जब मुस्लिमों की अच्छी छवि को कुछ लोग बर्दाश्त नहीं कर पाते, तो वो बनु क़ुरैज़ा की मनगढ़ंत कहानियां सुनाकर मुस्लिमों की छवि खराब करने के प्रयास करने लगते हैं. वैसे तो नबी ﷺ के ज़माने के ढाई सौ साल बाद लिखी गई इन कहानियों की सच्चाई पर ही मैं यकीन नहीं करता, पर मुसलमानों की विशाल आबादी जो हदीसों को सही भी मानती है वो बेकुसूरों पर अत्याचार की बात तो नही करती. देख लो.
बनू कुरैज़ा एक यहूदी कबीला था जिसने मुसलमानों के साथ ये सन्धि की थी कि वे मुस्लिमों के विरुद्ध युद्ध मे काफिरों की सहायता नही करेंगे, बल्कि मदीना की हिफाज़त मे मुस्लिमों का साथ देंगे
लेकिन अस्ल मे उन यहूदियों के दिलों मे मुस्लिमों से नफरत और दुश्मनी भरी थी, और सन्धि उन्होंने केवल दिखावे के लिए की थी ताकि ये यहूदी खुद तो अन्दर ही अन्दर मुस्लिमों की जड़ें काटते रहें, पर मुस्लिम इन साज़िशों से अनजान रहें और इन यहूदियों के विरुद्ध कोई कदम न उठा पाएँ.
अपनी इसी छिपी रणनीति के तहत ये बनू कुरैज़ा के यहूदी मुस्लिमों के दुश्मनों की मुस्लिमों के विरुद्ध युद्ध मे चुपके चुपके मदद करते रहते थे, पहले बद्र की लड़ाई मे मुस्लिमों पर हमला करने वाले कुरैश की मदद बनू कुरैज़ा वालों ने हथियारों से की थी, जिसका पता भी प्यारे नबी ﷺ को लगा, मगर उस वक्त रहमतुल्लिल आलमीन ﷺ ने बनू कुरैज़ा का ये कसूर माफ कर दिया
फिर अहज़ाब की लड़ाई के वक्त ये यहूदी खुलकर सामने आ गए और इन यहूदियों ने खुद जा जाकर मुसलमानों के दुश्मनों को लड़ाई के लिए उकसाया , और उनको मुस्लिमों के विरुद्ध पूरी मदद देने के वायदे किए, ताकि तमाम मुसलमानों का इसी लड़ाई मे खात्मा हो जाए
अहज़ाब की लड़ाई मे बनू कुरैज़ा की इस गद्दारी की वजह से बहुत मुसीबतों का सामना करना पड़ा
इसलिए अहज़ाब की लड़ाई खत्म हो जाने के बाद बनू कुरैज़ा का घेराव किया गया, इन यहूदियों को सज़ा देना जरूरी था, वरना अगर मुस्लिम इन यहूदियों को सबक न सिखाते तो ये यहूदी हमेशा काफिरों को उकसा कर मुसलमानों पर हमले करवाते रहते, मुस्लिमों को खत्म करवाते रहते.
जब इन यहूदियों ने खुद को मुसलमानों की पकड़ मे पाया तो मुसलमानों के सामने ये मांग रखी कि "हज़रत साद बिन मुआज़ को हमारे (बनु कुरैज़ा) के मामले मे मुंसिफ (सरपंच) बना दिया जाए ,और जो फैसला साद बिन मुआज़ करें वो हमें भी मन्ज़ूर होगा, और उस फैसले को नबी ﷺ. भी मान लें ! "
आप ﷺ ने यहूदियों की ये मांग मान ली, शायद यहूदियों की नज़दीकी हज़रत साद बिन मुआज़ से थी जिस वजह से बनू कुरैज़ा को फैसले मे हज़रत साद से यहूदियों की तरफदारी की उम्मीद थी. मगर ज़रूरी तहकीकात के बाद हज़रत साद ने ये फैसला दिया कि मुसलमानों से युद्ध करने वाले बