिए ( हलाला के लिए नहीं ) नई शादी करे, और फिर शायद कभी उसका दूसरा शौहर उससे बेजार होकर उसे तलाक दे दे, या बीवी अपने शौहर से तंग आकर उससे खुला ले ले, तभी पहले शौहर की शादी उस औरत से हो सकती है वरना नहीं ....॥

अब क्योंकि ये सारे हालात खुद ब खुद पैदा होने हैं इसलिए हलाला एक बहुत मुश्किल चीज़ है.  और एक बार तलाक के बाद दोबारा उसी औरत से शादी बहुत मुश्किलतरीन बात है. इसलिए कोई भी आदमी तलाक जैसी संगीन बात का फैसला खूब सोच विचार कर ले, और तलाक कभी एक खेल की तरह न खेला जाए !!


4  हलाला के कानून का मक़सद क्या है
तलाक़ के बाद हलाला की सफ़ाई देते हुए कहा जाता है कि ये कानून मर्दों को इस बात का एहसास कराने के लिए है, कि तलाक़ कोई खेल नही बल्कि मर्द के लिए भी बहुत बड़ी सज़ा है, कि जिस औरत को वो प्यार करता है, अगर उस औरत को आम बात समझकर तलाक़ दे दिया, तो फिर वापस शादी करने के लिये उसकी बीवी को पहले किसी दूसरे मर्द के साथ शादी करके हमबिस्तर होना पड़ेगा. !! 

देखा जाए तो ये अल्लाह के कानून की सफ़ाई नही बल्कि इस्लाम पर इलज़ाम है, क्योंकि इस सफ़ाई से सवाल पैदा होता है कि अगर हलाला का कानून आदमी को सज़ा देने के लिए बनाया गया है, तो इसमें आदमी को कोई पीड़ा देने की बजाए बेगुनाह औरत की इज़्ज़त क्यों दांव पर लगती है, जबकि इस्लाम में हर जगह औरत की इज़्ज़त, शर्म और हिजाब का ख़ास ख्याल रखा गया है, तो हलाला के मामले में इतना अजीब फ़ैसला क्यों ?

दरअसल आज मुस्लिम समाज में तलाक़ और हलाला के रूप बिगाड़े जा चुके हैं, इन्हीं बिगाड़े हुए कानूनों को इस्लाम का कानून समझने की भूल हमारे आज के दौर के मज़हबी रहनुमा भी करते हैं, और अपनी अक्ल के मुताबिक इन बिगड़े हुए कानूनों की सफाई देने की कोशिश करते हैं, तो इस्लाम पर वैसे ही इलज़ाम लगते हैं, जिसका एक एग्ज़ाम्पल ऊपर दिया गया है

क़ुरान शरीफ़ के मुताबिक तलाक़ न तो एक झटके में दी जा सकती है, न बिना सोचे समझे, बल्कि तलाक़ के मामले पर बहुत ठन्डे दिमाग से कई महीनों तक सोचने विचारने का हुक़्म अल्लाह ने दिया है,  और तलाक़ के दरम्यान 3 महीने भी फैसला लौटाने की मोहलत दी गई है, लेकिन अल्लाह के इन अहकाम को भुला कर आज हमारे मुआशरे में तलाक़ एक झटके में दी जाने लगी है, और एक झटके में तलाक़ का मतलब ये होता है कि इस मामले में अब सोचने समझने का कोई ज़िक्र ही नहीं रहा,  और जब इस मामले में सोचने समझने की ज़रूरत को भुला दिया गया है, तो तलाक़ के मामलात बढ़ने लाज़मी ही थे,

फिर बिना सोचे दी गई तलाक़ के बाद होश में आने पर आदमी वापस अपनी बीवी को पाने के लिए ज़ोर लगाने लगता है तो हलाला को प्लान किया जाता है, और इस तरह बिना क़ुरान पाक़ की आयतों का मक़सद समझे प्लान हलाला के केस भी समाज में बढ़ जाते हैं.  फिर जब किसी समाज में तलाक़ और प्लान हलाला की भरमार हो तो सवाल उठने लाज़मी ही हैं

अगर इस मामले में क़ुरान पाक की तालीम को माना जाता तो तलाक़ ही न के बराबर होते,  और अगर होते तो इतना सोच समझकर होते कि वापस उन्हीं औरत मर्द को आपस में शादी की इच्छा ही नही होती.  और अगर ये इच्छा होती भी तो क़ुरान व अहादीस की तालीम के मुताबिक हलाला प्लान करना हराम है, बल्कि अब वो शख्स सिर्फ ये इन्तज़ार कर सकता है कि शायद उसकी तलाकशुदा अपना नया घर बसाने के लिए ( हलाला के लिए नहीं ) नई शादी करे , और फिर शायद कभी उसका दूसरा शौहर उससे बेजार होकर उसे तलाक दे दे, तभी पहले शौहर की शादी उस औरत से हो सकती है, वरना नही
यानि इस्लाम की तालीम पर चलने से प्लान हलाला निकाह जैसा कोई टर्म ही न पैदा होता,

खैर, आज इस्लामी तालीम से दूरी ने प्लान हलाला निकाह को भी पैदा कर दिया है, और इसकी सफाई में अजीब अजीब बातें भी.  वैसे प्लान हलाला की सफ़ाई में जो बात कही जाती है कि ये "तलाक़ देने के बाद फिर से अपनी बीवी को चाहने वाले मर्द को सज़ा है" ये कॉन्सेप्ट पूरी तरह गलत है, सही बात ये है कि हलाला (प्लान हलाला नही) का कानून अल्लाह ने तलाक़ होने के बाद सज़ा के तौर पर नही बल्कि तलाक़ होने से पहले तलाक़ को रोकने के लिए आदमी के दिमाग में एक चेतावनी बैठाने के लिये बनाया है.  क्योंकि इंसान की ये प्रकृति है कि किसी काम को करने का निश्चित अप्रिय परिणाम उसे मालूम हो तो बहुत ज़रूरी होने पर ही वो उस काम में हाथ डालता है, और पूरे वक़्त उसका दिमाग उस काम के अप्रिय परिणाम को रोकने के बारे में भी गम्भीरता से सोचता है.  जबकि किसी काम के परिणाम अपने लिये गम्भीर न दीखते हों तो इंसान दूसरे का हित सोचे बगैर लापरवाही से काम करता है.

तो हलाला के कानून के पीछे अल्लाह की हिकमत ये है कि तलाक़ देने से पहले तलाक़ की गम्भीरता को लोग समझें और तलाक़ देने के दरमियान भी सोच विचार करके तलाक़ को रोक सकें तो रोक लें कि दो मौकों पर तलाक़ कह भी चुके हों तो तीसरी बार ये लफ्ज़ कहने से बचें, वरना अपनी बीवी से वो हमेशा के लिए जुदा हो जाएंगे.

तो ये है हलाला कानून का सही मक़सद, और इस कानून का मकसद तभी पूरा होगा जब तलाक़ के मामले में इंसान एक झटके में फैसला लेने की बजाए इस फैसले पर सोच विचार करने और फैसले को बदलने के लिये एक ठीक ठाक वक़्त की मोहलत पाए, जो मोहलत अल्लाह ने क़ुरान पाक में दे भी रखी है, ज़रूरत उस पर अमल करने की है !!



5  मुस्लिम स्त्रियों को पति से तलाक लेने का है समान अधिकार 
कुछ दिन पहले टीवी पर एक क्रिश्चियन महिला समाज सेविका का इण्टरव्यू देखा जो किसी समय मे जबरदस्त घरेलू हिंसा की शिकार रही थीं, ये जानकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि पति द्वारा इतनी क्रूरता से अकारण पिटाई करने, अंग भंग और हत्या तक कर देने की स्थिति मे भी 30 वर्ष पहले तक देश मे एक ईसाई महिला को अपने पति से तलाक लेने का अधिकार नहीं था (अब शायद मिल गया हो, मुझे इस विषय मे जानकारी नहीं).

इसी तरह हिंदू महिलाओं को भी हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 से पहले कितनी भी पीड़ादायक स्थिति मे अपने पति से तलाक लेकर खुद को सुरक्षित कर लेने का अधिकार नहीं था .

फिर मैं देखता हूँ, इस्लाम धर्म की ओर, जिसमें शुरू से ही पुरूषों के साथ साथ स्त्रियों को भी ये आजादी है, कि जब वैवाहिक जीवन दुर्भाग्यवश इतना अप्रिय और असहनीय हो जाए कि साथ रहना मुश्किल हो जाए तो ऐसे अप्रिय सम्बन्धो का बोझ ढोते रहने की बजाय पति और पत्नी एक दूसरे से सम्बन्ध विच्छेद कर के अपना जीवन नए सिरे से शुरू कर सकते हैं । 

अन्य धर्मों मे जहाँ तलाक का विधान नहीं था ऐसे दुष्कर हो चुके सम्बन्धो मे पति या पत्नी की हत्या तक करने कराने की नौबत आ जाती थी,  उसके मुकाबले मे तलाक एक बेहद बेहतर ही मार्ग था. लेकिन उसके बावजूद तलाक को भी स्त्रियों पर अत्याचार के रूप मे ही प्रचारित किया गया .

निसन्देह ये बात स्वीकारनी होगी कि वास्तव मे कुछ अनपढ़ जाहिल मुस्लिमों ने भी तलाक को केवल पुरूषों को मिला अधिकार समझ लिया और फिर इसे स्त्रियों को सताने का एक साधन ही मान लिया.  और छोटी छोटी बातों मे भी तलाक के डर की ये तलवार पूरे जीवन उनके सर पर लटकाए रखी. और कई बार अकारण ही तलाक देकर बहुत सी निर्दोष स्त्रियों के जीवन बरबाद कर डाले. परंतु ये तलाक (एक ही बैठक मे दिया जाने वाला तलाक) इस्लामी नियमों के अनुरूप नहीं बल्कि इस्लाम का खुला उल्लंघन थे, ये भी तथ्य है, निश्चय ही ऐसे दुष्ट लोगों को अपने कर्म भुगतने पड़ेंगे, जिन्होने तलाक को मजाक बनाने की कुचेष्टा की

वास्तव मे तलाक की व्यवस्था विशेषकर स्त्रियों की सुरक्षा के लिए दी गई है कि क्रूर पति से स्त्री स्वयं ही छुटकारा ले सके या यदि पति को अपनी स्त्री से दुश्मनी हो जाए तो स्त्री को अन्य कोई हानि पहुंचाने के स्थान पर वो उससे शांति से अलग हो जाए.  लेकिन तलाक की व्यवस्था पर अतिक्रमण कर के जिस तरह पुरूषों ने अपनी सुविधा से तलाक का उपयोग और दुरुपयोग करने की परिपाटी बना ली वो निश्चित ही निन्दनीय और बड़ा अपराध है. लेकिन कुछ जाहिलों की मूर्खता या निरन्तर दुष्प्रचार के बावजूद तलाक का विधान अनुपयोगी या अन्यायपूर्ण सिद्ध नहीं हो जाता, ये बात उपरोक्त पहले बताए कारणों को देखकर समझ मे आ जाती है .

बहुत से लोगों को ये गलतफहमी है कि इस्लाम मे अपने पतियों को एकतरफा तलाक देने का स्त्रियों को पुरूषों की तरह का हक हासिल नहीं है.  पर ये खयाल सही नहीं. शरीयत मे कुरआन, हदीस और फिक्ह के आधार पर तलाक के दस तरीके प्रचलित हैं :-
TaLaq e Ahsan
TaLaq e hasan
TaLaq e Tafweez 
TaLaq ul Biddat
ILa
Jihar
khuLa
Lian
Fasq

और Mubarat !

यहाँ जिन पांच नामों को मैंने टैग किया है, उनमें बीवी को अपनी मर्जी से पति से तलाक लेने का हक हासिल है, जबकि मुबारत के अलावा जो चार नाम टैग नहीं किए, उनमें पति को अपनी मर्जी से बीवी को तलाक देने का हक है ॥

इनमें खुला वो तलाक है जो पत्नी अपने पति को पति की मर्जी के खिलाफ, केवल अपनी मर्जी से देती है,
कुरान 4:128 और 2:229 मे ये व्यवस्था है कि यदि पति से स्त्री को हानि पहुंचने का भय हो तो वो तलाक (खुला) ले सकती है ॥ अत: पति से अलगाव हासिल करने को पत्नी मेहर की रकम जो उसे पति से मिलने वाली थी वो छोड़ देती है, खुला की व्यवस्था मे पति यदि पत्नी को तलाक न भी देना चाहे तो भी शरीयत आधारित न्यायाधीश परिस्थितियों को देखकर पत्नी की इच्छा को ही वरीयता देकर उसे खुला दिलवा देता है ।

लेकिन यदि पत्नी पति से अपनी इच्छा से तलाक भी लेना चाहती हो और पति से एलिमनी भी हासिल करना चाहती हो तो स्त्री की मदद के लिए शरीयत मे चार तरीके और मौजूद हैं जिनके नाम ऊपर मैंने टैग किए हैं । इन मे औरत अपने पति की किसी अनुचित हरकत को आधार बनाकर (जिन्हें आधार बनाने की शरीयत मे अनुमति हो) तलाक का दावा करती है, साथ ही तलाक मिलने पर एलिमनी पाने की भी हकदार होती है ॥

मुबारत मे पति, पत्नी की आपसी सहमति से तलाक होता है, तो इसमें एक सम्भावना ये भी होती है कि पत्नी अपनी इच्छा से एलिमनी छोड़ दे,

खैर 10 मे से 9 तरीकों मे पत्नी को पति से भरण पोषण पाने का हक है, यदि मुबारत मे पत्नी मेहर पति पर माफ कर दे तो गिनती 8 रह जाती है

पर पति को 10 मे से एक तलाक मे भी भरण पोषण पाने का अधिकार नहीं.   हां विरल परिस्थितियों मे खुला मे कभी कभार पति कुछ हर्जाना पा सकता है, पर सामान्यतः खुला मे पति को इतनी ही सुविधा मिलती है कि उसे पत्नी को मेहर नहीं देना पड़ता.   ज़रा गिन कर बताईए ,यहाँ किसके अधिकार ज्यादा हैं, पति के या पत्नी के ?

कुछ लोग इतना सब जानकर भी शब्दजाल फैलाते हैं, और कहते हैं कि इस्लाम मे स्त्रियों के साथ अन्याय तो इसी बात से दिख जाता है कि पुरुष तो स्त्री को तलाक "देता" है, जबकि स्त्री पुरुष से तलाक "मांगती" है.   वैसे कोई मुझे ये बताएगा कि केवल शब्दों के इस फेर से किसी पर क्या अन्याय हुआ ? अधिकार तो स्त्रियों को पूरे ही मिले न ?

जी हां मांगना और देना दो अलग शब्द हैं उसका कारण ये है कि तलाक के बाद पत्नी को एलीमनी पति देगा , जबकि पत्नी तलाक मांगेगी क्योंकि उसे तलाक के बाद पति से एलीमनी पाने का भी अधिकार चाहिए .

पति पत्नी को तलाक के बाद भरण पोषण देने को सदैव बाध्य रहता है, सिवाय तब के जब पत्नी स्वयं ही भरण पोषण का दावा छोड़ द. जबकि पति किसी भी हाल मे तलाक मे कोई भरण पोषण पाने का अधिकारी नहीं होता.  क्या आपको ये नहीं दिखाई देता कि इस्लाम ने स्त्रियों को मेहर प्राप्ति का पुरूषों की अपेक्षा एक अतिरिक्त अधिकार दिया है .


6 पत्नियों के साथ बहुत भला सुलूक करना सिखाता है इस्लाम
इस्लाम से सशंकित हमारे मित्र अक्सर इस्लाम मे पत्नियो के साथ बुरे व्यवहार का शोर मचाते हैं, लेकिन जहाँ तक मै समझता हूँ तो ऐसा है कि, अगर इन्सान ऐन इस्लामी तालीम पर चले तो वो दुनिया का सबसे बेहतर पति साबित होगा, और उसकी बीवी सबसे भाग्यशाली पत्नी

बीवियों से सुलूक के बारे मे मुझे इस्लाम की ये तालीम बहुत पसंद आती है कि बीवी को न सिर्फ उसकी खूबियों, बल्कि उसकी कमियों के साथ भी मुसलमान शौहर कुबूल करे,और औरत का स्वभाव बदलने की जबरदस्ती न करे बल्कि वो जैसी है उसे वैसे का वैसा कुबूल कर के उसके साथ अच्छा सुलूक करता रहे ।

पवित्र कुरान मे अल्लाह का फरमान है कि "अपनी पत्नी के साथ भले तरीक़े से रहो-सहो। और यदि वो तुम्हें पसन्द न हों, तो सम्भव है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो लेकिन दूसरी ओर अल्लाह ने उसमें बहुत कुछ भलाई रखी होगी,"
 क़ुरआन 4: 19

इसी तरह आप ﷺ की ये हदीस शरीफ हजरत अबू हुरैरा से रिवायत है, नबी ﷺ ने फरमाया, "अपनी औरतों के साथ भला सुलूक किया करो, इसलिये कि औरतें पसली से पैदा की गई हैं और पसली टेढ़ी होती है, अगर तुम पसली सीधी करना चाहोगे तो वह टूट जायेगी और अगर उसी तरह छोड़ दोगे तो वो टेढ़ी ही रहेगी, तो तुम औरत को जैसी वो है वैसी ही रखकर उससे काम ले सकते हो, इसलिए औरत के साथ अच्छा व्यवहार किया करो"
 बुखारी शरीफ किताब 55, नम्बर 548: और बुखारी, किताब 62: नम्बर 113 

अक्सर स्त्रियों पर इसी कारण से तो अत्याचार हो जाते हैं कि मर्द खुद को औरत का मालिक समझकर, अपनी पत्नी की अस्ल शख्सियत और उसकी पसंद नापसन्द को दबाकर उसको अपनी मर्ज़ी का गुलाम बनाकर जीना चाहता है.  लेकिन प्यारे नबी ﷺ ने मुसलमानों को अपनी बीवियों के साथ ये ज़ुल्म करने से रोक दिया है. आप ﷺ ने फरमाया कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी गुलाम नहीं बल्कि तुम्हारी पार्टनर हैं. नबी ﷺ ने हमेशा हम मुसलमानों को अपनी बीवियों से नरमी, मोहब्बत और भलाई के साथ ही पेश आने की तालीम दी ।

स्वयं आप ﷺ एक बेहतरीन पति थे अपनी पत्नियों के साथ भला व्यवहार करने मे आप ﷺ सबसे आगे रहते, आप ﷺ अपनी बीवियों से बहुत अच्छे ढंग से बातें करते, उनका जी बहलाते, उनसे प्रेम करते और उनके कामों मे स्वयं हाथ बंटाया करते थे.  इस आशय की बहुत सारी हदीसें प्रमाणस्वरूप मौजूद हैं ।

नबी ﷺ ने फरमाया, "ईमान में सबसे ज्यादा मुकम्मल वह आदमी है जिसकी आदत और अख्लाक सबसे अच्छें हों तथा तुम मे सबसे बेहतर वो है, जो अपनी बीबी के साथ सबसे अच्छा बर्ताब करता हो।"
अल-तिरमिज़ी 628

और तो और हज्जतुल विदा के बहुत ही महत्वपूर्ण मौके पर भी आप ﷺ  ने तमाम मुसलमानों को सम्बोधित करते समय अपने अभिभाषण के काफी हिस्से मे पत्नियो के साथ भले सुलूक और उनके अधिकारों के बारे मे मुसलमानों को तालीम दी थी .

सुब्हान अल्लाह ये है हमारा दीन "इस्लाम" , जो सबके लिए रहमत का खज़ाना है ।


क्या इस्लाम घरेलू हिंसा की शिक्षा देता है 
जिस वक्त मैं 14-15 साल का लड़का था, इस्लाम के खिलाफ एक जुमला जगह जगह पढ़ सुन कर बड़ा शर्मिन्दा हुआ करता था कि कुरान मे अल्लाह ने पतियों की आज्ञा न मानने वाली पत्नियों को पीटने का उनके पतियों को आदेश दिया गया है.  मैं खिसिया कर रह जाता था जब अखबारों मे पढ़ता था कि फलां फलां मौलाना ने स्त्रियों को पीटने के गुर बताने वाली पुस्तक लिखी है. आज भी, बहुत से मुस्लिम और गैरमुस्लिम लोगों का ख्याल है कि बीवी को काबू मे रखने के लिए और उससे अपनी जायज़ नाजायज बातें मनवाने के लिए बीवी की पिटाई करने का हक मुस्लिम पुरूषों को कुरान ने दिया है.  लेकिन ये ख्याल रखना कुरान पर एक बड़ा झूठ बांधना है. छोटी मोटी बातों पर बीवी पर हाथ उठाने की इजाज़त कुरान पाक कतई नहीं देता, बल्कि ऐसे मौकों पर अपने आप पर काबू रखने का हुक्म ही कुरान और हदीस ने शौहर को दिया है, क्योंकि जैव वैज्ञानिक आधार पर हर पुरुष की बनावट स्त्री के मुकाबले अधिक शक्तिशाली व स्वभाव आक्रामक रहता है, इस बात को ध्यान मे रखते हुए कि अन्य पुरूषों की तरह मुस्लिम पुरुष भी अपनी स्त्रियों पर अत्याचार और हिंसा न करने लगें, अल्लाह ने बड़ी ज़िम्मेदारी मुस्लिम पुरूषों को सौंपी कि वे अपनी पत्नी की नापसन्दीदा बातों को अनदेखा कर दें, और अपनी पत्नी से भला व्यवहार करते रहें 

पवित्र कुरान मे अल्लाह का फरमान है कि. "अपनी पत्नी के साथ भले तरीक़े से रहो-सहो। और यदि वो तुम्हें पसन्द न हों, तो सम्भव है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो लेकिन दूसरी ओर अल्लाह ने उसमें बहुत कुछ भलाई रखी होगी,"
क़ुरआन 4:19

इसी तरह आप ﷺ की ये हदीस शरीफ हजरत अबू हुरैरा से रिवायत है, नबी ﷺ ने फरमाया, "अपनी औरतों के साथ भला सुलूक किया करो, इसलिये कि औरतें पसली से पैदा की गई हैं और पसली टेढ़ी होती है, अगर तुम पसली सीधी करना चाहोगे तो वह टूट जायेगी और अगर उसी तरह छोड़ दोगे तो वो टेढ़ी ही रहेगी, तो तुम औरत को जैसी वो है वैसी ही रखकर उससे काम ले सकते हो, इसलिए औरत के साथ अच्छा व्यवहार किया करो"
बुखारी शरीफ किताब 55, नम्बर 548: और बुखारी, किताब 62: नम्बर 113

अक्सर स्त्रियों पर इसी कारण से तो अत्याचार हो जाते हैं कि मर्द खुद को औरत का मालिक समझकर, अपनी पत्नी की अस्ल शख्सियत और उसकी पसंद नापसन्द को दबाकर उसको अपनी मर्ज़ी का गुलाम बनाकर जीना चाहता है.  लेकिन प्यारे नबी ﷺ ने मुसलमानों को अपनी बीवियों के साथ ये ज़ुल्म करने से रोक दिया है. आप ﷺ ने फरमाया कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी गुलाम नहीं बल्कि तुम्हारी पार्टनर हैं ।

अल्लाह ने कुरान पाक मे फरमाया कि अपनी पत्नियों को नुकसान पहुंचाने की बात मत सोचा करो 
क़ुरआन 2:231

और आप ﷺ ने पत्नियों के अधिकारों का वर्णन करते हुए हुक्म दिया अपनी पत्नियों को पिटाई न करो 
सुनन अबू दाऊद, किताब-11, हदीस-2137, 2138 और 2139

तो ज़ाहिर है बीवी पर मालिकाना जताने, बीवी को दबाने या बात न मानने पर उस को पीटना इस्लाम मे तो हरगिज़ नहीं 

इस्लाम ने मुस्लिम पत्नियों को अन्यायपूर्ण मारपीट से बचा लिया है, लेकिन समाज मे ऐसे भी बहुत से केस ऐसे भी देखने मे आते हैं कि पति तो सज्जन होता है, पर पत्नी ही अपनी अनुचित महत्वाकांक्षाओं के चलते पति को परेशान करती रहती है, ऐसे मे अपनी जैविक बनावट के चलते शरीफ़ से शरीफ़ पति का हाथ भी स्त्री पर उठ सकता है, अत: स्त्रियों को भी इतना समझदार होना चाहिए कि यदि पति उनकी कुछ कमियों को नजरअंदाज करता है, तो वे भी पति को किसी मामूली बात के लिए अकारण उत्तेजित न करें, चूंकि विवाह संस्था को एकतरफा प्रयास नहीं बल्कि आपसी समझदारी ही सफल बनाती है

कुरान 4:34 मे भी पत्नी द्वारा ऐसा ही एक बेहद गलत और अनुचित कदम उठाने की दुर्लभ और एकमात्र परिस्थिति यानि पर-पुरूष गमन मे उसे दण्ड देने की अनुमति पति को है.  एवं इस मामले के अतिरिक्त किसी मामले मे स्त्री पर हाथ उठाने को इस्लाम से कतई नही जोड़ा जा सकता 

याद रखिए पर पुरुष गमन/व्यभिचार वही परिस्थिति है जिसके केवल संदेह मे पत्नी को जिन्दा जला देना, पत्नी की हत्या कर डालना, पत्नी का परित्याग कर डालना कई धर्मों के अनुसार आदर्श व्यवहार था.  मुस्लिम पुरूष ऐसा होता अनुभव करे, तो उसे क्या आदेश दिया गया है वो यहाँ देखिए : 

"पति पत्नियों के रक्षक और भरण-पोषण करने वाले है, क्योंकि अल्लाह ने उनमें से कुछ को कुछ के मुक़ाबले में आगे रखा है, और इसलिए भी कि पतियों ने (पत्नियों के भरण-पोषण पर) अपने माल ख़र्च किए है, तो नेक पत्ऩियाँ तो आज्ञापालन करनेवाली होती है और गुप्त बातों की रक्षा करती है, क्योंकि अल्लाह ने उनकी रक्षा की है। और जो पत्नियों ऐसी हो जिनके सीमा पार करने का तुम्हें भय हो, उन्हें समझाओ और बिस्तरों में उन्हें अकेली छोड़ दो और (अति आवश्यक हो तो) उन्हें दण्ड दो। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लगे, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता न ढूढ़ो। अल्लाह सबसे उच्च, सबसे बड़ा है"
क़ुरआन 4:34

इस आयत मे पत्नियों से गुप्त बातों (सतीत्व) की रक्षा करने की अपेक्षा का ज़िक्र फिर किसी स्त्री द्वारा सीमा पार करने की आशंका पर सुधारात्मक कदम उठाने की बात से ये स्पष्ट है, कि पति द्वारा पत्नी को हलका दण्ड देने की अनुमति सिर्फ और सिर्फ बेहद गम्भीर परिस्थिति मे तब है जब पत्नी किसी अन्य व्यक्ति के साथ व्यभिचारोन्मत्त हो रही हो.  और उसे बातचीत से, और फिर नाराजगी दिखाकर बात समझाने के उपाय विफल हो चुके हों. तब इसलिए कि परिवार टूटने से, व स्त्री शरीयत द्वारा नियत वैवाहिक व्यभिचार के मृत्युदण्ड से बच जाए, पति को अनुमति है कि वो अपनी पत्नी को हलका दण्ड दे सकता है. और ये दण्ड देते समय उसे ध्यान रखना है कि पत्नी को चोट न लगे बल्कि पत्नी केवल शर्मिन्दा हो

और क्योंकि अल्लाह का फरमान है कि पति और पत्नी एक दूसरे का लिबास हैं, यानी एक लिबास की ही तरह उन पर एक दूसरे की शर्म छिपाने और इज़्ज़त रखने की ज़िम्मेदारी है , इसलिए ये दण्ड इस बात की आखिरी कोशिश के रूप मे दिया जाए, कि शायद इसके बाद पत्नी मामले की गम्भीरता को समझे, और व्यभिचार से खुद को रोक ले, और इस बात और दण्ड की जानकारी पति पत्नी के अतिरिक्त किसी और को न हो, किसी तीसरे को इस अपमानित करने वाली बात का पता न चले और पत्नी का सम्मान समाज मे बना रह जाए ॥

वैसे मारने के लिए जो शब्द "इदरिबुहूना" इस आयत मे आया है , इस शब्द का रूट "द,र,ब" है और इसका एक और अर्थ होता है, "छोड़ना".  अत: कुछ विद्वानों का मत ये भी है कि इस आयत मे पत्नी पर हाथ उठाने की बात नही बल्कि सुधारात्मक उपाय के तौर पर पत्नी को अपने से अलग कर देना है.  खैर, हम इदरिबुहूना का अर्थ शारीरिक दण्ड भी लें तब भी मुझे कोई समस्या नजर नहीं आती, चूंकि मामला व्यभिचार की ओर बढ़ने का है, जिसकी सख्ती से रोकथाम न की जाए और विवाहित स्त्री या पुरुष कोई भी व्यभिचार कर बैठे तो वो शरीयत के अनुसार मौत की सजा के अधिकारी हो जाएंगे, अत: अपने प्रिय की जान बचाने को थोड़ा सख्त कदम उठाना भी गलत नहीं माना जा सकता

सोशल मीडिया पर अक्सर कुछ ऐसे फोटो देखता हूँ कि खुली सड़क पर एक तथाकथित मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को पीट रहा है, इस फोटो को इस्लामी कानून की परिणति बता कर इस्लाम को अपमानित किया जाता है, जबकि वो फोटो इस्लामी शिक्षा का खुला उल्लंघन है, क्योंकि वो आदमी अपनी पत्नी की इज़्ज़त नहीं रख रहा बल्कि सरे बाजार अपनी पत्नी का अपमान कर रहा है

इसी तरह कुछ बुरी तरह लहूलुहान स्त्रियों के फोटो डालकर ये दावा किया जाता है कि इन स्त्रियों को इनके पतियों ने शरीयत के अनुसार पीटकर अधमरा कर डाला है, ये भी इस्लाम पर निराधार आरोप है क्योंकि कुरान सिर्फ एक बेहद गम्भीर और अपमानजनक परिस्थिति मे ही पत्नी को दण्ड और वो भी गम्भीर दण्ड नहीं बल्कि ऐसा दण्ड देने की अनुमति देता है, जैसे एक मां अपने जिद्दी बच्चे को आग से खेलने से रोकने के लिए मारती है, ये ध्यान मे रखते हुए कि बच्चे को चोट न लगे, बस वो मलाल मे आकर खतरे वाले काम से खुद को रोक ले,  उसी तरह प्रेमी पति से भी अपेक्षा है कि वो अपनी स्त्री को तबाह होने से बचाने को थोड़ी सख्ती दिखाएगा, जैसे मां की मार हिंसा नहीं कहलाती, वैसे ही 4:34 की अनुमति भी हिंसा नहीं है

याद रखिए ये किसी तरह की जबर्दस्ती नहीं, बल्कि केवल एक पाप, व्यभिचार यानी पत्नी पति के साथ रहना चाहते हुए किसी और पुरुष से भी अनुचित सम्बन्ध बनाना चाहे, इस स्थिति को खत्म करने का एक विकल्प है, पर यदि ऐसा हो कि स्त्री की अपने वर्तमान पति के साथ निभ न रही हो और वो किसी दूसरे पुरुष से विवाह करना चाहती हो, तो वो पत्नी न्यायिक आधार पर मेहर लौटाकर खुला लेने को पूरी तरह स्वतंत्र है, और यदि ये स्थिति आए तो एक समर्पित मुस्लिम से ऐसे मामले, या और किसी भी मामले मे ये अपेक्षा नहीं है कि वो अपनी पत्नी को जरा भी पीड़ा दे,


8  घरेलू हिंसा पर आरोपित हदीसो की व्याख्या
विरोधी कुछ हदीसो की गलत तरीके से व्याख्या कर के ये सिद्ध करना चाहते हैं कि इस्लाम मे पत्नी को पीटने की शिक्षा दी गई है.  आइए देखें इन आरोपों मे कितनी सत्यता है

1• पहला प्रमाण हदीस मे वाइफ बीटिंग का दिखाया जाता है सही मुस्लिम 4/2127 मे मां आएशा रज़ि. का ये बयान कि "नबी ﷺ ने मेरे सीने पर मारा, जिससे मुझे दर्द हुआ "

उत्तर - इतनी सी बात पढ़कर ऐसा ही लगता है जैसे नबी ﷺ ने माज़अल्लाह मां आएशा रज़ि. को पीटा हो, परंतु जब आप ये हदीस पढ़ते हैं तो पाएंगे कि यहाँ कोई विवाद नहीं हो रहा था जिसमें मारपीट की नौबत आए, बल्कि अल्लाह के आदेश पर रात को चुपचाप घर से निकले नबी ﷺ का पीछा मां आएशा रज़ि. ने किया था, ये जानकर नबी ﷺ को स्वाभाविक ही दुख हुआ कि अपनी जिन पत्नी को नबी ﷺ दिलोजान से प्रेम करते थे उन पत्नी ने ही नबी ﷺ की जासूसी की, और इस हदीस की व्याख्या करते हुए इमाम नानवी ने लिखा है कि शब्द "ल-ह-दा" का सही अर्थ मारना नहीं बल्कि धकेलना है
तो नबी ﷺ ने मलाल के तौर पर मां आएशा को धक्का दिया जिससे मां आएशा को शारीरिक पीड़ा नहीं बल्कि मानसिक पीड़ा हुई, पश्चाताप स्वरूप 

इस स्थान पर कोई मारपीट नहीं हुई थी इस बात की पुष्टि बहुत बेहतर तरीके से अम्मी आएशा रज़ि. के इस बयान से हो जाती है कि "नबी ﷺ ने कभी भी किसी को भी अपने हाथ से नहीं मारा, सिवाय तब के जबकि आप ﷺ अल्लाह की राह मे जंग कर रहे थे, और न ही कभी आप ﷺ  ने किसी गुलाम या किसी स्त्री पर हाथ उठाया " (इब्ने माजाह, अल्बानी ने इसे सही प्रमाणित किया)

2• दूसरी हदीस बुखारी 72/715 , कि "एक स्त्री ने अपने पति द्वारा की गई पिटाई की शिकायत मां आएशा से की तो नबी ﷺ ने उल्टा उस स्त्री को ही घर लौटकर अपने पति की शारीरिक इच्छा की पूर्ति करने का आदेश दिया "

उत्तर - यहाँ भी हदीस पढिए पहले ये स्त्री आकर अपने पति की शिकायत मां आएशा रज़ि. से करती है, लेकिन जब ये स्त्री अपने पति समेत नबी ﷺ के सम्मुख प्रस्तुत होती है तो ये नहीं कहती कि उसका पति उसे पीटता है, बल्कि वो स्त्री एक बड़ा और गम्भीर झूठ बोलती है कि उसका पति नपुंसक है और उसके लिए बेकार है.  लेकिन उसके पति के साथ मे उस समय पति की दूसरी पत्नी से पैदा हुए पुत्र थे, जिस कारण उस स्त्री का झूठ पकड़ा गया, उस स्त्री के पति ने कहा कि मुझमे ऐसी कोई कमी नहीं, बल्कि असल मे ये स्त्री मुझे तलाक देकर अपने पूर्व पति से शादी करना चाहती है, इसलिए मुझपर झूठे आरोप लगा रही है (ताकि अदालत द्वारा उसे एकतरफा तलाक मिल जाए)

यहाँ ये भी प्रश्न उठता है कि यदि वो स्त्री सचमुच पति द्वारा पिटाई से पीड़ित थी, तो पति के नपुंसक होने का झूठ क्यों बोला, पति द्वारा क्रूरता के आधार पर वो आसानी से खुला ले सकती थी क्योंकि कुरान 4:128 और 2:229 मे ये व्यवस्था है कि यदि पति से स्त्री को हानि पहुंचने का भय हो तो वो तलाक (खुला) ले सकती है ॥ पर उस स्त्री ने नबी ﷺ के सम्मुख ये बात नहीं उठाई, इससे तो यही सिद्ध होता है कि पति द्वारा अत्याचार करने का उसका आरोप भी उसी तरह झूठ था जैसे पति के नपुंसक होने का आरोप झूठ था.  उस स्त्री की मंशा जानकर नबी ﷺ ने उस स्त्री को ये समझाया कि यदि वो इस प्रकार बिना सम्बन्ध बनाए दूसरे पति से खुला ले भी लेगी, तो भी पहले पति से दोबारा विवाह करना उसके लिए वैध नहीं होगा जब तक वो किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध बनाने के बाद तलाक नहीं ले लेती. इस वैधानिक सलाह को गलत अर्थ मे लेकर ये आरोप लगा दिया गया कि नबी ﷺ ने उस स्त्री को घर लौटकर अपने पति की शारीरिक इच्छा पूर्ति करने का आदेश दिया, 

अब क्योंकि इस हदीस मे मारपीट के विषय मे पति पत्नी ने कोई बात ही न की इसलिए ये कहना कतई न्यायोचित नहीं होगा कि नबी ﷺ ने मुस्लिम पतियों को अपनी पत्नियों को पीटने की शिक्षा दी है.  पत्नी को पीटने के विषय मे नबी ﷺ ने क्या फरमाया है वो आप अनेकों हदीसों मे पढ़ सकते हैं कि नबी ﷺ ने मुस्लिमों को स्पष्टत: हुक्म दिया अपनी पत्नियों को पिटाई न करो
 सुनन अबू दाऊद, किताब-11, हदीस-2137, 2138 और 2139 

3• मुस्लिम 9/3506, "नबी ﷺ को प्रसन्न करने के लिए हज़रत अबूबक्र रज़ि. और उमर रज़ि. ने अपनी पुत्रियों (नबी ﷺ की पत्नियों ) को थप्पड़ मारे, जिसपर नबी ﷺ हंसे ॥"

उत्तर - इसी हदीस मे लिखा है कि ये एक स्वांग था न कि कोई गम्भीर विवाद, नबी ﷺ अपनी पत्नियों के साथ उदास बैठे थे अत: जब वहाँ हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर रज़ि. पहुंचे तो माहौल को बोझिल देखकर हज़रत उमर ने मज़ाक करने की सोची और इस मज़ाक मे हज़रत अबूबक्र भी शामिल हो गए, और अपनी बेटियों को चपत लगाने का केवल नाटक किया, ऐसी हंसी मज़ाक को वाइफ बीटिंग को अनुमति कोई कैसे समझ सकता है ?

4 और 5• अबू दाऊद 11/2141 मे नबी ﷺ ने पत्नियों को पीटने की अनुमति दी और अबू दाऊद 11/2142 के अनुसार हजरत उमर रज़ि. ने फरमाया कि नबी ﷺ ने फरमाया कि एक पति से इस बात का प्रश्न नहीं किया जाएगा कि उसे अपनी पत्नी को क्यों पीटा "

उत्तर - अबू दाऊद 11/2141 मे लिखा है कि नबी ﷺ मुस्लिमो से फरमाते थे कि अल्लाह की भक्तों (पत्नियों) को न पीटो, इस पर हज़रत उमर रज़ि. ने आशंका व्यक्त की कि यदि इस तरह स्त्रियों को अपने पतियों से सख्त व्यवहार का बिल्कुल भी भय नहीं रह जाएगा तो वे बहुत से अनैतिक कार्य करने से भी नहीं डरेंगी,  तब अति गम्भीर मामलों यथा व्यभिचारोन्मत्तता आदि के मामलों मे परिवार टूटने से बचाने को नबी ﷺ ने पति को थोड़ा सख्त व्यवहार अपनाने की अनुमति दी है, और अबू दाऊद शरीफ़ 11/2142 मे हज़रत उमर का बयान भी इसकी पिछली हदीस यानी 11/2141 के परिप्रेक्ष्य मे ही है कि व्यभिचार आदि के गम्भीर मामले मे यदि पति पत्नी पर हलका दण्ड देने को हाथ उठाएगा तो इस कारण पति पर पाप नहीं होगा.  लेकिन कुरान 4:34 की अनुमति के अतिरिक्त यदि पति अकारण ही पत्नी को पीटेगा, या छोटी मोटी गलतियों पर पत्नी को प्रताड़ित करेगा तो जरूर ही गम्भीर दण्ड का भागी होगा, ये बात कुरान और अन्य हदीसों से भली भांति स्पष्ट है ॥

6• अबू दाऊद 11/2126 "एक पति को अपनी पत्नी को छड़ी से मारने का आदेश नबी ﷺ ने दिया, क्योंकि वो स्त्री विवाह के पहले ही गर्भवती थी किसी और पुरुष से "

उत्तर - इस हदीस मे स्पष्टत: पता चलता है कि उस स्त्री को व्यभिचार का दण्ड दिया जाने का आदेश था, न कि घरेलू हिंसा का आदेश,  शरीयत मे विवाह पूर्व व्यभिचार मे लिप्त पाए जाने वाले स्त्री पुरूषों को सार्वजनिक तौर पर 100 कोड़े मारने का दण्ड इसलिए निर्धारित है ताकि समाज मे अव्यवस्था न फैले,  लेकिन इसी हदीस मे उस व्यभिचारी स्त्री को तन्हाई मे दण्डित करने और उसे व उसकी होने वाली सन्तान को पाल लेने का आदेश नबी ﷺ ने देकर समाज मे उस स्त्री की मर्यादा भी रख ली और उसे सम्मान से जीने का अधिकार भी दिला दिया ।

ज़रा सोचकर बताईए कौन से समाज के पुरुष अपनी सुहागरात मे दुल्हन को गर्भवती पाकर उसे छोड़ने की बजाय उसे अपना लेने लायक दिल बड़ा कर सकते हैं ? शायद ही कोई ॥

सार यही निकल कर आता है कि हदीस मे भी पुरुष को कहीं भी अपनी पत्नी की पिटाई करने की अनुमति नही है, और यदि कहीं व्यभिचार आदि जैसे गम्भीर मामले मे पति को थोड़े सख्त व्यवहार की अनुमति है तो वो हिंसा के लिए नहीं बल्कि परिवार को टूटने से बचाने को है, परंतु सामान्यतः पति को बर्दाश्त कर लेने और पत्नी से भला व्यवहार करने की ही शिक्षा दी गई है ।


पवित्र क़ुरआन मे स्त्रियों की तुलना खेती से क्यों 
बहुत से भाई पवित्र कुरान मे एक स्थान 2:223 पर पत्नी को पति की खेती कहे जाने पर ये आपत्ति उठाते हैं, कि इस उदाहरण से पता चलता है कि इस्लाम मे औरतों को मर्द की सम्पत्ति, और उपभोग की चीज जैसा माना गया है,  हालांकि इन भाईयों द्वारा एक शब्द से अनुमान लगाकर आपत्तियां उठाने का कोई आधार नहीं है, क्योंकि इसी पवित्र कुरान मे पुरूषों को अपनी पत्नी के साथ भले व्यवहार की अनेकों शिक्षाएं दी गई हैं, और मुस्लिम पतियों को आदेश दिया गया है कि वो अपनी पत्नियों की कमियों को भी स्वीकार करें और पत्नियों के साथ सदा विनम्रता का व्यवहार करते रहें ।

तो फिर ये "खेती" शब्द कुरान मे क्यों आया ?
वास्तव मे शब्द "खेती" एक मिसाल या उपमा है, कि जैसे किसान खेती मे बीज डालता है, और ज़मीन उस बीज को अपनी कोख मे रखकर परवान चढ़ाती है, वैसे ही शौहर के बीज को उसकी बीवी अपनी कोख मे रखकर परवान चढ़ाती है ।

इसी आयत 2:223 मे अपनी बीवी के पास जाने की बात के बाद लिखा है कि "और अल्लाह से डरते रहो और ये मत भूलो कि तुम्हें उसके पास लौट कर जाना है " स्पष्ट है कि इस आयत मे भी मुस्लिमों को अपनी पत्नियों के प्रति भले व्यवहार की शिक्षा दी गई है.  खेती के उदाहरण द्वारा ये बात बताई गई है कि पत्नी के साथ पति को इसलिए भी भला व्यवहार करना चाहिए, और पत्नी के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए क्योंकि वो पति की सन्तान को अपनी कोख मे सम्हाले रखती है, और तकलीफें उठाकर सन्तान को जन्म देती है ।

पत्नियों के साथ भले व्यवहार की शिक्षा देते समय खेती की मिसाल देने से हम को ये बात भी समझ आती है कि जिस तरह किसान अपनी खेती की हिफाज़त करता है, उसे मौसम के हर बुरे असर से बचाए रखता है, खेती अच्छी बनी रहे इसलिए उसको बेहतर खुराक दिया करता है, उसी तरह शौहर को भी अपनी बीवी की भलाई का खयाल, उसकी भावनाओं का खयाल, उसकी सेहत का खयाल, और तरह से भरपूर खयाल रखना चाहिए, उसकी हिफाज़त करनी चाहिए, उसको कठिनाईयों से बचाना चाहिए, क्योंकि पुरुष शारीरिक दृष्टि से ज्यादा शक्तिशाली होता है, इसलिए अल्लाह ने पति पर अपनी पत्नी की सुरक्षा की, व भरण पोषण की जिम्मेदारी सौंपी है, इस आयत द्वारा कहीं स्त्रियों के अधिकारों का हनन, या किसी प्रकार से किसी का अपमान होता हो, ऐसा कहीं से प्रतीत नहीं होता ।

वैसे इस बात पर भी मुझे हंसी आती है कि कुरान की हर आयत को वैज्ञानिक आधार पर गलत बताने की कोशिश करने वाले, इस आयत 2:223 पर वैज्ञानिक पहलू से नज़रे चुराकर मुहावरे का पहलू (और वो भी गलत) ही क्यों देखने लगते हैं,  वैज्ञानिक नजरिये से देखें तो ये आयत आपत्ति करने की नहीं बल्कि आश्चर्य करने की है कि चौदह सौ वर्ष पूर्व जब मनुष्य जीव प्रजनन और पादप जनन (खेती ) मे कोई समानता नहीं देख पाया था, बल्कि जब दुनिया पेड़ पौधों मे जीवन का अस्तित्व ही नहीं मानती थी, तब कुरान मे ये कैसे बता दिया गया कि मानव जन्म की प्रक्रिया ठीक धरती से पौधा उगने के समान है.  आज विज्ञान भी इसी बात को मानता है कि जिस प्रकार मां की कोख से बच्चा पोषण खींच कर बनता और जन्मता है ठीक उसी प्रकार और उन्हीं पौष्टिक तत्वों को जमीन की कोख से खींच कर एक बीज से पौधा भी बनता व जन्म लेता है. निस्संदेह अल्लाह अपनी रचना को सबसे बेहतर जानता है ।

इस नजरिए से देखा जाए तो मां बनने की इस अद्भुत क्षमता के कारण कुरान मे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से औरत को खेती भी कहा गया है, और मां बनने की इसी क्षमता के कारण इस्लाम मे औरत का सबसे अधिक सम्मान भी किया गया है.  हमारे देश ही मे देख लीजिए, धरती को देवी और मां के ऊंचे पद पर बैठाने का सम्मान क्या केवल इसीलिए नहीं दिया गया कि वो हमारे लिए अन्न उपजाती है ?

बस मै ये समझ नही पाता हू कि जिन भाईयों के धर्म ने ही खेती को इतना सम्मान दिया की इस कारण धरती की और अन्न की पूजा भी होने लगी, उन्हीं भाईयों को खेती शब्द मे अपमान क्यों नजर आता है ?


10  क्या इस्लाम में औरत को नाकिस आक्ल  माना जाता है 
क्या नबी ﷺ  ने महिलाओं को "नाकिसाति अक़्ल व दीन" यानि अक़्ल से मूर्ख और धार्मिक मामलों में दोषपूर्ण कहा था ?

आज पढ़ने में आया कि कुछ उम्ररसीदा मुस्लिम लोग ऐसा भ्रम पाले हुए हैं,  ज़रा ख़ुद सोचकर देखिये, औरत दुनिया के कौन से मैदान में आदमी के मुकाबले बेवकूफ़ साबित होती है ?  क्या औरतें मर्द से बेहतर, डॉक्टर इंजीनियर, वैज्ञानिक नही साबित हुई हैं ? क्या हर साल हमारे देश के स्कूलों में लड़कों से ज़्यादा लड़कियां टॉप नही करतीं ?  और अलग मामलात में क्यों जाएं, मज़हब की पहली आलिमा उम्मुल मोमिनीन आइशा सिद्दीका रज़ि० क्या इल्म के मामले में हज़ारों मर्दों से बेहतर नही थीं ? बिलकुल बेहतर थीं.  फिर आप ये देखें कि ज़्यादा संगीन गुनाहों में मुलव्विस होने वालों में मर्दों की तादाद ज्यादा है या औरतों की ? बिला शक़ कत्लोगारतगरी, ज़िना बिल जबर, मासूमों के साथ ज़्यादतियां और बेईमानी करने में मर्द औरतों से बहुत आगे हैं, ऐसे में क्या ये इन्साफ होगा कि मर्द को नाक़िस दीन वाला न कहा जाये और औरत को कहा जाए ?

फिर ये भी सोचिये कि अल्लाह ने अपनी ख़ास कार्ययोजना के तहत बच्चे को माँ से पैदा किया, माँ और बच्चे में ज़बरदस्त रग़बत पैदा की ताकि माँ की दी हुई तरबियत के ज़रिये ही बच्चे का क़िरदार तय हो, यानि दुनिया में जो भी नेक, स्वालेह, आलिम और दीनदार बनता है उसके पीछे एक औरत की ही तरबियत होती है.  तो क्या दुनिया को नेकी और भलाई का दर्स देने की ये बड़ी ज़िम्मेदारी अल्लाह किसी ऐसी मख्लूक़ को सौंप सकता है जो मख्लूक़ ख़ुद ख़राब अक़्ल और ख़राब दीन की अहल हो ? नही जी, मामला कुछ और है

दरअसल औरतों को नाकिस अक़्ल समझने की ये गलतफहमी लोगों को भाषा के अंतर की वजह से होती है, अरबी भाषा की Verb न-क़-स (نَقَصَ) का अर्थ होता है "to Reduce" यानि किसी मामले में कमी करना,  जबकि उर्दू के लफ्ज़ "नाक़िस" का अर्थ समझा जाता है कोई ख़राब, दोष से भरी, त्रुटिपूर्ण चीज़. तो मामला ये है कि लोग अरबी की हदीस में अरबी के अल्फ़ाज़ों को उर्दू के अल्फ़ाज़ समझ लेते हैं. और इस तरह से नबी ﷺ की बात का बड़ा गलत मतलब निकाल लेते हैं.

हदीस बुख़ारी शरीफ़ की किताब ए हैज़ में है, अरबी लफ्ज़ नाकिसा का उसके सही अर्थों में तर्जुमा किया जाए तो मफ़हूम ये है
" नबी ﷺ ने फ़रमाया.  औरतों को अक़्ली जिम्मेदारियों और दीनी ज़िम्मेदारियों में मर्दों के मुकाबले कमी की गई है, छूट दी गई है, फिर भी कुछ औरतों की आदत होती है कि वो नाशुक्री करती हैं.  औरतों ने पूछा अक़्ली ज़िम्मेदारी में औरत को क्या छूट दी गई है ? आप ﷺ ने फ़रमाया कि क्या गवाही के मामले में उनपर मर्द के मुक़ाबले आधी ज़िम्मेदारी नही डाली गई है ?  औरतों ने नबी ﷺ के इस सवाल पर "हां" में जवाब दिया, इसके बाद औरतों ने पूछा और दीन की कौन सी ज़िम्मेदारी में औरतों को छूट है ? आप ﷺ ने फ़रमाया क्या औरतों हैज़ के समय नमाज़ पढ़ने और रोज़ा रखने, दोनों ज़िम्मेदारियों से छूट नही दी गई है ?  औरतों ने इस सवाल का जवाब भी हां में दिया .

ये हदीस वास्तविक अर्थ में न औरतों को मूर्ख ठहराती है, और न उनको धार्मिक मामलों में दोषपूर्ण कहती है, बल्कि इस हदीस में ये बताया गया है कि इस्लाम ने औरतों पर कुछ मामलों में ज़िम्मेदारी का बोझ कम डाला है, इस नाते औरतों को शुक्रगुज़ारी करनी चाहिए.  जबकि इस हदीस के जो गलत अर्थ निकाले गए हैं उससे तो औरतों को दीन की तरफ़ से बेज़ार ही किया जा रहा है, कौन सी औरत होगी जिससे आप ये कहें कि तुम कुछ भी कर लो मज़हब तुम्हें बेवकूफ़ और बेदीन ही मानेगा, ये सुनकर वो मज़हब के क़रीब आएगी ? ज़रा सोचिये .

(इस्लाम में औरतों के ज़ाती मामलात में उनकी ख़ुद की गवाही को तो काफ़ी माना गया है (देखें क़ुरआन, 24:8), लेकिन ऐसे मामलात जिनमें पक्षकार न होकर औरत सिर्फ बहैसियत एक गवाह मौजूद हो तो एक औरत पर ही गवाही का पूरा भार नही डाला गया, क्योंकि दूसरों के मामले गवाही देना एक बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है, और शरीयत में प्रावधान है कि गवाही देनेवाला अगर झूठा साबित हो तो उसको भी सज़ा दी जाएगी, ऐसी सख्ती के मामले में औरतों को छूट दी गई है, कि कारोबारी लिखत पढ़त, या आपराधिक मामलों में गवाही की पूरी ज़िम्मेदारी एक औरत पर नही डाली जाएगी, ताकि कन्फ्यूज़न की वजह से अगर किसी स्त्री ने गलत गवाही भी दे दी हो, तो दूसरी स्त्री उसे सही कर दे (क़ुरआन, 2:282) और गवाही देनेवाली स्त्री को अनावश्यक ज़िम्मेदारी के भार व सज़ा की स्थिति से बचा लिया जाये)


11  स्त्रियों पर पुरषों को वरीयता
क़ुरआन 4:34 पर साधारणतया ये आरोप लगाया जाता है कि यहाँ पुरुषों को घरेलू हिंसा का आदेश दिया गया है जिस आरोप का उत्तर मैं बहुत पहले दे चुका हूं, (content 7 क्या इस्लाम घरेलू हिंसा की शिक्षा देता है)

अब क़ुरआन 4:34 पर ये दूसरा प्रश्न है
"पति पत्नियों के रक्षक और भरण-पोषण करने वाले है, क्योंकि अल्लाह ने उनमें से कुछ को कुछ के मुक़ाबले में आगे रखा है
क़ुरआन 4:34

क़ुरआन पाक की इस आयत के आधार पर कई लोग ये आरोप लगाते हैं कि इस्लाम में पुरुषों की महत्ता स्त्रियों से अधिक मानी गई और स्त्रियों को कमतर आंका गया है.  लेकिन ये बात सही नहीं है, आयत में कुछ को कुछ के मुकाबले आगे रखने का अर्थ पतियों की महत्ता के बढ़ाने, या उनको स्त्रियों पर अधिकारों के मामले में प्रभुत्व देने से नही है, बल्कि इस आयत का अर्थ साफ़तौर पर पुरुषों के शारीरिक बल और क्षमता में स्त्रियों से ज़्यादा होने से है.  ये बात आयत की प्रथम बात से भी पुष्ट होती है कि पति पर पत्नी की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी है, क्योंकि प्रकृति ने उन्हें स्त्री से अधिक शारीरिक बल वाला बनाया है. इसी अधिक शारीरिक क्षमता की वजह से अपने परिवार के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी भी पुरुष पर डाली गई है, और आयत में इसका भी ज़िक्र है.  देखा जाए तो आयत में पुरुषों को अधिकार के मामले में नही बल्कि कर्तव्यों का पालन करने के मामले में आगे रखा गया है .

इस आयत से पुरुषों को स्त्री पर अधिकार के मामले में वरीयता देने का आरोप लगाने वालों को, पहले पूरा इस्लामी साहित्य पढ़कर देखना चाहिए, जिसमें पतियों को ही बहुत सारे कर्तव्यों का पाठ पढ़ाया जाता मिलेगा, कहीं ये न मिलेगा कि स्त्री पाप की गठरी है, इसलिये उसका शोषण करो.  अब देखिये जैसे कि पुरुष के एक कर्तव्य के बारे में पवित्र कुरान मे अल्लाह का फरमान है कि. "अपनी पत्नी के साथ भले तरीक़े से रहो-सहो। और यदि वो तुम्हें पसन्द न हों, तो भी सम्भव है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो लेकिन दूसरी ओर अल्लाह ने उसमें बहुत कुछ भलाई रखी होगी," 
सूरह 4, आयत 19

इसी तरह आप ﷺ की ये हदीस शरीफ हजरत अबू हुरैरा से रिवायत है, नबी ﷺ ने फरमाया, "अपनी औरतों के साथ भला सुलूक किया करो, इसलिये कि औरतें पसली से पैदा की गई हैं और पसली टेढ़ी होती है, अगर तुम पसली सीधी करना चाहोगे तो वह टूट जायेगी और अगर उसी तरह छोड़ दोगे तो वो टेढ़ी ही रहेगी, तो तुम औरत को जैसी वो है वैसी ही रखकर उससे काम ले सकते हो, इसलिए औरत के साथ अच्छा व्यवहार किया करो"
बुखारी शरीफ किताब 55, नम्बर 548: और बुखारी, किताब 62: नम्बर 113 

एक हदीस में नबी ﷺ ने फ़रमाया है कि तुममे सबसे बेहतर मुसलमान व्यक्ति वो है जो अपनी पत्नी के साथ भला सुलूक करता हो.  क्या उपरोक्त उदाहरणों को देखते हुए ये समझा जा सकता है कि इस्लाम में पुरुष को ज़्यादा ऊँचा दर्जा दिया गया है और स्त्री को नीचा ? या पुरुष को अधिक अधिकार देकर उन्हें स्त्रियों के शोषण या स्त्रियों पर हिंसा की छूट दे दी है ? उल्टे उपरोक्त हदीसों के उदाहरण और क़ुरआन 4:19 के आदेश में पुरुष की उस प्राकृतिक मानसिकता पर रोक लगाई गई है जिस मानसिकता के चलते वो स्त्रियों के साथ बुरा व्यवहार और हिंसा करने लगते हैं.

यदि आपने कभी जीव विज्ञान की कक्षाओं को अटेंड किया हो, तो आप जानते होंगे प्रत्येक जीव के जोड़े में प्राकृतिक रूप से नर जीव मादा के मुकाबले ज़्यादा बलशाली, और ज़्यादा आक्रामक होता है, जबकि मादा उसके मुकाबले कम बल का प्रदर्शन करती है, और कम आक्रामक होती है, जीव विज्ञान का यही नियम मनुष्यों पर भी लागू होता है कि पुरुष स्त्री से ज़्यादा बलवान और स्त्री से ज़्यादा आक्रामक होता है.  पुरुषों के इसी प्राकृतिक आक्रामक स्वभाव पर हदीस और क़ुरआन के उपरोक्त आदेशों के ज़रिए इस्लाम ने रोक लगाई है.

तो हम ये पाते हैं कि इस्लाम में किसी जिंस (जेंडर) को किसी पर न अनुचित ढंग से अधिकारों के मामले में बढ़ोतरी दी गई है न किसी के कर्तव्यों को अन्यायपूर्ण तरीके से दूसरे से ज़्यादा रखा गया है.  बल्कि दोनों पर उनकी क्षमताओं के अनुसार कर्तव्य, और दोनों की आवश्यकताओं के अनुसार उन्हें अधिकार दिए गए हैं

अल्लाह ने स्त्री और पुरुष, दोनों पर एक सी इबादतें फ़र्ज़ की हैं, एक से भले व्यवहार की अपेक्षा दोनों से रखी है.   मर्द और औरत दोनों ही के कर्मों का हिसाब एक सा ही किया जाएगा उस आधार पर ही स्त्रियां भी जन्नत में जायँगी, और पुरुष भी दोज़ख़ में.  किसी के पुरुष होने भर से वो अल्लाह का प्रिय बनके जन्नत में चला जाएगा, और कोई स्त्री होने भर से नर्क में जाएगी ये मान्यता इस्लाम में हरगिज़ नही रखी गई है.


12  इस्लाम ने दाम्पत्य जीवन का आधार प्रेम को बनाया है न कि डर और अत्याचार को 
सुनन तिरमिज़ी शरीफ़ मे एक हदीस है कि एक औरत नबी ﷺ के पास पहुंची और उसने नबी ﷺ से पूछा कि पति के लिए पत्नी के क्या क्या कर्तव्य हैं, इसपर नबी ﷺ ने उस औरत को एक पत्नी के कर्तव्यो के बारे मे बताते हुए ये भी फरमाया कि जब भी पति अपनी पत्नी को बुलाए तो पत्नी को जाना चाहिए .

इस हदीस पर मलेशिया के एक मुफ्ती ने ये फतवा दिया है कि मुस्लिम पति अपनी पत्नी की मर्जी के बगैर जब चाहे तब उससे सेक्स कर सकता है, इस्लाम के हिसाब से ये बिल्कुल गलत नहीं, और इस्लाम मे वैवाहिक बलात्कार का कोई विचार ही नहीं यानी पत्नी को मारपीट कर उससे जबरन सम्भोग करना ठीक है .

मैं कहता हूँ हद्द हो गई, दुनियाभर मे कैसे कैसे लोग मुफ्ती बन जाते हैं, और ऐसे ऐसे फतवे देते हैं जिनका सीधा उद्देश्य इस्लाम को बदनाम करना होता है
जो हदीस तिरमिज़ी शरीफ़ से ऊपर बयान है उसका सीधा सा अर्थ है कि पत्नी को पति की दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति का खयाल रखना चाहिए,  यहाँ पति को पत्नी के शरीर पर जबरन अत्याचार करने का हक मिलने की बात कैसे नजर आ गई मुफ्ती साहब को ? सीधी सी बात है पारिवारिक सम्बन्धो के विषय में ये हुक्म पत्नी को दिया गया है और इस आदेश का पालन करना न करना पूरी तरह स्त्री पर निर्भर करता है, पुरुष पर इस आदेश का पालन करवाने को जोर दिखाने की जिम्मेदारी नहीं है.  और इस्लाम मे स्पष्ट विधान है कि सामाजिक जुर्म के क्षेत्र मे न आने वाली नैतिक और वैयक्तिक जिम्मेदारियां जो बालिग मुस्लिमों पर डाली गई हैं, जैसे नमाज़ पढ़ना, रोज़ा रखना, मां बाप का आज्ञापालन करना, पति की बात मानना आदि ऐसी बातों का पालन यदि सम्बन्धित व्यक्ति नहीं करते तो दुनिया वालों मे से किसी को अधिकार नहीं कि इन बातों के लिए इन्हें दण्डित करें, बल्कि इन बातों के लिए दण्ड देने न देने का फैसला अल्लाह द्वारा लिया जाएगा.  तो स्पष्ट है पत्नी को दिए गए कर्तव्य पत्नी पूरे करे, न करे तो अल्लाह के दरबार मे दण्ड की भागी होगी. लेकिन पति पर ये जिम्मेदारी नहीं कि वो पत्नी से उसके कर्तव्य पूरे करवाए, बल्कि पति पर जिम्मेदारी है पत्नी के अधिकारों की रक्षा करने का, और वो अधिकार हैं कि पति अपनी पत्नी के साथ नरम व्यवहार करे बुखारी शरीफ किताब 55, नम्बर 548: और बुखारी, किताब 62: नम्बर 113  अपनी पत्नी को प्रताड़ित करने की बात भी न सोचे  कुरआन 2:231 , और "अपनी पत्नी के साथ भले तरीक़े से रहो-सहो। और यदि वो तुम्हें पसन्द न हों, तो सम्भव है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो लेकिन दूसरी ओर अल्लाह ने उसमें बहुत कुछ भलाई रखी होगी, कुरआन 4:19

बताईए ये सब कर्तव्य होते हुए क्या एक समर्पित मुस्लिम अपनी पत्नी के साथ जबरन सेक्स कर सकता है ?

बिल्कुल नहीं .

सब जानते हैं कि सेक्स पति पत्नी के बीच प्रेम बढ़ाने का सबसे मजबूत माध्यम है, पर अक्सर कुछ स्त्रियाँ अपने पति से उचित अनुचित मांगे मनवाने के लिए या दूसरे किसी स्वार्थ मे सेक्स के लिए पति को तरसाने लगती हैं, जो कि गलत है , इससे दाम्पत्य मे दरार पड़ जाती है.  ऐसी स्थिति आज्ञाकारी मुस्लिम स्त्री अपने जीवन मे न खड़ी करे इसलिए मुस्लिम स्त्रियों को ये निर्देश दिया गया, पर इसका अर्थ ये नहीं कि पति जब चाहे तब पत्नी के साथ सेक्स करे और पत्नी की सुविधा असुविधा का ध्यान ही न रखे, बल्कि यदि पत्नी बीमार है, तनाव मे है, गुस्से मे है, दुखी है, तो वो पति की सेक्स की मांग ठुकरा सकती है और पति का नैतिक कर्तव्य है कि पहले पत्नी को संयत और प्रसन्न करे फिर अपनी मांग रखे.  जैसा कि एक मुस्लिम पति का कर्तव्य है कि वो अपनी पत्नी के साथ भला व्यवहार करे

इसी विषय मे एक बेहद मशहूर हदीस है जो बुखारी ,मुस्लिम व अन्य कई हदीस संकलनों मे भी दर्ज है कि नबी ﷺ ने फरमाया कि "यदि एक स्त्री अपने पति की शरीर की मांग को ठुकरा देती है, और पति गुस्से मे सो जाता है तो उस पूरी रात फरिश्ते उस स्त्री पर लानत करते रहते हैं "
सहीह बुखारी, 4794

देखिए इस हदीस मे ऐसी स्थिति मे जब पत्नी किसी वास्तविक कारण से नहीं बल्कि अनुचित रूप से पति के शरीर की मांग ठुकरा कर पति को सताए, तब पति के आदर्श व्यवहार का भी जिक्र है कि उसे पत्नी पर कोई जबर्दस्ती किए बिना सो जाना चाहिए, और ये जिक्र भी है कि अगर पत्नी पति के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी न करे तो इस बात का दण्ड देने का हक पति को नहीं बल्कि मलायका उस स्त्री को बद्दुआएं देंगे.  लेकिन यहाँ कहीं भी वैवाहिक बलात्कार की वकालत नहीं है जैसा कि मुफ्ती ने प्रचार किया था


13  स्त्रियों की मर्यादा और प्राणों की रक्षा
इस्लाम विरोधी लोग हदीस के शब्दों को तोड़ मरोड़कर इस्लाम पर आपत्तिजनक आरोप लगाने मे माहिर हैं, हम जब भी इस्लाम मे युद्ध के समय भी शत्रु स्त्रियों के सतीत्व और सुरक्षा को मुस्लिमों द्वारा कतई हानि न पहुंचाने के नियम के बारे मे बताते थे, तो एक भाई "उम्मे किर्फा" का नाम लेते हुए पहुंच जाते और ये आरोप लगाते थे कि उक्त उम्मे किर्फा नाम की गैरमुस्लिम महिला की जघन्य हत्या मुस्लिमों ने कर डाली थी, और उसकी बेटी को मक्का के काफिरो को एक गुलाम के रूप मे बेच दिया था .

सच ये है कि उम्मे किर्फा की कहानी एण्टी इस्लामिक साइट्स द्वारा नमक मिर्च लगाकर पेश की गई है जिसके लिए "सिरा" और "तारीखे तबरी" एवं मुस्लिम शरीफ़ के प्रमाण दिए जाते हैं, लेकिन सिरा और तबरी हदीस नहीं बल्कि तारीख़ की किताबें हैं, इनको वैसी सावधानी से नही लिखा गया जैसी सावधानी हदीसों की प्रामाणिकता बनाने के लिये बरती गई है, इसी कारण तारीख़ की ये किताबें इस्लामी ज्ञान का स्रोत नही हैं,

हालांकि इन किताबों (सिरा व तबरी) पर मुस्लिमों की पूर्ण आस्था नहीं है, क्योंकि इन किताबों मे इस्लामी आचार विचार के विरुद्ध कई तथ्यहीन बातें भी हैं  इन किताबों मे उम्म किर्फा की पूरी कहानी की वास्तविकता भी संदेहास्पद है, फिर भी, इन अप्रमाणिक और संदेहास्पद किताबों से भी मुस्लिम अपराधी नहीं ठहरते, इन किताबों मे भी तथ्य यही हैं कि उम्म किर्फा स्वयं मुस्लिमों पर आक्रमण करती थी और हिंसक, क्रूर और बर्बर तरीकों से मुस्लिमों की हत्या करती थी वो कई मुस्लिमों की हत्या की दोषी थी, और जान के बदले जान का नियम जो इस्लाम मे स्त्री पुरूषों के लिए समान है, उस नियम के तहत उसको मृत्युदण्ड दिया गया .

बहरहाल इस्लामी ज्ञान का स्रोत सही हदीस और कुरान है, और उनमें आप कहीं उम्म किर्फा का जिक्र तक नहीं दिखा सकते, तो इस कहानी को हम इस्लाम विरोधियों के प्रपंच से अधिक कुछ क्यों मानें, हमारे सामने तो मक्का के सरदार अबू सुफयान की पत्नी हिन्द का प्रमाणिक उदाहरण है, जो युद्ध मे मुस्लिमों को अत्यधिक हानि पहुंचाती थी, और युद्ध मे नबी ﷺ के प्रिय चचा हज़रत हमज़ा,रज़ि. का कत्ल करवाने के बाद उनकी लाश को चीर कर उनका कलेजा चबा गई थी, इसके बावजूद जब मक्का विजय के अवसर हिन्द नबी ﷺ के समक्ष एक पराजित की तरह आई तो नबी ﷺ ने बस उस स्त्री को अपनी नजरों के सामने से हटा दिया कोई दण्ड नहीं दिया.  तो हमने तो इस्लाम से यही सीखा कि क्रूर स्त्रियों के प्रति भी जहाँ तक हो सके विनम्र ही रहें 

रही बात सही मुस्लिम, किताब 19, नम्बर 4345 की तो वहाँ उम्म किर्फा का कहीं नाम नहीं, और जैसा विरोधी लोगों की गन्दी ज़हनियत ने अन्दाज़ा लगा लिया कि मुस्लिमों ने बनू फज़ारा से अपहरण कर के एक युवती को मक्का के काफिरो को एक गुलाम के रूप मे "बेच दिया" तो वो भी झूठ है.  बुखारी शरीफ मे प्रसिद्ध हदीस वर्णित है कि अल्लाह उस व्यक्ति का शत्रु हो जाएगा जो व्यक्ति किसी आज़ाद शख्स को गुलाम बनाकर बेचकर उसका दाम वसूल लेगा, इस हदीस का ज्ञान रखने के कारण निष्ठावान मुस्लिमों ने स्त्रियों या पुरूषों को अपने इतिहास से लेकर आज तक कभी नही बेचा, लोगों को दास बनाकर बेचने की परम्परा औरों की रही है .

ऐतिहासिक तथ्य ये है कि नबी ﷺ के समय मे काफिरो से जितने भी युद्ध मुस्लिमों के साथ हुए वो सारे युद्ध मक्का के काफिरो ने शुरू किए, फिर अपने मित्र कबीलो के साथ योजनाएं बना बनाकर किए, बनू फज़ारा भी मक्का के काफिरो के मित्र थे और इस हदीस के पार्श्व मे बनु फजारा ने मक्का वालों के साथ मिलकर युद्ध किए थे जिसके फलस्वरूप अनेक मुस्लिमों को उन्होंने बंधक भी बना लिया था.  ऐसे ही एक युद्ध मे फज़ारा वालों की जब मुस्लिमों के समक्ष हार हो गई और युद्ध क्षेत्र मे मौजूद स्त्री एवं पुरूषों को मुस्लिमों ने बंदी बना लिया, और हज़रत सलामा रज़ि. को एक युवती दी गई (नौकरानी के तौर पर न कि रखैल के) , इसी हदीस मे हज़रत सलामा रज़ि. कम से कम तीन बार ये कसम खाते है कि वो युवती मुझे बहुत पसंद थी मगर मैंने उसको हाथ भी नही लगाया.

उधर अपने मित्र कबीले की इस युवती को आजाद कराने के लिए मक्का के काफिरो ने नबी ﷺ के साथ समझौता किया, और नबी ﷺ ने वो युवती जैसी पवित्र वो सलामा रज़ि. के पास आई थी, वैसी ही पवित्र उसके मित्र मक्का वालों को सौंप दी जिसके बदले मे मक्का वालों ने अपने पास पहले हुए युद्ध मे बंधक बनाए हुए मुस्लिमों को रिहा कर दिया .

वो युवती मक्का के काफिरो को बेची गई , ऐसा अनुमान गिरी हुई सोच के लोग ही लगा सकते हैं, या उन लोगों को भ्रम हो सकता है जिन लोगों के दिमाग मे पूर्वाग्रह डाल दिया गया हो, लेकिन संतुलित बुद्धि से, और दास व्यापार न करने की इस्लामी शिक्षा को ध्यान मे रखते हुए मुस्लिम शरीफ़ की इस हदीस पर सोचा जाए तो स्पष्ट है कि यदि अपने मित्र कबीले बनू फज़ारा की लड़की को खरीद कर मक्का वाले उसे गुलाम बना लेते व उसका यौन शोषण करने लगते तो बनू फज़ारा से मक्का वालों की दुश्मनी हो जाती और मक्का वालों की ये खास प्लानिंग थी कि वे मुस्लिमों के विरुद्ध रहने वाले सभी गैर मुस्लिम कबीलो से दोस्ती बनाकर रखते थे ताकि मिलकर मुस्लिमों का खात्मा कर सकें, जैसा कि अल्लाह पाक ने कुरान मजीद मे फरमाया है कि "ये लोग मुस्लिमों के विरुद्ध एक दूसरे के मित्र हैं,  और तुम देखोगे कि जिनके दिलों मे रोग (मुस्लिमों के लिए दुर्भावना) है वे दौड़ दौड़ कर एक दूसरे से मिले जाते हैं"

अत: मुस्लिमों के खिलाफ मजबूत बने रहने के लिए मक्का वालों ने उस युवती को उसके परिजनो को सौंपने के लिए ही मुस्लिमों से मांगा था.  अत: ये भी सिद्ध है कि इस्लाम का कोई भी नियम कायदा कभी ऐसा नहीं रहा जिससे किसी स्त्री की मर्यादा या प्राणो को जरा भी नुकसान पहुंचने की आशंका रही हो .


14 इस्लाम के मुताबिक़ औरत अपने शौहर के लिए बरकत का सबब होती है
एक आपत्ति ये है कि सही बुखारी, किताब 62 यानी निकाह की किताब मे मुस्लिमों को निकाह के विषय मे सलाह देते हुए नम्बर 30,31 और 32 पर एक हदीस है कि नबी ﷺ फरमाते है कि "अपशगुन व दुर्भाग्य स्त्री , घर या घोड़े मे हो सकता है"  तो प्रश्न ये है कि यदि इस्लाम स्त्रियों और पुरूषों की समानता का दावा करता है तो फिर उपरोक्त हदीस मे नबी ﷺ ने घर, घोड़े और स्त्री को अपशगुन का कारण क्यों कहा ?

जैसा कि मैं बार बार कहता आ रहा हूँ कि मुस्लिमों के लिए सबसे बड़ा धार्मिक दिशा निर्देश है पवित्र कुरान, जिसके विपरीत जाने वाली हर शिक्षा त्याग दी जाती है चाहे वो किसी भी हदीस मे क्यों न हो.   तो अल्लाह के अतिरिक्त किसी और चीज को अपना भला होने का कारण समझना या अपने दुर्भाग्य का किसी व्यक्ति को कारण समझना पवित्र कुरान की इस शिक्षा का विरोध करना है कि किसी व्यक्ति के सौभाग्य या दुर्भाग्य पर केवल अल्लाह का प्रभुत्व है सूरह अनआम की आयत 17 और किसी व्यक्ति के दुर्भाग्य का कारण उस व्यक्ति के अपने ही कर्म होते हैं सूरह निसा की आयत 79

दूसरी बात ये कि किसी हदीस पर, विशेषकर संक्षेप मे बयान की गई हदीस पर विश्वास बनाने से पहले उस विषय की कई हदीसों का अध्ययन किया जाना आवश्यक होता है, ताकि हदीस का विस्तार और उसकी सही शिक्षा पता चल सके.  लिहाजा इस हदीस से सम्बन्धित अन्य हदीस का अध्ययन करने पर जो पता चलता है, उनमे से एक तथ्य तो ये है कि इस्लाम मे अपशगुन जैसे अंधविश्वास की यानी किसी चीज या व्यक्ति के कारण जीवन मे दुर्भाग्य आने के आधारहीन विश्वास की कड़ी भर्त्सना अनेक हदीसों मे ही की गई है.  और इसको शिर्क (ईश्वरीय सत्ता मे अन्य की भागीदारी) समान महापाप बताया गया है. नबी ﷺ ने स्पष्ट शब्दों मे कई स्थानों पर फरमाया है, कि अपशगुन जैसी कोई चीज नहीं होती, अपशगुन पर विश्वास रखना शिर्क है
देखें हदीस अहमद 4194, अबू दाऊद 3910, तिरमिज़ी 1614 और इब्ने माजाह 3538 मे 

दूसरा तथ्य इस संक्षेप हदीस का विस्तार पढ़ने पर पता चलता है । देखिए :-
मुस्नद अहमद बिन हम्बल मे संख्या 6/246 पर हदीस है कि "अबू हसन ने बताया कि दो आदमी, मां आएशा रज़ि. के पास गए और पूछा कि अबू हुरैरह रज़ि. रिवायत करते हैं कि अपशगुन व दुर्भाग्य स्त्री, घर या घोड़े मे हो सकता है.  
इस पर मां आएशा ने जवाब दिया कि उस रब की कसम जिसने नबी ﷺ पर कुरान नाज़िल किया, अल्लाह के रसूल ﷺ  ने ये कभी नहीं कहा, बल्कि आप स. ने ये कहा था कि अज्ञानी लोगों ने इस किस्म का अंधविश्वास पाल रखा था."  इस हदीस को अल-हाकिम ने सहीह कहा है 2/479 अन्य विद्वानों ने भी इस हदीस को सही घोषित किया है . 

अल-तयलिसी की मुस्नद मे 1/215 पर हदीस है कि "मुहम्मद बिन राशिद रिवायत करते हैं कि मां आएशा रज़ि. से पूछा गया कि अबू हुरैरह रज़ि रिवायत करते हैं कि अपशगुन व दुर्भाग्य स्त्री, घर या घोड़े मे हो सकता है.  इस पर मां आएशा ने जवाब दिया कि अबू हुरैरह रज़ि. इस हदीस को ठीक प्रकार याद नहीं कर पाए क्योंकि जब वो घर मे दाखिल हुए, उस वक्त नबी ﷺ ये फरमा रहे थे कि “उन यहूदियों पर अल्लाह की लानत हो जो ये कहते हैं कि अपशगुन व दुर्भाग्य स्त्री, घर या घोड़े मे हो सकता है”  मां आएशा बताती हैं कि अबू हुरैरह बाद मे आने के कारण हदीस का सिर्फ आखिरी भाग सुन सके.  इस हदीस को भी सही हदीस और कुरान की शिक्षा के अनुकूल होने के कारण विद्वानों ने प्रमाणिक माना है .

तो ये रही उस हदीस को लेकर पैदा की गई गलतफहमी का समाधान.  कि किसी स्त्री को अपशगुनी और मनहूस मानना एक ऐसा विश्वास है जिस विश्वास को रखने वाले पर नबी ﷺ ने लानत भेजी है ।

वास्तव मे शगुन अपशगुन मे अंधविश्वास के कारण ही हमारे देश मे अनेकों स्त्रियों और बच्चियों की जीना मुहाल कर दिया गया ये कह कह कर कि फलानी पैदा होते ही अपनी मां या बाप को खा गई, या शादी होते ही पति को खा गई.  अल्लाह का शुक्र है कि इस्लाम मे ऐसी कोई दुष्ट अमानवीय रीति नहीं है. बल्कि इस्लाम मे तो स्पष्ट तौर पर किसी परिवार मे होने वाला स्त्री का बेटी के रूप मे जन्म परिवार के लिए अल्लाह की रहमत यानि ईश्वर द्वारा दिया गया सुख शांति का आशीर्वाद बताया है ।

यदि कोई कहे कि इस्लाम मे बेटी को तो रहमत बताया गया है पर पत्नी को अपशगुनी बताया गया है तो ये भी एक झूठ होगा क्योंकि प्यारे नबी ﷺ हमे ये भी स्पष्ट तौर पर बता चुके हैं कि अल्लाह उस व्यक्ति की पत्नी को उस व्यक्ति के लिए शुभ बनाता है, जो व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ न्याय करता है, नबी ﷺ  ने फरमाया कि “जो व्यक्ति अपनी आंखों को सुरक्षित रखने के लिए ( अपनी यौन शुचिता को बनाए रखने के लिए ) विवाह करता है, और अपनी पत्नी के साथ दयालुता और भलाई का व्यवहार करता है,  तो अल्लाह आशीर्वाद देकर उस वधू को वर के लिए शुभकारी बना देता है, और उस वर को वधू के लिए शुभकारी बना देता है


15  क्या इस्लाम मे स्त्रियों की तुलना कुत्तों और गधों से कर के स्त्रियों को अपमानित किया गया है 
अबु दाऊद शरीफ़ मे एक हदीस है कि यदि कोई कुत्ता, गधा, सुअर, एक यहूदी, जादूगर या कोई स्त्री किसी बिना किसी खुले स्थान पर नमाज पढ़ते व्यक्ति के करीब से सामने से गुजर जाएं तो नमाज खराब हो जाती है, ( मुस्लिम शरीफ़ के अनुसार नमाज़ मे खलल पड़ जाता है ।) इस हदीस को आधार बनाकर कुछ लोग ये आरोप लगा रहे हैं कि इस्लाम ने स्त्री को कुत्ते और गधे जैसा बताकर स्त्रियों का अपमान किया है .

इस आरोप का सबसे अच्छा जवाब बुखारी शरीफ़ किताब-9, हदीस-493 मे है कि अम्मी आइशा रज़ि. ने जब नबी ﷺ के समक्ष इस बात पर एतराज़ जताया कि "आप ﷺ हमारी (स्त्रियों की) तुलना कुत्ते और गधे से कर रहे हैं ?" तो (इस घटना के उपरांत) अम्मी आइशा रज़ी. ने देखा कि नबी ﷺ अम्मी आइशा के अपने सामने लेटी होने के बावजूद नमाज पढ़ रहे थे "
ऐसे नमाज पढ़कर नबी ﷺ ने ये जाहिर कर दिया कि आप ﷺ ने स्त्रियों को कुत्ते या गधे जैसा नहीं माना था, और यदि नमाजी के आगे जाने की मनाही को किसी भली स्त्री ने अपना अपमान समझा हो, तो प्यारे नबी ﷺ ने स्त्रियों को अपमानित नही किया है ।

वास्तव मे इस हदीस का मंतव्य ये है कि नमाज को पूरी एकाग्रता के साथ पढ़ा जाना चाहिए, लेकिन यदि कुत्ते, गधे या सूअर जैसा कोई जानवर जो किसी व्यक्ति को अपने पास पाकर आक्रामक हो सकता है , या शत्रु पक्ष का कोई व्यक्ति किसी नमाज पढ़ते हुए व्यक्ति के सामने आ जाए तो निस्संदेह नमाज़ी का ध्यान ये सोचकर नमाज़ से हट जाएगा कि कहीं वो जानवर या शत्रु , नमाज़ी को कोई नुकसान न पहुंचा दें, इसके विपरीत यदि कोई स्त्री नमाज पढ़ते व्यक्ति के सामने आ जाएगी तो उस स्त्री का रूप सौन्दर्य या शोख परिधान देखकर नमाज़ी का ध्यान नमाज़ से भटक सकता है, और नमाज मे खलल और खराबी आ सकती है.  जैसा कि इस विषय की हदीस की व्याख्या करते हुए एक बड़े इस्लामी विद्वान इमाम नानवी ने लिखा है कि:-
"यहाँ नमाज मे खलल पड़ने का अर्थ, व्यक्ति का ध्यान इन चीजों की तरफ भटक जाने से नमाज़ से एकाग्रता हट जाना है"  
शरह अल-नानवी 2/266

अब सोच के देखिए कि क्या इस हदीस मे किसी तरह के जानवर से स्त्री की तुलना की जा रही है ?  हरगिज़ नहीं, क्योंकि जानवरों को देखकर नमाज़ी का ध्यान एक अलग कारण से भटकेगा और इसके विपरीत स्त्री को सामने देखकर बिल्कुल ही अलग कारण से .

न ही इस हदीस मे किसी भी तरह किसी स्त्री का अपमान किया गया है , बल्कि यहां तो स्त्री के सौन्दर्य के कारण नमाज़ी का ध्यान भटकने की आशंका व्यक्त की गई है, ये तो स्त्री जाति के सौन्दर्य की प्रशंसा ही है, उसका अपमान नहीं .


16  स्त्री का सम्मान तय करते है संस्कार . और संस्कारों को तय करता है धर्म 
देश मे इतनी अधिक संख्या मे बलात्कार क्यों हो रहे हैं ?  क्या सिर्फ कानून का कमजोर होना ही इसकी एकमात्र वजह है ? फिर ये सवाल उठता है कि कानून तो देश के उन हज़ारों सभ्य पुरुषों के लिए भी कमज़ोर है जो बलात्कार क्या स्त्रियों पर गलत नजर तक नहीं डालते.  क्या वे सभी मर्द नही ?

असल बात ये है कि कानून की बात दीगर रही, अहम बात है बचपन से मिलने वाले संस्कार, जो व्यक्ति की अच्छी या बुरी शख्सियत बनाते हैं.  अगर किसी लड़के को बचपन से पराई स्त्रियों का सम्मान करना सिखाया जाता है, तो वो बड़ा होकर ऐसा ही करेगा, और अगर किसी के मन मे बचपन से ये बात बैठ जाए कि औरत केवल भोगने की चीज है, तो फिर वो बड़ा होकर औरत के शरीर पर ही भूखी नजर डालेगा औरत की गरिमा पर नहीं.

तो ये संस्कार हमें धर्म से मिलते हैं, और भाग्य से हमारे देश का लगभग हर व्यक्ति किसी न किसी धर्म मे आस्था जताता है.  फिर हमारे देश मे इतनी बड़ी संख्या मे बलात्कार क्यों ?

असल मे देखने को मिलता है कि बलात्कार और व्यभिचार जो कि बलात्कार तक पहुंचने का चोर दरवाज़ा है, उसे किसी अन्य धर्म ने उतने स्पष्ट ढंग से जघन्य पाप नहीं बताया जितने स्पष्ट ढंग से इस्लाम ने बताया है, और न ही व्यभिचार और बलात्कार पर उतने कठोर दण्ड निर्धारित किए जितने इस्लाम ने,  या तो अन्य धर्म इन विषयों पर मौन रहते हैं, या हल्के दण्ड की बात करते हैं, बल्कि कई बार तो विरोधाभासी बातें भी इन विषयों मे धर्म कर देते हैं यानि कुलीन स्त्रियों के बलात्कार को महापाप, और निम्नवर्गीय या शत्रु पक्ष की स्त्रियों के बलात्कार को शौर्य बता देते हैं. कई बार प्रेम प्रकरण आदि मे विवाह पूर्व छल से स्त्री का शील भंग करना भी स्वीकार्य मानते हैं,  ये परिभाषाएं और वर्गीकरण पूरी तरह गलत और समाज के लिए घातक हैं. क्योंकि कहीं न कहीं इन बातों से यही शिक्षा जाती है कि स्त्री भोग की वस्तु है. बहुत बार पतिव्रत धर्म के बहाने जब स्त्री से पति के हर अत्याचार को चुपचाप सह लेने की अपेक्षा की जाती है, और घर की स्त्रियाँ दुख और अपमान सह कर भी विरोध न कर के इन बातों को भुलाकर सामान्य व्यवहार करती रहती हैं, तो उन घरों मे पलने बढ़ने वाले बच्चे यही सीखते हैं कि स्त्री पुरुष की ऐसी गुलाम होती जिसमें एहसास नहीं होते, अच्छी स्त्रियों पर अपमान और हिंसा का असर नहीं पड़ता ये सोच भी समाज मे होना स्त्रियों की सुरक्षा के लिए बहुत घातक है .

इस मामले मे हम देखते हैं कि इस्लाम पत्नियों से भी नरमी का व्यवहार करने की शिक्षा मुस्लिमों को देता है ताकि बच्चे स्वस्थ माहौल मे पलें बढ़े और इस्लाम शत्रु की स्त्री को भी उतना ही सम्मान देने की अपेक्षा एक मुस्लिम से करता है जितना सम्मान वो मुस्लिम अपनी मां व बहन को देता है ।

फिर इन धार्मिक कानूनों का सख्ती से पालन हो इसलिए परलोकवाद पर और स्वर्ग नर्क पर विश्वास करना ज़रूरी है ताकि व्यक्ति को हमेशा ये एहसास रहे कि उसका कोई भी पाप या पुण्य ईश्वर से छिप नहीं सकता भले ही वो देश के कानून से छिप जाए, और यदि व्यक्ति कोई गम्भीर पाप कर के दुनिया के कानून से बच भी जाएगा तब भी ईश्वर की अदालत मे पहुंचने पर वो नर्क के बड़े कष्टप्रद दण्ड का भागी बनेगा,  इस आस्था के कारण व्यक्ति खुद को कुकर्म करने से भरसक रोकेगा .

पर आश्चर्य है कि व्यभिचार और बलात्कार आदि के दोषी को नर्क मे दण्ड के विषय मे इस्लाम के अतिरिक्त कहीं स्पष्ट वर्णन नही मिलता.  इसीलिए हमारे देश के बहुत से व्यक्ति बलात्कार को एक छोटी सी बात मानने की भूल कर बैठते हैं, जबकि बलात्कार के कारण किसी स्त्री का पूरा जीवन नर्क से बदतर हो जाता है ।

अस्ल मे धर्म मे स्पष्ट विधानों का न होना एक बहुत बड़ा कारण है जिससे आज हमारे देश मे बहू बेटियों की सुरक्षा इस कदर खतरे मे पड़ी हुई है ।


17  इस्लाम मे पुरुषों को एक से आधिक विवाह की अनुमति मोज मस्ती के लिए नहीं है 
एक मित्र ने सवाल पूछा है कि इस्लाम मे पुरुष को बहुविवाह की अनुमति क्यों दी गई है, और जब एक मुस्लिम एक समय में सिर्फ चार पत्नियां रख सकता है तो नबी ﷺ ने 12 विवाह क्यों किये ?

इस्लाम मे पुरूष को अनेक विवाहो की अनुमति की बात सुनकर लोग इसे पुरूषों की मौज मस्ती से ही जोड़कर देखते हैं.  पर वास्तव मे ऐसा नही है. रसूल करीम ﷺ के ज़माने में जब युद्ध में अनेक मुसलमान मारे गये और उनकी विधवा औरतों ,और उनकी लड़कियों के आगे जीवन यापन का संकट खड़ा हो गया,
और क्योंकि युद्ध मे बड़ी संख्या मे मारे जाने के कारण मुस्लिम पुरूषों की संख्या मुस्लिम स्त्रियों के मुकाबले काफी कम हो गई थी, इसलिए तब उन बेसहारा विधवाओं और लड़कियों को सहारा देने के लिए यह व्यवस्था दी गयी थी कि एक मुस्लिम पुरुष एक से अधिक उतनी स्त्रियों से विवाह कर ले जितनो का वो भरण पोषण कर सके, ये विवाह भी तब हो सकता है जब पुरुष की पहली पत्नी को इस विवाह से कोई आपत्ति या तकलीफ न हो.  इसी व्यवस्था के तहत नबी ﷺ ने भी बहुविवाह किये. नबी ﷺ ने हज़रत आयशा सिद्दीका रज़ि० के अलावा जितनी भी स्त्रियों से विवाह किये उनमे कोई भी स्त्री कुँवारी नही थी, बल्कि वे विधवा थीं या तलाकशुदा थीं. फिर नबी ﷺ से विवाह बहुत सम्मान की भी बात थी स्त्रियों के लिये इसलिये भी नबी ﷺ को ज़्यादा विवाह प्रस्ताव भेजे गए जिन्हें नबी ﷺ ने स्वीकार कर लिया. ये नियम कि एक पुरुष सिर्फ चार स्त्रियों से एक समय में विवाह सम्बन्ध रख सकता है, ये हमारे भारतीय संविधान के मुस्लिम पर्सनल लॉ में निर्धारित नियम है,  इस्लाम में पत्नियों की तय संख्या नही बताई गई बल्कि जितनी स्त्रियों का भरण पोषण एक मुस्लिम व्यक्ति कर सके एवं जितनी स्त्रियों को एक साथ रखकर पत्नी के सभी अधिकार दे सके वो उतनी पत्नियां रख सकता है. इतिहास में मुस्लिम बादशाहों नवाबों आदि के बहुत से उदाहरण भारत में भी हैं जिनकी चार की संख्या से अधिक, यानि सात, आठ या इनसे भी अधिक पत्नियां एक ही समय में थीं .

अत: स्पष्ट है कि इस्लाम में एक से अधिक शादी की व्यवस्था मौज मस्ती के लिए नहीं, बल्कि गरीब, विधवा, तलाकशुदा, अनाथ बेसहारा औरतों को सहारा देने के लिए दी गई है .

जिन लोगों को ये लगता है कि अनेक स्त्रियों से विवाह करने की अनुमति मुस्लिम पुरूषों की मौज मस्ती के लिए है, वे ध्यान दें कि मौज मस्ती के लिए पुरुष द्वारा एक से अधिक विवाह करने की स्थिति तो तब बनेगी, जब पुरुष अन्य स्त्रियों के सम्पर्क मे आए, उनके रूप सौन्दर्य पर मोहित हो जाए, लेकिन क्योंकि इस्लाम मे गैर स्त्री पुरूषों के आपस मे अनावश्यक ढंग से घुलने मिलने, और अकारण गैर स्त्री पुरुष की ओर नजर उठाकर देखने की भी मनाही है इसलिए एक प्रैक्टिसिन्ग मुस्लिम व्यभिचार या दूसरी शादी के बारे मे सोच भी नहीं सकता, बल्कि उसके लिए तो दुनिया की सबसे सुंदर औरत उसकी अपनी पत्नी ही होगी .

तो जिस समाज मे स्त्री पुरुष का घुलना मिलना आम हो वहीं मौज मस्ती के लिए लोग पहली पत्नी को नाराज कर के दूसरी शादी कर लेते हैं, न कि इस्लामी व्यवस्था मे ।  भले ही भारत मे मुस्लिम पुरूषों के लिए एक से अधिक स्त्रियों से विवाह की कानूनन अनुमति हो, पर मैंने अपने जीवन मे आज तक किसी प्रैक्टिसिन्ग मुस्लिम को एक से अधिक विवाह किए हुए नहीं देखा.  हां वे मुस्लिम जो इस्लाम से दूर रहकर बेरोक टोक पराई स्त्रियों से घुलते मिलते थे उन्हीं मे एक समय मे एक से अधिक विवाह के मामले देखने मे आए, ठीक इसी कारण से कि लोग पराई स्त्रियों मे घुलते मिलते थे हिन्दू समाज के पुरूषों द्वारा भी एक समय मे एक से अधिक शादियों के मामले मैंने देखे.  जबकि भारतीय हिंदू विधि मे पुरूष का एक समय मे एक से अधिक विवाह करना कानूनन अपराध की श्रेणी मे रखा गया है 

खैर इस्लाम मे पुरुष द्वारा एक से विवाह की व्यवस्था देने का कारण था कि तलाकशुदा और विधवा स्त्रियों को जीवन यापन का सहारा मिल जाए, फिर चाहे उनसे कुंवारे पुरुष शादी कर लें या शादीशुदा पुरुष   और इस आदर्श को मुस्लिम युवक अब भी निभाते हैं, क्योंकि अब इतिहास की तरह मुस्लिम पुरूषों की संख्या की कोई कमी नहीं है. अत: आज के समय मे अपने आसपास मैने बहुत से कुंवारे मुस्लिम पुरूषों को तलाकशुदा और विधवा स्त्रियों से विवाह करते और उस विवाह को निभाते देखा है ॥


18  इस्लाम मे बहुपत्नी की इजाज़त क्यों
इस्लाम मे बहुपत्नि प्रथा के विषय मे ये कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि क्योंकि उस समय मुस्लिम पुरुष बड़ी संख्या मे युद्ध मे मारे गए थे जिस कारण मुस्लिम पुरूषों की तादाद मुस्लिम महिलाओं के मुकाबले बहुत कम हो गई थी जिस कारण हर शादी लायक महिला को अकेला या कुंवारा पुरुष नही मिल सकता था, इस कारण एक पुरुष का एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करना पूरी तरह तर्कसंगत था.  और क्योंकि जिस ज़माने मे अरब मे इस्लाम का नुज़ूल हुआ वहाँ के मर्द अनेक औरतों से शादी करते ही थे. लड़कियों के दिमाग मे बचपन से ही ये बात बैठी होती थी कि उनके होने वाले शौहर उनके साथ और कई लड़कियों से भी जरूर ही शादी करेंगे, क्योंकि ये सारे समाज का हाल था इसलिए औरतों को अपने पति की अनेक शादियों से विशेष आपत्ति नही होती थी, उन्होने इस बात को मानसिक तौर पर स्वीकार कर रखा था कि उनके पति जब मरजी हो दूसरी शादी कर सकते हैं, अत: यदि उन स्त्रियों की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक आवश्यकताएं पूरी होती रहती थीं तो वे अपने पति की अनेक शादियों को अपने अधिकारों के हनन के रूप मे नही देखती थीं, और प्रसन्न रहती थीं 

जब इस्लाम मे पुरुष द्वारा एक से अधिक विवाह पर सवाल कर रही कुछ बहनों से मैंने ये कहा कि इस्लाम में एक से अधिक शादी की व्यवस्था मौज मस्ती के लिए नहीं, बल्कि उन बेसहारा औरतों, जिनका भला सोचने वाला सगा सम्बन्धी जीवित नहीं बचा था, उन को सहारा देने के लिए खुद पुरुषों का आगे आना सुनिश्चित हो जाए, इसके लिए है , तो वे बहनें मुझसे कहने लगीं कि मुस्लिम पुरुष उन बेसहारा स्त्रियों को क्या उनका बाप और भाई बनकर सहारा नहीं दे सकते थे, जो एक साथ अनेक औरतों से विवाह की व्यवस्था बनानी पड़ी? अस्ल बात तो ये है कि पुरूषों को बेसहारा स्त्री को सहारा देने की कीमत भी उन स्त्रियों से अपनी हवस की आग बुझा कर चाहिए थी, 

लगता है उन बहनों ने ये कल्पना कर ली थी कि बेसहारा और बेघर स्त्रियों को अपने घर मे शरण देने के एवज मे मुस्लिम पुरुषों ने उन स्त्रियों की इच्छा के विरुद्ध उनसे विवाह कर लिए 
लेकिन ये उन बहनों की कल्पना मात्र ही है, क्योंकि इस्लाम मे बिना स्त्री की इच्छा के उसपर गलत नजर डालना भी हराम है, उनके शरीर को छूने की बात तो दूर ही रही 

बेघर लड़की को कोई पुरुष अपने घर मे शरण दे, तो भी उस लड़की की इच्छा के विरुद्ध पुरुष उससे विवाह नहीं कर सकता 
और एक मुसलमान होने के नाते उसे उस लड़की को भी अपनी बहन बेटी सा ही सम्मान देना होगा.  समझने वाली बात तो ये है कि क्या जो सगे ही बाप और भाई होते हैं ,वो अपनी बहन बेटियों से अधिक प्रेम के नाम पर उन की शादी नही करते ? क्या उन्हें जीवन भर घर बिठा के रखते हैं ?

जी नहीं बहन बेटी से मोहब्बत का तकाज़ा ये है कि अच्छे पालन पोषण के बाद किसी सुयोग्य वर से उसका विवाह कर के उसका सुखद भविष्य भी सुनिश्चित कर दिया जाए.  लेकिन जब इस्लाम ने अनाथ बेसहारा हो गई लड़कियों का विवाह करा कर उनका सुखद भविष्य सुनिश्चित करने का आदेश मुस्लिमों को दिया तो गलत तरीके से बात को सोचकर हमारी कुछ बहने बुरा मान गईं

इस्लाम ये नही कहता कि जो पुरुष जिस बेसहारा लड़की को सहारा दे, उसी से बिना उस लड़की की इच्छा के विवाह कर ले, बल्कि इस्लाम तो मुसलमान को ये शिक्षा देता है कि जिन मुस्लिम लड़कियों के मां बाप भाई और सगे सम्बन्धी युद्ध मे मारे गए, और वे लड़कियां अकेली हो गईं तथा उनकी चिंता करने वाला कोई न रहा, तो ऐसी बेसहारा लड़कियों को समर्थमुस्लिम सहारा दें, इन लड़कियों को सहारा देने वाला पुरुष बेसहारा लड़की को अपने घर की स्त्रियों के संरक्षण मे दे दे, और उनको अच्छा खिलाये पहनाये, तथा उनको अच्छी तालीम दिलाये फिर जब वो लड़कियां शादी लायक हो जाएं तो जहाँ उन लड़कियों की इच्छा हो वहीं उन की शादी करवा दी जाए, अब क्योंकि सहारा देने वाला पुरुष वास्तव मे तो उन लड़कियों का बाप या भाई नही है इसलिए वो पुरुष भी उस समय उन लड़कियों के समक्ष अपना विवाह प्रस्ताव भेज सकता है, और लड़की चाहे तो उससे अपनी इच्छा से विवाह कर भी सकती है.  इसके साथ ही इस्लाम ने उन स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रेरित किया जिन स्त्रियों के पति युद्ध मे मारे गए थे या जिन स्त्रियों को उनके मुस्लिम हो जाने के कारण उनके गैर मुस्लिम पतियों ने त्याग दिया था, वे स्त्रियाँ अपने मां बाप के घर लौट आई थीं. और एकाकी जीवन काट रही थीं, उस समय उनसे विवाह करने लायक युवा मुस्लिम पुरुष भी मुस्लिम समाज मे नही बचे थे

अत: इस्लाम ने मुस्लिमों को यही आदेश दिया कि ऐसी बेसहारा हो गई तलाकशुदा अथवा विधवा गरीब स्त्रियों के घर मुस्लिम पुरुष विवाह का प्रस्ताव भेज दें.   या इन स्त्रियों के घर से यदि किसी मुस्लिम पुरुष के घर विवाह का प्रस्ताव आए तो उस प्रस्ताव को पुरुष स्वीकार कर लें. इसमें क्या बुराई है ?


19  बहुविवाह और पत्नियों के साथ न्याय का प्रश्न
कुछ महीनों पहले इस्लाम मे बहुविवाह की अनुमति पर पोस्ट करते समय मैंने ये लाइन भी उसमें शामिल करी थी कि दूसरी शादी मर्द तभी कर सकता है जब उस की पहली पत्नी को इस विवाह से कोई आपत्ति या तकलीफ न हो.  इस बात पर कई मुस्लिम भाईयों ने मेरा विरोध किया कि दूसरी शादी के लिए पुरुष को पहली पत्नी की इजाज़त की कोई जरूरत नही है, और मै लोगों को गलत संदेश दे रहा हूँ. आज फिर ये बात उठी तो मै समझता हूँ कि इस मुद्दे पर इस्लाम की शिक्षा से मैने जो सीखा है वो स्पष्ट कर दूं, 

कुछ सम्मानित धार्मिक विद्वानों की राय के अनुसार क्योंकि हदीस या कुरान मे दूसरी शादी के समय पहली पत्नी की अनुमति लेने का कोई साक्ष्य नहीं है, इसलिए मुस्लिम को ऐसा करने की आवश्यकता भी नही.

हो सकता है कि इन विद्वानों की ये राय कुछ देशों के लिए तो ठीक हो , मगर यही राय भारत समेत कई देशों के लिए बिल्कुल अनुपयुक्त ही सिद्ध होगी.  उसका कारण ये है कि पुराने वक्त मे मर्द चाहे कितनी शादिया करे, अगर औरत के हुकूक पूरे होते रहते थे तो उसे अपने पति की अनेक शादियो से भी फर्क नहीं पड़ता था और उसे कोई तकलीफ न महसूस होती थी, जिस ज़माने मे अरब मे इस्लाम का नुज़ूल हुआ वहाँ के मर्द अनेक औरतों से शादी करते ही थे.  लड़कियों के दिमाग मे बचपन से ही ये बात बैठी होती थी कि उनके होने वाले शौहर उनके साथ और कई लड़कियों से भी जरूर ही शादी करेंगे, क्योंकि ये सारे समाज का हाल था इसलिए औरतों को अपने पति की अनेक शादियों से विशेष आपत्ति नही होती थी, उन्होने इस बात को मानसिक तौर पर स्वीकार कर रखा था कि उनके पति जब मरजी हो दूसरी शादी कर सकते हैं, अत: उस समय पुरुष को दूसरी शादी के लिए पहली पत्नी से इजाजत लेने की भी आवश्यकता शायद न रही हो.  और जिन देशों मे पुरुष आज भी अनेक शादियां करते हैं, वहां आज भी स्त्रियाँ अपने पति की दूसरी पत्नी के स्वागत के लिए बचपन से मानसिक तौर पर तैयार रहती हैं, तो वहां के लिए बात उपयुक्त है कि पुरुष के दूसरे विवाह मे पहली स्त्री के दखल की कोई जरूरत नहीं ( किन्तु पहली स्त्री के सारे अधिकार और प्रेम उसे पहले की तरह मिलते रहने चाहिए )

खैर हम बात भारतीय मुस्लिम समाज के परिप्रेक्ष्य मे करें, तो हालात बिल्कुल ही जुदा हैं, आज भारत समेत अनेक देशों मे मर्द के एक बीवी के रहते दूसरी शादी करने को बहुत बुरी बात समझा जाता है.  आमतौर पर मर्द एक औरत के रहते दूसरी शादी करते भी नही, ऐसे मे कोई औरत ये नही सोचती कि उसका पति उसके होते दूसरी शादी कर सकता है. वो मानसिक तौर पर अपने पति की दूसरी शादी के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होती.  और कहीं मर्द अचानक ऐसा कर गुज़रे तो तो औरत को बहुत बड़ा ज़हनी सदमा पहुंचता है ये उसके लिए कोई छोटी बात नही है बल्कि उसकी पूरी ज़िन्दगी डांवाडोल हो जाती है अचानक के इस धक्के से, फिर चाहे मर्द ने कितनी ही नेकनीयती से ये काम किया हो .

इस्लाम की रूह को समझिए ... 
इस्लाम की तालीम है कि अपनी बीवी को अपने सुलूक से किसी किस्म की ईज़ा न दो.  इसलिए एक मुस्लिम को अपनी निकाही बीवी की खुशी का हर हाल मे खयाल रखना होता है.  कुरान पाक मे हुक्म है कि बीवी भली बुरी चाहे जैसी लगे, लेकिन मर्द अपनी बीवी से नेक सुलूक किया करे और,.  हदीस पाक मे भी बार बार मर्द को ये ही तालीम दी गई है कि वो अपनी बीवी की अच्छाई और बुराइयों समेत उसे स्वीकार कर उस से भला सुलूक करे.  तो क्या ये भला सुलूक होगा कि आप उससे पूछे बगैर, या उसे राजी किए बिना उसके हक का बंटवारा कर दें ? हदीस में भी आप ध्यान दें तो ये तालीम मिलती है कि अगर मर्द के दूसरे निकाह से पहली बीवी को तकलीफ़ हो तो दूसरे निकाह से मर्द को रुक जाना चाहिये, बुख़ारी शरीफ़ में कम अज़ कम दो जगह एक सी हदीसें रिवायत की गई हैं, कि हज़रत अली रज़ि० के दूसरे निकाह के लिये बनु हिशाम बिन अल मुगीरा ने अपनी बेटी के लिये अली रज़ि० का रिश्ता मांगा पर नबी ﷺ ने ये कहते हुए इस निकाह की इजाज़त देने से इनकार कर दिया कि "जो बात मेरी बेटी (फ़ातिमा रज़ि०) को तकलीफ़ दे, वो बात मुझे तकलीफ़ देगी" बुख़ारी, किताब-62, हदीस-157
दूसरी हदीस में अबु जहल की बेटी से हज़रत अली रज़ि० के निकाह की बात छिड़ने पर हज़रत फ़ात्मा रज़ि० इस बात की शिकायत नबी ﷺ करती हैं और नबी ﷺ ये फ़रमा कर उस निकाह की इजाज़त नहीं देते कि "फ़ातिमा रज़ि० जिस बात से नफ़रत करती हैं, मैं भी उससे नफ़रत करता हूँ" बुख़ारी, क़िताब-57, हदीस-76

निष्कर्ष ये है कि मर्द को दूसरी शादी करने से पहले अपनी पहली बीवी को विश्वास में लेना ही चाहिये, अगर उसका दूसरी शादी करने का कारण जायज़ होगा तो हमने ऐसी भी औरतें देखी हैं जो सहर्ष अपने पति की दूसरी शादी करवाती हैं,  हमारे भाई सम्भवत: दूसरी शादी मे पहली स्त्री को विश्वास मे लेने का खतरा इसलिए नही लेना चाहते क्योंकि पहली बीवी तो इसके लिए तैयार ही न होगी, और चार शादी करने के अल्लाह के आदेश मे शैतान की तरह रोड़ा अटका देगी. ये विचार बिल्कुल गैर इस्लामी हैं, क्योंकि अल्लाह ने मर्द के लिए आम हालात मे एक ही बीवी को पसंद फरमाया है, और बहुविवाह की सिर्फ इजाज़त है इस्लाम मे, इसका कोई सख्त हुक्म नही जिसे करना ही पड़े.  सूरह निसा की आयत 2-3 पढ़िए, पहले तो बगैर बेसहारा औरतों से शादी किए उनकी मदद करने का हुक्म है फिर अगर किसी को ये लगे कि वो इस तरह से उन औरतों, लड़कियों की मदद नही कर पाएगा तो उनमें से जो पसंद हों उनमें से 2,3 या 4 लड़कियों से शादी कर ले, फिर इन्हीं आयतों में आगे ये भी लिखा है कि लेकिन अगर ये डर हो कि उनके साथ एक सा सुलूक न कर पाओगे, तो बस एक शादी करो, और एक शादी मे इन्साफ की ज्यादा सम्भावना है. तो देेखिए, ये आयतें बिना ज्यादा शादियां करे उन बेसहारा औरतों की मदद करने की तालीम पर शुरू होती हैं, और एक शादी की वकालत पर खत्म होती है .

एक से ज्यादा शादी की अनुमति तो अल्लाह ने किसी मजबूरी की अवस्था में, या आदमी की नफ्स की कमजोरी के कारण दी है इस हिदायत के साथ कि वो सारी पत्नियों के साथ एक समान व्यवहार करे, लेकिन सारी पत्नियों के साथ पूरी तरह एक सा व्यवहार करना भी मुश्किल है ये भी अल्लाह ने सूरह निसा की आयत 129 मे बता दिया है

4:129 "तुम चाहे कितनी भी कोशिश कर लो, दो पत्नियों के बीच पूरी तरह इन्साफ का सुलूक नहीं कर सकते , लेकिन ऐसा भी न करना कि एक पत्नी ऐसी हो जाए जैसे उसका पति खो गया हो

ज़ाहिर है एक से ज्यादा शादी की इजाज़त पसंदीदा नहीं है जिसमें किसी न किसी औरत के साथ नाइन्साफी की नौबत जरूर आती है, पर क्योंकि उस वक्त मुसलमान मर्द कम थे तो मजबूरी मे ही एक मर्द को कई बीवियां रखनी पड़ीं.  लेकिन आम हालात मे एक मुसलमान को अपनी बीवी का किसी भी तरीके से दिल नहीं दुखाना चाहिए, क्योंकि ईमान मे मुकम्मल होने, और मुसलमानों मे बेहतर मुसलमान बनने के लिए ज़रूरी है कि मर्द अपनी बीवी को खुश रखे .

नबी ﷺ ने फरमाया, "ईमान में सबसे ज्यादा मुकम्मल वह आदमी है जिसकी आदत और अख्लाक सबसे अच्छें हों तथा तुम मे सबसे बेहतर वो है, जो अपनी बीबी के साथ सबसे अच्छा बर्ताब करता हो।"
अल-तिरमिज़ी 628

फिर ध्यान दीजिए सूरह निसा की आयत पर जहां अल्लाह पाक का फरमान है कि अगर मर्द को ये अंदेशा है कि वो एक से ज्यादा बीवियों के साथ इन्साफ से काम नही ले सकेगा तो वह एक ही बीवी रखे,  तो दूसरी शादी के मामले मे पहली बीवी की राय और मर्जी को जानना बिल्कुल जरूरी न समझना क्या पहली बीवी के साथ इन्साफ की बात होगी ? ये तो दूसरी शादी होने के पहले ही पहली बीवी के साथ नाइन्साफी का सुलूक करने पे आमादा होने वाली बात हो गई .

आज के दौर मे किसी बेवा तलाकशुदा औरत को सहारा देना चाहे, तो आदमी को चाहिए कि उसके लिए नेक अकेला, विधुर या तलाक़शुदा ही मुसलमान मर्द ढूंढ कर उनकी शादी करवा दे.  क्योंकि आज मुसलमान मर्द तादाद मे कहीं कम नही हैं, लेकिन फिर भी अगर कोई अकेला मर्द इस नेकी के लिए न मिल पाए, तो जो भी शादीशुदा मर्द दूसरी शादी करने चले वो पहले अपनी पहली बीवी को पूरी तरह विश्वास मे ले और पत्नी की अनापत्ति के बाद ही विवाह करे.   यही एक अच्छे मुसलमान का आचरण है .


20  कोन सा धर्म देता देता है एक पत्नी का आदेश 
एक सवाल इण्टरनेट पर बहुत दिनों से घूम रहा है :-
इसलाम मे १ आदमी बहुत औरते रख सकता है, पर १ औरत बहुत आदमी क्यों नहीं.  क्यों भाई धर्मं को तो ये सिखाना चाहिए कि एक ही औरत रखो, उस से प्रेम करो, परायी नारी पर नजर मत डालो। खैर ये तो हिन्दू धर्मं सिखाता है

मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि अपने धर्म के बारे मे मेरे हिन्दू भाई इतने अज्ञानी कैसे हो सकते हैं कि वो ये कहें कि हिन्दू धर्म एक पत्नी रखने की बात सिखाता है ?  मेरे भोले भाईयों, आपको पता होना चाहिए कि हिंदू धर्म कहीं भी एक पत्नी की वकालत नहीं करता. आज यदि हिंदू एक पत्नी कानून से चलते हैं, तो इस कानून का पूरा का पूरा श्रेय, हमारे देश के संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर जी को जाता है, जिन्होंने देश की हिन्दू विधि मे हिन्दुओं को केवल एक पत्नी रखने का कानून बनाया, इससे पहले हिंदू पुरूषों के लिए पत्नियो की कोई निर्धारित संख्या नहीं थी और वे असीमित संख्या मे स्त्रियों से विवाह कर सकते थे.  और अधिकांश ऐसा होता था कि एक बार विवाह कर के पुरुष कभी अपनी उस पत्नी की ओर दोबारा पलटकर नहीं आता था, क्योंकि वो अपनी नई नई पत्नियो के साथ आनंद लेने मे व्यस्त रहा करता था. इस कारण भारतीय स्त्रियों की बड़ी शोचनीय दशा थी. बाबा साहब ने स्त्रियों के इस शोषण को रोकने के लिए ही हिंदू पुरूषों को केवल एक पत्नी रखने का कानून बनाया .

जिन भाईयों को ये भ्रम हो गया हो कि उनका धर्म एक पत्नी की शिक्षा देता है, उन्हें एक बार महाभारत के पाण्डवों की निजी पत्नियो की संख्या, रामायण के दशरथ की समस्त पत्नियो की संख्या और श्रीकृष्ण जी की समस्त पत्नियो की संख्या के बारे मे जरूर ज्ञात करना चाहिए.  और बहुपत्नी का विधान गलत नहीं है यदि न्यायपूर्वक चला जाए ॥

और रही बात इस्लाम की तो आपको ये जानना ज़रूरी है कि इस्लाम मे भी एक से ज्यादा शादी की इजाज़त पसंदीदा नहीं है,  क्योंकि खुद कुरान कहता है कि बहुपत्नी प्रथा में किसी न किसी औरत के साथ नाइन्साफी की आशंका सदा बनी रहती है, पर क्योंकि उस वक्त मुसलमान मर्द कम थे तो मजबूरी मे ही एक मर्द को कई बीवियां रखनी पड़ीं .

परंतु उस पर भी बड़ी ताकीद के साथ अल्लाह ने उसी आयत मे, जहाँ पुरुष को एक से अधिक विवाह की अनुमति दी, वहीं ,यानी सूरह निसा की तीसरी आयत मे ही ये भी फरमा दिया कि अगर पुरुष को ये डर हो कि वो अपनी हर बीवी के साथ एक सा सुलूक न कर पाएगा, तो वो बस एक शादी करे, एक शादी करने मे इन्साफ की ज्यादा सम्भावना है ॥

यानी कुरान मे बड़ी स्पष्टता के साथ बता दिया गया है कि बहुपत्नी की अनुमति अय्याशी की खातिर नहीं बल्कि निराश्रित स्त्रियों का आश्रय बनने की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी के तहत दी गई है, और इस जिम्मेदारी को वो ही उठाए जिसमें न्याय करने की पूरी क्षमता और सामर्थ्य हो,  और जिस व्यक्ति को अपने पर थोड़ा भी संदेह हो, कि वो न्याय पर कायम नहीं रह सकेगा, तो वो दूसरा विवाह करने की सोचे भी नहीं, और अल्लाह का ये आदेश सदा अपने ध्यान मे रखे कि वो बस एक शादी करे, और एक शादी मे इन्साफ की ज्यादा सम्भावना है .

जी हां, यदि एक पत्नी का आदेश देने वाले धर्म का पता लगाया जाए , तो निश्चित ही वो धर्म इस्लाम ही मिलेगा जिसमें अल्लाह ने स्पष्ट आदेश दिया है अपने भक्तों को कि बस एक शादी करो, और एक शादी मे इन्साफ की ज्यादा सम्भावना है ॥




21  इस्लाम मे बहुपती की अनुमति क्यों नहीं 
Kuch logo ko Islam ki is baat pe aitraz hai ki Islam aadmi ko to ek waqt me ek se zyada aurato se shadi ki ijazat deta hai magar aurat ko sirf ek he pati ke sath guzara karne pe majboor karta hai 

Mai un aitraz krne walo se kahna chahta hu ki Islam ka koi niyam na-insafi wala nahi bas kam buddhi wale log in niyamo ka karan nhi samajh pate aur in niyamo ki acchai nhi dekh paate 

Aap ek nyaysangat niyam aadmi aur aurat dono ke liye samaan rup se rakh kr sochiye ki, Koi aurat ek samay me jitne purusho ke prati kartawya nibha sakti hai (sharir se santusht karna, purush ko uska wanshaj dena, purush ke ghar ki dekhbhal krna ) kewal utno se shadi kare yahi niyam purusho ke liye bhi ho ki ek samay me purush jitni aurato ke prati apne kartawya nibha sake (sharir sukh dena, patni ka bharan poshan karna aur santaan ki zimmedari uthana ) utni aurto se vivah kar le us se zyada nhi

ek se zyada maan lijiye 5 patiyo ki eklauti patni jab kisi ek pati se garbhvati hogi to baaki ke chaar patiyo ko wo kaise sharir sukh degi ? aur uske pati bina kisi faayde ke 9-10 maheene ke sharir sukh se wanchit rahna kyu sweekarnge? is sthiti me to aisa bhi ho sakta hai ki har pati 4 saal me bas ek baar patni se sambandh bana paay

aaj to dna test hai pichhle zamano ki socho us waqt ye faisla kaise hota ki eklauti bivi se jo baccha paida hua wo 5 admiyo me se kiska hai aur kaun usko paalne ka kharch uthayega ? is tarah aadmi to bacche ko dusre ka bata ke palla jhaad leta aur aurat he jhak maar ke apne saare patiyo ki karni bharti

to ek samay me aurat ek se zyada patiyo ke prati kartawya pury kar he nahi sakti, jabki aadmi ek wakt me ek se zyada aurato ke prati kartawya pury kar sakta hai
isliye Islam aurat ko ek samay me ek he purush se shadi ki agya deta hai, 
Aur Islam kisi aurat ko anek shadiyan karne se bhi nahi rokta bas ek baat sunishchit ho ki kisi naye purush se shadi krne ke liye stree pahle pati ko talaq de de aur talaq de de kar anek shadiyan kar dale koi baat nhi

नोट :- यहां मैंने केवल विवाह संस्था मे पति पत्नी के कर्तव्य और अधिकारों की चर्चा की है , न कि स्त्री और पुरुष के सारे जीवन के उद्देश्यों या उपयोगिता की, अत: ये कुतर्क न ही करें कि इस्लाम स्त्री को केवल भोग की वस्तु और बच्चे पैदा करने की मशीन मानता है ॥

इस्लाम ने स्त्री को मां, बहन, बेटी, नर्स, गुरु और धर्म गुरु, बिजनेस वुमेन और पत्नी की अनेक भूमिकाओं मे पूरा सम्मान और असंख्य अधिकार सौंपे हैं, उनमें से केवल एक भूमिका "पत्नी" की यहाँ चर्चा की गई है, और स्पष्ट है इस भूमिका की चर्चा करते समय शरीर सुख और वंश वृद्धि का जिक्र होगा ही क्योंकि ये बातें विवाह के मुख्य उद्देश्यों मे सम्मिलित हैं, और न सिर्फ स्त्री बल्कि पुरुष भी स्त्री को शरीर सुख और संतान देता है, अत: शब्दजाल न फैलाइए, इस्लाम के कानूनों मे कोई बेचारा या बेचारी नहीं होता ।

एक बात और, हर समाज के कुछ कानून हैं, व्यक्ति को इन्हीं कानूनो के दायरे मे रहकर व्यवहार करना होता है,समाज बहुपत्नी को स्वीकार लेता है इस कारण पत्नियां भी अपने पति के दूसरे विवाह को सहमति दे देती हैं, पर बहुपति को कोई समाज स्वीकृति नहीं देता (इसकी मनाही के कारण भी तर्क संगत हैं ) इस कारण पति भी अपने रहते अपना सौता नहीं स्वीकार सकते .


22  पवित्र क़ुरआन और विवाहित दास स्त्रियां
बहुत से लोगों को मैंने पवित्र कुरान की सूरह निसा की इस आयत को लेकर कि "मुस्लिमों के लिए तमाम विवाहित स्त्रियाँ हराम हैं , सिवाय (युद्ध मे) कब्जे मे आई हुई विवाहित स्त्रियों के" इस्लाम पर ये आरोप लगाते देखा है कि इस्लाम मुस्लिमों को युद्ध मे जीती गई स्त्रियों के "बलात्कार" करने की खुली छूट देता है .

हालांकि ये सत्य नही है, बलात्कार वो होता है जब कोई व्यक्ति विवाह से इतर किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उससे जबरन यौन सम्बन्ध बनाता है, इस्लाम के नियमों का ऐसी किसी स्थिति को अनुमति देने से दूर दूर तक का वास्ता नही है.  वास्तव मे कुरान मजीद मे सूरह निसा की आयत 22,23 और 24 मे उन स्त्रियों का ज़िक्र है जिनसे एक मुस्लिम पुरुष का विवाह करना हराम यानि सख्ती से निषेध है, एवं इनके अतिरिक्त बाकी स्त्रियों से विवाह करना वैध है ॥

4:24 मे लिखा है कि तमाम विवाहित स्त्रियों से विवाह करना हराम है, सिवाय विवाहित गुलाम स्त्रियों के, यानि विवाहित दासी से विवाह करना जायज़ है इस्लाम मे . 

परंतु ऐसा क्यों ? जबकि इस्लाम मे तमाम विवाहिता स्त्रियाँ शादी के लिए हराम हैं, तो विवाहित दासियां हलाल क्यो ? ऊपरी तौर पर देखने से ये बात अन्याय भरी लगती है, और ये बात गले से नही उतरती कि जब एक विवाहिता स्त्री का दोबारा तभी विवाह हो सकता है जबकि उसका पहला पति उसको तलाक दे चुका हो, अथवा मर चुका हो, तो फिर गुलाम स्त्री के मामले मे अलग कानून किसलिए ?  लेकिन जब हम मामले का थोड़ी गहराई से अध्ययन करते हैं तो मामला साफ हो जाता है कि ये केस बाकी केसेज़ से अलग नहीं बस हमारी समझ का फेर है 

जो लड़कियां गुलाम हुआ करती थीं, इस्लाम के विधान आने से पूर्व के लोग उनसे जिस्मानी ताल्लुक तो बनाते थे पर उनसे विवाह नही करते थे, विवाहिता दासी सिर्फ वो स्त्रियाँ होती थीं जिन्हें युद्ध मे उनकी सेना की पराजय के बाद गुलाम बना कर अरब के गैर मुस्लिम उन स्त्रियों की इच्छा अनिच्छा की चिंता के बगैर उनसे हर प्रकार का काम लेने के साथ ही साथ उनके शारीरिक शोषण भी किया करते थे.  इन्हीं लोगों से जब मुस्लिमों के युद्ध हुए और उन युद्धों मे मुस्लिमों की जीत हुई तो युद्ध मे शामिल हुई विवाहित यहूदी और मुश्रिक (बहुदेववादी) स्त्रियाँ मुस्लिमों की गिरफ्त मे आ गईं. यानि इन्हीं मुश्रिक और यहूदी स्त्रियों के साथ मुस्लिमों का विवाह करना वैध बताया गया है जबकि वो स्त्रियाँ मुस्लिम पुरूषों से विवाह करने के लिए स्वयं इच्छुक हों, जैसा कि आप जानते हैं कि मुस्लिम विवाह मे वर और वधू, दोनों की स्वतंत्र अनुमति ली जानी आवश्यक है , 

लेकिन विवाहिता गुलाम स्त्री से विवाह करने के लिए एक शर्त और भी है.  सर्वशक्तिमान अल्लाह पवित्र कुरान मे आदेश देता है कि एक मुस्लिम पुरुष किसी मुश्रिक स्त्री से विवाह नही कर सकता, जब तक कि वो स्त्री ईमान न ले आए, एक मुश्रिक स्त्री से विवाह करने से बेहतर है कि एक ईमान वाली, अर्थात् मुस्लिम दासी से विवाह कर लिया जाए ॥ कुरआन, 2:221

और यही हुक्म पवित्र कुरान 4:25 में भी दिया गया है कि ईमान वाली, यानि मुस्लिम दासियों से ही विवाह किया जाए, अर्थात् 4:24 मे विवाहिता दासी के एक मुस्लिम से पुनर्विवाह के लिए हलाल (वैध) होने की अनुमति तभी के लिए है जब वो अपनी खुशी से मुसलमान हो गई हो 

और उन औरतों के मुसलमान होने के बाद उनके मुश्रिक और यहूदी पतियों उनका से विवाह खुद ही टूट जाएगा.  यानि विवाहिता दासी का केस ऐसा ही है जैसे किसी तलाकशुदा अथवा विधवा स्त्री से विवाह किया जाता है !!


23  इस्लाम मे बिना विधिवत विवाह के दास स्त्रियों से शारीरिक सम्बन्ध बनाने की अनुमति क्यों थी
प्रारम्भिक दौर के इस्लाम की एक व्यवस्था पर एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि प्राचीन समय मे मुस्लिमों को बिना विधिवत विवाह के अपनी दासी से शारीरिक सम्बन्ध बनाने की अनुमति क्यों दी गई थी?  क्या ये किसी स्त्री का शोषण और व्यभिचार नही ? आइए इसका उत्तर जानने की कोशिश करते हैं .

सोचिए कि आपके शहर का रेड लाइट एरिया बंद करवा दिया जाए और आपसे कहा जाए कि उन शरीर बेचने वालियों से आप शादी कर के उनके जीवन यापन का सहारा बन जाएं तो कितने लोग राज़ी होंगे इसके लिए ?  सोच मे पड़ गए न ?

प्री इस्लामिक अरब समाज मे दो प्रकार की दासियां होती थीं एक तो वे जो या तो किसी गुलाम स्त्री से पैदा होने के कारण जन्म से ही गुलाम होती थीं या फिर किसी गरीब और जाहिल घराने मे पैदा होती थीं और अपने ही घरवालों द्वारा बचपन मे ही बेच दी जाती थीं, और ये प्रचलित था कि गुलाम की अपनी कोई इच्छा अनिच्छा नही होती, बल्कि उसको खरीदने वाला उस गुलाम का जैसे भी चाहे, उपयोग या उपभोग करे, प्रीइस्लामिक अरब में एक गुलाम स्त्री को अपना शरीर अपने मालिक को सौंपना ही पड़ता था, वो किसी भी प्रकार से अपने सतीत्व को बचाकर नही रख सकती थी, दूसरे प्रकार की गुलाम वे इज्जतदार घरों की स्त्रियाँ होती थीं जिन्हें युद्ध मे उनकी सेना की पराजय के बाद गुलाम बना कर अरब के गैर मुस्लिम उन स्त्रियों की इच्छा अनिच्छा की चिंता के बगैर उनसे भी हर प्रकार का काम लेने के साथ ही साथ उनके शारीरिक शोषण भी किया करते थे

इस्लाम मे जिन दासियों के साथ बिना विधिवत विवाह के केवल दासी की सहमति मिल जाने पर ही उस से ताल्लुक बनाने की इजाजत दी गई है ये उपरोक्त पहले प्रकार की यानि जन्म से बनी दासियां थीं, अन्य कोई दासी नहीं.  ये वे दासियां थीं जिनके शरीर को काफिरों ने कई बार खरीद बेच के भोगा था. मुस्लिमों को ये आदेश दिया गया कि इन औरतों को सदा के लिए अपना लें, ताकि इनका आगामी जीवन सम्मान और आराम के साथ बीते .

इन औरतों से ताल्लुक बनाने के साथ ही मुस्लिमों पर जीवन भर इनका भरण पोषण करना अनिवार्य यानी फर्ज़ हो गया और इनके बच्चों को अपना नाम देना और उन बच्चों का पालन पोषण करना व उन्हें सम्पत्ति मे हिस्सेदार बनाना भी फर्ज हो गया, और क्या इन औरतों से मुस्लिमों को बिना विवाह किए ही सम्बन्ध बनाने की अनुमति दी गई थी ? इस्लाम मे विवाह किन्हीं कर्मकाण्डो के होने से हुआ नहीं माना जाता बल्कि वर वधू द्वारा एक दूसरे को दिल से पति पत्नी मान लेने और एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्ध रहने यानि वफादार रहने की प्रतिज्ञा से हुआ माना जाता है.  इसी कारण नबी ﷺ के समय भी मूर्तिपूजक धर्म छोड़कर साथ साथ इस्लाम कुबूल करने वाले दम्पति का न कभी दोबारा इस्लामी रीति से निकाह करवाया गया न ही आज भी ऐसी स्थिति मे इस्लाम कुबूल करने वाले दम्पति का दोबारा निकाह करवाया जाता है. बल्कि उनके पिछले धर्म के गैर इस्लामी नियमानुसार हुए विवाह को ही मान्यता दी जाती है. क्योंकि उसी विवाह के समय से वे एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्ध हैं ।

इसी तरह क्योंकि मुस्लिमों ने अपनी कनीज़ों की मर्ज़ी जानी और उसके बाद दोनों ने एक दूसरे को दिल से अपना पति पत्नी मान लिया इसलिये उनका विवाह भी सम्पन्न ही हुआ.  किसी घर परिवार वाली लड़की से विवाह करते समय गवाह और काज़ी आदि उस लड़की के घरवाले, अपनी बेटी के भविष्य की सुरक्षा के लिए और समाज मे अपना सम्मान बनाए रखने के लिए बुलाते हैं, ताकि दुनिया जान ले कि उनकी बेटी ससम्मान फ़लाँ शख्स के घर उसकी पत्नी बन के चली गई है 

लेकिन क्योंकि उन दासियों का कोई घर परिवार ही नहीं था और वो पहले से ही अपने मालिकों के घर मे रह रही थीं, और पुराने अरब रिवाज़ के कारण समाज पहले से ही उनके मालिकों को उन कनीज़ों के शरीर का अधिकारी मानकर उन कनीज़ों को कुंवारी नही मानता था, इसलिए समाज को दिखाने के लिए कर्मकाण्ड करने का न कोई फायदा था और न कोई ज़रूरत, हां लेकिन ये जरूरी था कि क्योंकि उन लड़कियों के पिता और भाई जैसे कोई संरक्षक नहीं थे, अत: उन लड़कियों के भविष्य की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी मुस्लिम स्वयं उठाएं, और उन कनीज़ों से शरीर सुख लेने के बाद मुस्लिम उन्हें काफिरो की तरह किसी और के हाथों बेच न दें, बल्कि हमेशा अपनी पत्नी होने का सम्मान अधिकार और प्यार दें, जो कि मुस्लिमों ने दिया ।

कुछ हदीसों से प्रतीत होता है कि मुस्लिमों ने युद्ध में गैरमुस्लिमों को पराजित करने के बाद उनकी स्त्रियों को गुलाम बनाकर रख लिया था,  पर जो स्त्रियां पहले आज़ाद थीं, उन्हें गुलाम बनाकर रख लेना तो इस्लाम की प्रकृति के ख़िलाफ़ है , बुख़ारी शरीफ़ और अबू दाऊद शरीफ़ ने नबी ﷺ की हदीस है जिसमें किसी भी आज़ाद मर्द-औरत को गुलाम बनाना बहुत बड़ा गुनाह बताया गया है.

दरअसल युद्ध मे पराजित लोगों को मुस्लिम दुश्मनी निकालने के लिए प्रताड़ित करने को नही बल्कि इस कारण दास बनाते थे क्योंकि एक तो उस समय युद्धबन्दियों को जेल में बंद करके रखने वाली वो व्यवस्था नही थी जो आज विश्व भर में प्रचलन में है, बल्कि उस समय युद्धबन्दियों को विजेता समुदाय के घरों में घरेलू नौकरों के तौर पर रखे जाने की व्यवस्था थी, जिस व्यवस्था की स्वीकार्यता होने के कारण इसका पालन मुस्लिमों ने भी खास उद्देश्यों से किया.   इन बंधकों के बदले मुस्लिम गैरमुस्लिमों से उनके पास बंधक मुस्लिम बन्दियों को छुड़ाने के समझौते कर सकते थे जैसे कि सही मुस्लिम में मुस्लिमों के पास बंधक बने कबीले बनु फ़ज़ारा के युद्ध बन्दी स्त्री पुरुषों का ज़िक्र है जिनके बदले गैरमुस्लिमों से एक समझौता कर के मुस्लिम युद्ध बन्दियों को मुस्लिमों ने आज़ाद करवाया था. इस प्रकार के बंधक स्त्रियों और पुरुषों से इस कारण कोई अपमानजनक व्यवहार भी मुस्लिम नही करते थे, ताकि यदि किसी समझौते के तहत गैरमुस्लिमों के यहाँ बन्दी मुस्लिमों को छुड़वाया न भी जा सके, तो भी उनके यहां बन्दी मुस्लिम बंधकों के साथ अच्छा व्यवहार करने की उन गैरमुस्लिमों को सन्मति मिले.  इसी नाते ऐसी युद्धबन्दी स्त्रियों के साथ भी मुस्लिम पक्ष का कोई व्यक्ति प्रणय निवेदन भी नही कर सकता था, शारीरिक संबंध बनाने की बात तो बहुत दूर है, ये बात भी बनु फ़ज़ारा के युद्ध बंधकों वाली ही रिवायत में पता चल जाती है जब एक मुस्लिम व्यक्ति को घरेलू नौकरानी के तौर पर दी गई बनु फ़ज़ारा की एक सुंदर युद्धबन्दी स्त्री पसन्द आ गई थी पर वे इस हदीस में कम से कम तीन स्थानों कसम खाकर कहते कि मैंने उस स्त्री को कभी भी नही छुआ. और अंततः गैरमुस्लिमों के साथ मुस्लिमों का समझौता हुआ और दोनों तरफ के युद्धबन्दियों को एक दूसरे के बदले रिहा कर दिया गया, और वो स्त्री जैसी पवित्र मुस्लिमों के पास गुलाम बनकर आई थी, वैसी ही पवित्र उसके लोगों के पास वापस पहुँचा दी गई. 


24  दहेज प्रथा और इस्लाम 
हमारे देश मे महिलाओं की इतनी शोचनीय दशा होने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण है दहेज प्रथा, केवल इसी प्रथा के भय से ही हमारे देश मे लाखों लड़कियों को गर्भ मे ही मार डाला जाता है, और जो गलती से पैदा हो जाती हैं, वो नारकीय जीवन जीने को बाध्य होती हैं,

सोच कर देखा जाए तो इसी एक दहेज की कुप्रथा के कारण ही हमारे समाज की बेटियों को हर क्षेत्र मे दबाया जाता है, विडंबना देखिए कि वधू पक्ष ही वर को भरपूर दहेज भी दे, अपनी बेटी को अघोषित रूप से 24 घण्टे की सेविका बनाकर वर पक्ष को दे दे, फिर भी रौब और अकड़ वर पक्ष दिखाए, और कन्या पक्ष उसके आगे झुका रहे .

शादी से पहले मां बाप के कंधो का बोझ होने की हीनता लड़कियों के मन बैठा दी जाती है.  और शादी के बाद कम दहेज लाने को लेकर ससुराल मे मिलने वाली मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना को परिवार की मान मर्यादा बनाए रखने के लिए लड़की पर ही हर ओर से दबाव डाला जाता है.  ये स्थिति केवल गांव कस्बों की कम पढ़ी लिखी लड़कियों की ही नहीं बल्कि बड़े शहरो की उच्च शिक्षित और माडर्न लड़कियों की भी परिवार और समाज के दबाव मे यही नियति होती है .

लेकिन बात यदि थोड़ी शारीरिक मानसिक प्रताड़ना के बाद खत्म हो जाती तब भी गनीमत थी पर ऐसा होता नहीं अक्सर दहेज हत्या, बहू को जलाकर मार डालने के मामले ग्रामीण भारत मे सामने आते रहते है जबकि शहरी समाज दहेज प्रताड़ना के अनेक केस अदालतों मे लम्बित रहते हैं.   ये दहेज का दानव तब तक हमारी बेटियों को खाता रहेगा, जब तक हम इस समाज से दहेज के लालच का समूल नाश न कर डालें. वैसे तो इस्लाम मे दहेज प्रथा नहीं है पर भारतीय मुस्लिमों की बेहद बुरी आदत है कि वो इस्लाम की अच्छाईयों को अपनाकर दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बनने की बजाय खुद ही दूसरों की बुराईयों को अपना कर खुद बुरे बन जाते हैं.  अभी तक तो मुस्लिमों मे दहेज के स्वैच्छिक लेनदेन के अतिरिक्त दहेज की मांग के मामले नहीं पाए गए हैं, पर इस्लाम से दूर भागने के मुस्लिमों के लक्षण ऐसे ही रहे, और मजहब के रहनुमा अब भी सोए रहे तो वो वक्त दूर नहीं जब दहेज के लिए मुस्लिम लड़कियों को भी जलाया जाने लगेगा, और मुसलमान भी अपनी बेटियों को मां के गर्भ मे ही मारकर वापस उसी कुफ्र पर पहुंच जाएंगे जहाँ से उठाकर नबी ﷺ उन्हें इन्सानियत की मेराज पर लाए थे 

बुखारी शरीफ के अध्याय 62 (विवाह) की हदीस 29 मे विस्तार से वर्णन है कि हजरत उरवा रज़ि. ने अम्मी आएशा रज़ि से सूरह निसा की आयत "अगर तुम्हें डर हो कि तुम उनके साथ न्याय नहीं कर सकोगे तो फिर उनसे विवाह मत करो" के नाज़िल होने का कारण पूछा, तो अम्मी आएशा रज़ि. ने बताया कि ये आयत अनाथ लड़कियों का संरक्षण करने वाले उन पुरूषों के लिए नाजिल हुई जो उन अनाथ लड़कियों से प्रेम के कारण नहीं बल्कि उन की सुन्दरता का रस लेने और उनकी धन सम्पत्ति हड़पने की फिराक मे उनसे विवाह करना चाहते थे, स्पष्ट था कि वे उन लड़कियों की जायदाद हड़पने और लड़कियों की सुन्दरता से मन भर जाने के बाद उन लड़कियों को उनका अधिकार भी न देते और उन लड़कियों से बुरा व्यवहार भी करने लग जाते ... सो अल्लाह ने इस कपटपूर्ण भावना से किसी भी स्त्री से विवाह करने से पुरुष को रोका है, और उस स्त्री की बजाय किसी अन्य स्त्री से विवाह की आज्ञा दी है.  यानि लड़कियो से दहेज मिलने के लालच, या फिर उनकी सुन्दरता के लोभ मे विवाह करने की अनुमति मुस्लिम को बिल्कुल नहीं है

इसी तरह एक हदीस शरीफ़ है कि नबी ﷺ ने फरमाया कि जो कोई व्यक्ति किसी औरत से केवल उसकी ताकत और उच्चस्तर पाने के लिए विवाह करता है तो अल्लाह उस व्यक्ति के केवल अपमान मे ही बढ़ोत्तरी करता है.  जो व्यक्ति केवल किसी स्त्री की जायदाद मिलने के लालच मे उससे विवाह करता है, तो अल्लाह उसे केवल निर्धनता मे परिणित करता है, और जो व्यक्ति किसी केवल स्त्री की सुन्दरता के कारण विवाह करता है तो अल्लाह केवल उसमें कुरूपता की ही बढ़ोत्तरी करता है
लेकिन जो व्यक्ति अपनी आंखों को सुरक्षित रखने के लिए ( अपनी यौन शुचिता को बनाए रखने के लिए ) विवाह करता है, और अपनी पत्नी के साथ दयालुता और भलाई का व्यवहार करता है, तो अल्लाह आशीर्वाद देकर उस वधू को वर के लिए शुभकारी बना देता है, और उस वर को वधू के लिए शुभकारी बना देता है ॥"

यहाँ भी स्पष्ट है कि दहेज या अन्य किसी लोभ मे किसी स्त्री से विवाह करने को इस्लाम मे एक अप्रिय और निषेध कर्म ठहराया गया है, और केवल भलाई और सदाचार पर कायम रहने के लिए विवाह किए जाने को प्रोत्साहित किया गया है, जिससे दहेज अपराध जैसी, भ्रूण हत्या जैसी कोई चीज समाज मे पनप ही न पाए.  तो इस्लाम तो हर क्षेत्र मे बहुत उत्तम शिक्षाएं देता है, आवश्यकता बस इन शिक्षाओं पर अमल करने और इन शिक्षाओं का प्रसार करने की है, और ये दोनों जिम्मेदारियां हमारी हैं ॥ 

25  Kya mehar aurat ka mol hai 
एक नास्तिक बहन को इस्लाम से ये शिकायत थी कि इस्लाम मे शादी के वक्त लड़की को देने के लिए एक रकम (मेहर) तय की जाती है, जो कि लड़की का अपमान है.  मैंने जो जवाब उन बहन को दिया था, वो मैं यहाँ अपनी वाल पर पोस्ट कर रहा हूँ, ताकि अगर मेरे मित्रों मे से भी यदि किसी को मेहर के बारे मे कोई गलतफहमी हो तो वो दूर हो जाए, मैंने उन बहन से कहा : 

//..Bahan aapko shadi ke samay Islam me ladki ke liye Mehar tay karne pe aitraz hai . shayad aap bhi Islam ka adhura gyan rakhne walo ki tarah isy aurat ke jism ki keemat samajh rahi hain, lekin aisa nahi kyunki agar aadmi aurat se sukoon pata hai to aurat bhi admi se sukoon paati hai. agar aadmi jismani sukh ke liye veshya aurato pr paise kharch krta hai to auraten bhi jismani sukh paane ke liye veshya mardo yani Jigolo pe paise kharch krti hain, sharir ki maang chahe aurat ho ya mard dono me lagbhag ek si he hoti hai, to fir is hisab se to aadmi ke liye bhi mehar hona chahiye tha aurat ki taraf se agar ye jism ki keemat hota.

to mehar aurat ke jism ka mulya nahi balki Uske bhavishya ka insurance hai, kyunki aadmi kamata hai aurat admi ka ghar samhalne ki khatir nahi kamati isliye haq e mehar aurat ko uske shauhar ke hatho de diye jane ki wyavastha islam ne ki hai, 

Aur aap sochti hongi ki mehar talaq hone pe he di jaati hai aur ye mehar tay karna yani talaq ke liye rasta banana to aapka ye khyal bhi galat hai kyunki mehar talaq ke waqt diya jaane wala tohfa bhi nahi .

Balki mehar to Aurat ka haq hai aur mahar ada ki he jaati hai chahe pati patni me kitni bhi mohabbat ho aur shadi tootne ka koi dar na ho, aadmi aurat ke is haq ko ada krne se tab tak nahi bach sakta jab tak aurat khud mehar maaf na kar de

Aur behtar ye bataya gaya hai ki aadmi shadi ke baad jitni jaldi ho sake kisi bhi waqt aurat ki mehar aurat ko de de taki khuda na khwasta pati ka sath chhoot jaay to aurat apni aage ki zindgi guzarne ke liye un paiso se kuch intzam kr sake... //

26  इस्लाम मे पैतृक सम्पत्ति में बेटे और बेटियों का हिस्सा बराबर क्यों नहीं 
सवाल : मुस्लिम इस बात का तो बड़ा बखान करते हैं कि कुरान मे पैतृक सम्पत्ति मे बेटों के साथ साथ बेटी को भी हिस्सा देने का आदेश है, पर वो ये बात नहीं बताते कि कुरान मे पिता की जायदाद मे से बेटे को बेटी से दुगुनी जायदाद का वारिस बनाने की बात कही गई है.  क्या इससे सिद्ध नहीं होता कि इस्लाम मे औरत और मर्द को बराबरी का अधिकार नहीं है, और इस्लाम मे स्त्री को पुरुष से कमतर माना गया है ?

जवाब : भाई, पवित्र कुरान मे पिता की सम्पत्ति मे लड़की को लड़के से आधा हिस्सा देने का कारण ये है कि लड़की अपने पति से भी सम्पत्ति पाएगी.  साथ ही उसपर अपनी सम्पत्ति मे से अपने माता पिता का भरण पोषण करने की जिम्मेदारी नहीं होती, न ही इस सम्पत्ति से स्त्री पर अपने पति या बच्चों का भरण पोषण करने की जिम्मेदारी है, बल्कि सामान्यतया ये जायदाद व्यक्तिगत रूप से उस स्त्री के प्रयोग के लिए ही है जबकि बेटे को अपनी सम्पत्ति मे से अपने माता पिता, पत्नी बच्चों सभी का भरण पोषण करना है इसलिए उसका हिस्सा बहन से दुगुना होता है .

और भाई आपने कुरान की बात की जिसमें बेटी के लिए पिता की जायदाद मे से अनिवार्यत: एक बड़ा हिस्सा निर्धारित होता है जिससे स्त्री सशक्त हो कर सम्मान का जीवन जी सकती है, क्या आप कुरान के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म की किताब मे बेटी पत्नी या मां को सम्पत्ति का अनिवार्य वारिस बनाए जाने की बात दिखा सकते हैं ?

यहाँ तक कि यदि एक स्त्री जिसके बाल बच्चे हैं उसके पति की मौत हो जाए तो बच्चों के हिस्से से अलग स्त्री का निजी हिस्सा पति की छोड़ी हुई सम्पत्ति का आठवा भाग अनिवार्यत: दिए जाने का प्रावधान है.  किसी और धर्म मे है ऐसी व्यवस्था भाई ? हमने तो यही जाना कि पति की मौत के बाद सारी सम्पत्ति बेटों मे बांट दी जाती है स्त्री का कोई हिस्सा नहीं. और यदि विधवा होनेवाली स्त्री निसन्तान हो तो फिर पति के भाई जब चाहे तब स्त्री को निकाल फेकते हैं, जबकि इस्लाम मे विधवा होनेवाली स्त्री निसन्तान हो तो बच्चे वाली से दोगुनी सम्पत्ति की वारिस उसे बनाने का प्रावधान है ॥

ज़ाहिर है पिता की सम्पत्ति मे बेटे को बेटी से ज्यादा देने का कारण न तो स्त्री के साथ भेदभाव का नजरिया रखना है, और न ही स्त्री को किसी से कमतर बताना, बल्कि ये एक बड़ी नीतिसंगत व्यवस्था है जिससे सामाजिक ताना बाना भी बना रहे और इसी के साथ साथ समाज मे स्त्रियों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति भी मजबूत हो जाए.  हमें नहीं लगता कि इस व्यवस्था मे कुछ भी आपत्तिजनक या अन्यायपूर्ण है ॥


27  इस्लामी कानून पर लगाए गए एक मूर्खतापूर्ण आरोप का उत्तर
बहुत वक्त से मैं इण्टरनेट पर शरिया कानून के खिलाफ लोगों को बेसिर पैर की अफवाहें उड़ाते देखता आ रहा हूँ कि इस्लामी कानून मे अगर किसी औरत के साथ बलात्कार हो जाए, तो दोषी को सजा दिलवाने के लिए उस पीड़िता को अपने पर हुए बलात्कार के चार चश्मदीद गवाह अदालत मे पेश करने पड़ेंगे, तभी मुजरिम को सजा होगी, और यदि पीड़िता चार गवाह न ला सकी उस औरत को ही शरिया कानून व्यभिचारिणी मानकर सजा देगा .

क्या मूर्ख आक्षेप है ? यदि ऐसा कानून हो, तो फिर तो मुस्लिम मुल्क मे कभी किसी बलात्कारी को सजा ही न हो. क्योंकि बलात्कार कभी चार आदमियों, और वो भी विपक्षी आदमियों के सामने कोई नही करता है ! फिर तो कोई औरत कभी अपने ऊपर हुए ज़ुल्म के बारे मे बोलने की हिम्मत ही न करेगी, और सारे बलात्कारी मुस्लिम देशों मे खुले घूमते रहेंगे.  लेकिन ऐसा नही है, सब जानते हैं, कि मुस्लिम देशों मे बलात्कार करने वालों को बराबर सजा मिलती है, और वो भी बहुत सख्त सजा ॥

अस्ल मे चार गवाह वाला मसला बलात्कार नही बल्कि व्यभिचार (आपसी सहमति से अवैध शारीरिक सम्बन्ध बनाना ) का है ,

जैसा कि आप जानते हैं, कि इस्लाम मे व्यभिचार करने वालों के लिए सख्त सजा का प्रावधान है,  इस कानून का दुरुपयोग गलत किस्म के लोग अपनी ज़ाती दुश्मनी निकालने के लिए कर सकते थे, और किसी भी भले घर के स्त्री और पुरुष पर व्यभिचार का झूठा आरोप लगाकर किसी को भी ज़लील करवा सकते थे, और किसी भी खानदान की इज्जत उछाल सकते थे.   इसी खतरे को पूरी तरह से मिटाने के लिए पवित्र कुरान की ये आयत अवतरित हुई

"वो लोग जो पाक दामन और शरीफ औरतों पर इल्ज़ाम लगाएं, फिर चार गवाह न ला सकें ,तो फिर इन लोगों को ही अस्सी कोड़े मारो और कभी इनकी गवाही न मानो"
 कुरान, 24:4

तो जाहिर है चार गवाह उस आदमी को लाने पड़ेंगे जो किसी शरीफ स्त्री पर व्यभिचार का आरोप लगाएगा, फिर ये सुनिश्चित किया जाएगा कि वो गवाह सच्चे हैं या नहीं, उन चारों से अलग अलग बारीकी से सवाल जवाब किए जाएंगे.  और यदि उनके बयान अलग अलग पाए गए, और झूठ पकड़ा गया, तो फिर आरोप लगाने वाले व्यक्ति को उसके इस षणयन्त्र की सजा दी जाएगी. इस सख्त कानून के कारण कोई भी किसी पर व्यभिचार का झूठा आरोप लगाने से डरता है ॥

और रहा बलात्कार की शिकार हुई औरत का सवाल, तो बलात्कार के केस मे पीड़िता को कोर्ट मे अपने पक्ष मे एक भी गवाह पेश करने की कोई जरूरत नहीं है.  बल्कि इस मुकदमे मे शरीयत आधारित अदालत पीड़िता के बयान, दोषी आदमी के बयान, और इन दोनों के चाल चलन के बारे मे इन को जानने वाले सच्चे लोगो के बयान लेती थी, और पूरी होशियारी से इन्साफ दिलाती थी 

आज के दौर मे बलात्कार को साबित करने के लिए युवती का मेडिकल एग्ज़ामिनेशन और आरोपी का DNA टेस्ट काफी है.  बलात्कार के केस मे इस्लामी कोर्ट ने न कभी पहले चार गवाह मांगे, न कभी मांगेगी


28  इस्लाम से चिढ़ने वालो की मूर्खता का एक और प्रमाण : पति पत्नी के बीच सम्बंध की चर्चा पर आपत्ति, और लिव इन रिलशनशिप की वकालत
कुछ लोग इस्लाम का अपमान करने के लिए पति पत्नी के बीच नैसर्गिक सम्बन्धो की हदीसो मे चर्चा को तोड़ मरोड़ कर बेहद अश्लील ढंग से वो बातें सबको सुनाते हैं, जैसे कुछ लोग इण्टरनेट पर कहते मिलते हैं कि सही मुस्लिम किताब 8 हदीस 32443 मे ऐसा लिखा है कि औरतें सदा संभोग के लिए तैयार रहें, जिहादी पति इनसे कभी भी सम्भोग कर सकते हैं .

अव्वल तो बात ये है कि मुस्लिम शरीफ़ की किताब आठ मे इस नम्बर की कोई हदीस कहीं है ही नहीं , बल्कि सही मुस्लिम किताब 8, हदीस नम्बर 3240, 3241 और 3242 पर जो अहादीस दर्ज हैं , उनमें बेहद साफ साफ ये ही बात लिखी है कि जब किसी पराई औरत का सौन्दर्य और उकसाने वाली हरकतों को देखकर किसी पुरुष का मन डोलने लगे, उस स्त्री से व्यभिचार के विचार दिल मे आने लगें तो पुरुष को कि कोई भी गलत काम करने से बचते हुए, अपने घर लौट आना चाहिए और अपनी पत्नी का संसर्ग कर के मन मे आई व्यभिचार की भावना को पूरा ही खत्म कर डालना चाहिए .

तो यहाँ तो पराई स्त्रियों से बचने की एक बेहद अच्छी तालीम दी गई है और सबको अनदेखा कर के केवल अपनी वैध पत्नी से ही यौन सम्बन्ध बनाने की अच्छी बात कही गई है, इन लोगों को उसमें भी बुराई नजर आ गई ?  हंसी आती है ये देखकर कि इस्लाम मे विवाह संस्था के अन्दर पति पत्नी के बीच सेक्स का होना तो इन लोगों को अश्लील और आपत्तिजनक दिखता है, लेकिन लिव इन रिलेशन, और सेरोगेसी जैसी चीजों की यही लोग वकालत करते हैं ।

इन लोगों की बातों से तो लगता है कि हमारे समाज मे पति पत्नी भी आपस मे सेक्स के लिए तैयार होने को पाप मानते होंगे, मगर हमारे देश मे लगातार बढ़ते हिंसक बलात्कारो और व्यभिचारो के मामले साफ पता देते हैं, कि यहाँ के लोग कितने शर्मीले और पुण्यात्मा हैं .

मेरे भाईयों अगर समाज मे पति और पत्नी के बीच वैसी ही ईमानदारी न बनाई जाए जैसी इस्लाम मे सिखाई गई है तो फिर उस समाज मे वैसा ही व्यभिचार और नंगापन फैल जाता है जैसा अमेरिका और योरोप मे फैल चुका है और भारत मे फैल रहा है .  रही आपकी ये कल्पना कि औरतें सदा सेक्स के लिए तैयार बैठी रहेंगी और मर्द बाहर से आते ही उनसे जानवर की तरह लिपट जाएंगे, तो जनाब ये आपकी कोरी कल्पना है, इस्लाम मे जानवरों की तरह औरत के पास जाने वालों के लिए कोई जगह नही है ।
इस्लाम मे ज़िन्दगी के हर पहलू, यानि चलने बोलने खाने पीने, प्यार करने, दाम्पत्य मे संवाद, यानि हर चीज का सबसे अच्छा सलीका सिखाया गया है .

घर आते ही अपनी बीवी पर जानवर की तरह कूद पड़ने वाले कोई और होंगे, जिस तरह मुसलमान को ये सिखाया गया कि बेपर्दा पराई स्त्रियों के आमन्त्रण पर भी पुरुष अपनी कामेच्छा पर नियंत्रण रखे, उसी तरह अपने घर मे लौटकर भी सही समय आने तक खुद पर नियंत्रण रखेगा.  घर के बाकी सदस्यों से शर्म करेगा, और पत्नी के तैयार होने की प्रतीक्षा भी करेगा ।

नबी ﷺ ने फरमाया "तुम लोग अपनी बीवियों पर (सम्बन्ध बनाने मे) सीधे जानवरों की तरह मत गिर जाया करो, बल्कि अपनी पत्नी को इस विषय मे पहले किन्हीं माध्यमों से सूचित किया करो. सहाबा ने पूछा किन माध्यमों से ? आप ﷺ ने मुस्कुरा के फरमाया प्रेम की बातों या चुंबन से "

उम्मीद है, भाईयों की गलतफहमी दूर हुई होगी ॥

29  क्या नाबालिग लड़की की शादी कुरआन से साबित है 
छोटी उम्र की बच्चियों की शादी की दलील को हमारे कुछ मुस्लिम दोस्त, और ज़्यादा मज़बूत करने के लिए क़ुरआन से साबित करना चाहते हैं, यानी कुछ हदीसों की व्याख्या के आधार पर उनका ये यकीन है ही कि नाबालिग़ बच्चियों की शादी में कोई गलत बात नहीं है, लेकिन जब हदीस की उन व्याख्याओं पर कोई सवाल उठाता है, तो अपनी मान्यता को सही साबित करने के लिए वो लोग क़ुरआन से सूरह तलाक़ की चौथी आयत पेश करते हैं जिसमें तलाक़ पाई हुई अलग अलग औरतों की इद्दत की मुद्दत बताई गई है, इसमें लिखा है कि जिनको हैज़ नही आता उनकी इद्दत की मुद्दत भी तीन महीने है.  हमारे दोस्त साबित करना चाहते हैं कि हैज़ नाबालिग़ बच्चियों को नही आता है और कुरआन की इस आयत से साबित हो रहा है कि अल्लाह के क़ानून में नाबालिग़ बच्चियों की शादी एकदम जायज़ बात है .

मेरे भाइयों, आप जो ये दलील लगा रहे हैं उससे इस्लाम के दामन पर एक संगीन इल्ज़ाम आयद कर रहे हो कि इस्लाम में न सिर्फ़ नाबालिग़ बच्चियों से शादी जायज़ है, बल्कि उसी नाबालिग़ हालत में उनसे जिस्मानी ताल्लुक़ भी जायज़ है, क्योंकि सूरह अहज़ाब 49 के मुताबिक जिन औरतों से सम्भोग किये बिना उन्हें तलाक़ दे दिया जाए उन औरतों के लिये इद्दत कोई अवधि नही है, और आप लोग जो आयत दिखा रहे हैं उसमें इद्दत की अवधि बताई गई है, यानी तलाक़ से पहले उन स्त्रियों के साथ जिस्मानी ताल्लुक़ बनाया गया है.  तो क्या जिन बच्चियों को हैज़ आना शुरू न हुआ हो उनसे शादी कर के उनसे जिस्मानी ताल्लुक़ बनाये जा सकते हैं ? क्या इस्लामी कानून में ऐसा मुमकिन है ? ऐसा बिल्कुल मुमकिन नहीं, इस्लामी क़ानून नाबालिग़ बच्चियों से जिस्मानी ताल्लुक़ बनाने की कतई इजाज़त नही देता, बल्कि इस्लाम ये हुक़्म देता है कि उन लड़कियों से निकाह किया जाए जिन लड़कियों को निकाह की ख़्वाहिश महसूस होती हो, और निकाह उनकी मर्ज़ी पूछकर उनकी सहमति से ही किया जाए, यानी सहमति देने के लिए लड़की अक़्ल का भी पुख़्ता और परिपक्व होना ज़रूरी है.  प्यारे नबी ﷺ ने मुसलमानों को हुक़्म देते हुए फ़रमाया है कि एक लड़की का निकाह तब तक किसी से नही किया जा सकता जब तक उस लड़की से उसकी सहमति के बारे में न पूछा जाए, जब वो लड़की किसी निकाह के लिये खुद इजाज़त देगी, तभी उसकी शादी हो सकती है"
सही बुख़ारी, किताब-86, हदीस-98 और 100

हालांकि लड़की की मर्ज़ी की शर्त से ज़ाहिर था कि लड़की की शादी उसकी जवानी में ही की जानी चाहिए, फिर भी लोगों ने कुछ हदीसों की व्याख्या के आधार पर एक कंडीशन ये निकाल ली है कि, रजस्वला होने की उम्र से पहले किसी वजह से कमसिन लड़की के साथ उसके अभिभावक की सहमति से निकाह किया जा सकता है,  नाबालिग़ बच्ची के वली की सहमति से निकाह हो सकने का विश्वास करने वाले भी ये मानते हैं और कि रजस्वला होने से पहले उस लड़की से जिस्मानी ताल्लुक़ नही बनाये जा सकते, जब वो लड़की बालिग होकर इस विवाह पर खुद अपनी सहमति की मुहर लगाएगी, उसके बाद ही ये विवाह पूर्ण माना जाएगा और तब उस लड़की से जिस्मानी ताल्लुक़ क़ायम किया जा सकता है.  अगर बालिग़ होकर वो लड़की इस विवाह को अस्वीकार कर दे, यानी लड़की के वली की सहमति से निकाह कर दिया गया हो, मगर लड़की इस निकाह के लिए सहमति न दे तो विवाह पूर्ण हुए बग़ैर खत्म हो जाता है, 
सही बुख़ारी, किताब-86, हदीस-99

ये इस्लामी क़ानून है, औऱ ये क़ानून शुरुआती ज़माने से चले आ रहे तवातुर (लगातार प्रचलन) से क़ायम है और तवातुर कि वजह से इसमें शक की गुंजाइश नहीं है,  इस क़ानून को ख़ूब अच्छी तरह समझ लीजिये, इसमें निकाह करके भी नाबालिग़ उम्र की लड़कियों से जिस्मानी ताल्लुक़ नही बनाये जा सकते, और आप जो आयत पेश करते हैं उस आयत में जिस्मानी ताल्लुक़ात कायम किये जा चुकने के बाद की कंडीशन बताई गई है, वो आयत असल में कमसिन और नाबालिग़ बच्चियों के लिए है ही नही, जैसा कि आप लोगों को धोखा होता है,

दरअसल आपको धोखा होना, कुछ अनुवादों की वजह से है, इस आयत के कुछ तर्जुमों में लिख दिया गया है कि "जिनको अभी हैज़ शुरू ही नही हुआ" जबकि असल में आयत में बस ये बात लिखी है कि "वो जिन्हें हैज़ नही आता" अब इस तर्जुमे कि "जिनको अभी हैज़ शुरू नही हुआ" से कुछ पढ़ने वालों को लगा कि हैज़ तो छोटी बच्चियों को नही आता, लेकिन अगर आप क़ुरआन के एक एक लफ्ज़ का तर्जुमा पकड़ेंगे, तो न वहाँ "अभी" के लिए कोई लफ्ज़ है, न "शुरू" के लिए.  इसलिये कुछ तर्जुमा करने वालों ने बात को ऐसे भी लिखा है, "वो औरतें जिनको हैज़ हुआ ही नहीं" ये फ़ारूक़ खान और नदवी का हिंदी तर्जुमा है.
मुहम्मद हुसैन नख़फ़ी का उर्दू तर्जुमा देखिये
"اور یہی حکم ان عورتوں کا ہے جنہیں (باوجود حیض کے سن و سال میں ہو نے کے کسی وجہ سے) حیض نہ آتا ہو"

ताहिरुल क़ादरी ने अपने तर्जुमे में यूँ लिखा है
"وہ عورتیں جنہیں (ابھی) حیض نہیں آیا"

यहाँ "अभी" ब्रैकेट में लिखा है, जिसका मतलब है कि आयत में ये बात नहीं थी, मगर बात को समझाने के लिए तर्जुमा करने वाले ने लिख दी. आयत में क्या लिखा था, ब्रैकेट वाला लफ्ज़ हटाकर पढ़िये "वो औरतें जिन्हें हैज़ नही आता"


बात साफ़ है के इस आयत में कम उम्र की बच्चियों की बात नहीं की गई, बल्कि ऐसी बालिग़ औरतों की बात की गई है जिन्हें किसी मेडिकल कंडीशन की वजह से बड़ी उम्र को पहुँच जाने के बावजूद हैज़ नही आता लेकिन बलाग़त की उम्र पार कर लेने की वजह से उनके साथ जिस्मानी ताल्लुक बनाये जा सकते हैं.   इस वजह से उनपर तलाक़ के मामले में इद्दत गुज़ारना भी लागू हो जाता है. मुहम्मद हुसैन नख़फ़ी साहब ने अपने तर्जुमे में यही बात क्लियर की है और ज़ाहिर होता है कि बाक़ी तर्जुमाकार भी जिन्होंने "अभी हैज़ शुरू नही हुआ" लिखा है, उन्होंने भी ग़ालिबन इसी मेडिकल कंडीशन की तरफ़ इशारा किया है न कि कमसिनी की तरफ, क्योंकि कमसिन बच्ची से जिस्मानी ताल्लुक़ बनाने की मनाही एक जाना माना उसूल है इस्लाम का .

तो भाइयों, क़ुरआन की इस आयत से नाबालिग़ बच्चियों के साथ शादी की बात साबित नही होती,  और दूसरी तरफ मैं आपको बताऊं कि क़ुरआन पाक में एक जगह लड़कियों और लड़कों की शादी की उम्र का ज़िक्र किया गया है.  कुरआन मे एक जगह बच्चों के संरक्षक को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि "वे अनाथ बच्चों को जांचते रहें और जब वे "विवाह की उम्र" के हो जाएं, तो उनकी सम्पत्ति उन्हें सौंप दी जाए"
कुरआन 4:6

इस आयत से दो बातें साफ होती हैं
एक तो ये, कि इस्लाम ने इंसान की शादी के लिए एक उम्र मुक़र्रर की है, ज़ाहिर है ये उम्र वही हो सकती है जब इंसान के अंदर से शादी की ख़्वाहिश खुद उठना शुरू हो जाये, यही कुदरती निशान है, जिससे ज़ाहिर होता है कि उसकी शादी की उम्र आ गई है, इसके अलावा और किस हालत को बन्दे की शादी की उम्र कहा जाएगा?  और देखिये कि कुरआन पाक़ मे क़ुदरत ने जिस उम्र को शादी की उम्र कहा है, वो ऐसी उम्र है जिसमें आकर इंसान को उसकी जायदाद की देखभाल का जिम्मा सौंप देने का हुक़्म कुरआन पाक में दिया गया है, यानी इस्लाम मे बताई शादी की उम्र वो है जिस उम्र को पहुँचकर इंसान इतनी पुख़्ता अक़्ल और ताक़त भी पा लेता है कि अपनी जायदाद और रोज़गार के बारे में खुद फ़ैसले लेने लग जाए, और अपनी ज़िंदगी के गुज़ारे के लिए खुदमुख्तार हो जाये, अपने पैरों पर खड़ा हो जाये.  इतनी पुख़्ता अक़्ल, समझदारी और ताकत इंसान में बालिग़ उम्र में ही आती है, यानी इस्लाम में बताई शादी की उम्र बालिग़ होने के बाद की उम्र है !


30  मत मारो बेटी को . जीने दो
बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि एक नए अनुसंधान के मुताबिक भारत में पिछले 30 सालों में कम से कम 40 लाख बच्चियों की भ्रूण हत्या की गई है.  अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका 'द लैन्सेट' में छपे इस शोध में दावा किया गया है कि ये अनुमान ज़्यादा से ज़्यादा 1 करोड़ 20 लाख भी हो सकता है. सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के साथ किए गए इस शोध में वर्ष 1991 से 2011 तक के जनगणना आंकड़ों को नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के साथ जोड़कर ये निष्कर्ष निकाले गए हैं.  शोध में ये पाया गया है कि जिन परिवारों में पहली सन्तान लड़की होती है उनमें से ज़्यादातर परिवार पैदा होने से पहले दूसरे बच्चे की लिंग जांच करवा लेते हैं और लड़की होने पर उसे मरवा देते हैं. लेकिन अगर पहली सन्तान बेटा है तो दूसरी सन्तान के लिंग अनुपात में गिरावट नहीं देखी गई. शिक्षित और समृद्ध परिवारों में कन्या भ्रूण हत्या की दर निर्धन और अशिक्षित परिवारों से कहीं ज्यादा पाई गई ।

कन्या शिशु हत्या के इतिहास की ओर हम ध्यान करें तो पाते हैं कि पहले तो समाज ने स्त्री को हवस पूर्ति का सुलभ साधन बनाया, दहेज लेकर स्त्री और उसके अभिभावकों का आर्थिक शोषण किया और मां-बाप के लिए बेटी के ससुराल का पानी तक पीना पाप बनाकर लड़की को उसके माता पिता के सानिध्य के सुख से भी वंचित कर दिया ताकि ससुराल मे लड़की से मनचाहा फायदा उठाया जाए और लड़की का पक्ष लेने वाला और उसे अन्याय से बचाने वाला कोई न हो.  इस तरह स्वार्थी समाज ने दूसरों की बेटियों से तो खूब आनंद उठाया, पर जब उन्होंने अपनी बेटियों के साथ यही सब अन्याय होता देखा तो उनकी झूठी शान को बहुत ठेस पहुंची. और अपनी तथाकथित शान और सम्मान बचाने के लिए उन दुष्ट लोगों ने अपनी नवजात बेटियों की हत्या करने का रास्ता निकाला बजाय इसके कि नग्नता, दहेज और विवाह से जुड़े गलत रिवाज़ो को खत्म करते ।
ये रिवाज़ वो लोग इसलिए मिटाना नहीं चाहते थे क्योंकि दूसरों की बेटियों के शरीर और सम्पत्ति से खेलने का लोभ तो वो संवरण कर ही नहीं सकते थे ॥

इस तरह भारत से लेकर प्राचीन अरब तक हर जगह अबोध, निर्दोष और निरीह कन्याओं को जन्म लेने ही मार डालने का दुर्दान्त खूनी रिवाज सदियों तक चलता रहा.  अब से 1400 वर्ष पूर्व अरब मे तो इस्लाम आया, और नबी ﷺ ने निर्दोष बेटियों की हत्या की कड़ी भर्त्सना की और आप ﷺ ने बेटी को जीवित रखने और उसका अच्छा पालन पोषण करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हुए अनेक भली भली शिक्षाएं दीं.  आपने फरमाया-
"बेटी होने पर जो कोई उसे जिंदा नहीं दफनाएगा और उसे अपमानित नहीं करेगा और अपने बेटे को बेटी पर तरजीह नहीं देगा तो अल्लाह ऐसे शख्स को जन्नत में जगह देगा"
-इब्ने हंबल

इसी तरह हजऱत मुहम्मद ﷺ ने ये भी फरमाया -
"जो कोई दो बेटियों को मोहब्बत और इनसाफ के सुलूक के साथ पाले, यहां तक कि वे बेटियां बालिग हो जाएं और उस शख्स की मोहताज न रहें ( यानि आत्म निर्भर हो जाएं ) तो वह व्यक्ति मेरे साथ स्वर्ग में इस प्रकार रहेगा (आप ﷺ ने अपनी दो अंगुलियों को एक साथ मिलाकर बताया कि ऐसे )"

और नबी करीम मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया-
"जिस शख्स के तीन बेटियां या तीन बहनें हों या दो बेटियां या दो बहनें हों (यानी जितनी भी लड़कियों के पालन पोषण का जिम्मा उस पर हो) और वह उन सबकी अच्छी परवरिश और देखभाल करे और उनके मामले में (अन्याय करने से) अल्लाह से डरे तो उस शख्स के लिए जन्नत है"
तिरमिजी

इस्लाम ने बेटी के लिए ऐसे नियम बनाए जिनसे बेटी का जीवित रहना, इज्जत और सुख से जीवन जीना सम्भव हो सका.   पर बड़े दुख की बात है कि भारत मे आज तक बेटी की हत्या जारी है. मासूम बच्चियों की हत्या करने वाले ऐसे लोगों से मेरी इतनी ही गुज़ारिश है , कि जीवन बड़ा अनमोल उपहार है ईश्वर का .

अपनी औलाद से जीवन का वरदान छीनने की बजाय अगर आप समाज मे व्याप्त कुरीतियों को मिटाने का प्रयास करें तो आपके साथ साथ समाज का भी बडा उपकार हो सकेगा.  इस्लाम ने बेटी के जीने के लिए जो उपाय दिए, वो मैं बता देता हूँ, हो सके तो इन उपायों को अपनाने का प्रयास कीजिएगा 

1- इज्जत के डर से लोग अपनी बच्चियों की जान सबसे ज्यादा लेते हैं लेकिन अगर वो अपनी बेटी को शालीन कपड़े पहनाएं , बेटियों को मजबूत चरित्र वाली बनाएं तो बेटियों का शील भंग होने का कोई भय नहीं रह जाएगा

2- इस्लाम मे दहेज प्रथा नही है, अन्य समाजो की देखादेखी आज भले ही भारत और आस पड़ोस के कुछ अशिक्षित मुस्लिम दहेज का लेनदेन करने लगें हों, पर गैरमुस्लिमों की तरह दहेज की मांग मुस्लिम समाज मे अब भी नहीं है.  इस्लाम के अनुसार वधू पक्ष का वर को दहेज देना आवश्यक नही, पर वर का वधू को दहेज (मेहर) देना नितान्त आवश्यक है, मेहर से बेटी का भविष्य सुरक्षित होता है, और दहेज की अनिवार्यता न होने से वर पक्ष वाले वधू का आर्थिक शोषण करने की बात भी नहीं सोच सकते ।

3- सम्भवत: इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसने पिता की सम्पत्ति मे बेटी को भी हिस्सेदार बनाया है.  क्योंकि ये सम्पत्ति दहेज की तरह हस्तांतरणीय नहीं होती जिसे हड़प के बहू को जला दिया जा सके बल्कि ये जायदाद जीवन भर लड़की का आर्थिक सम्बल बनी रहेगी और उसकी इच्छा के विरुद्ध इसका उपयोग कोई और न कर सकेगा .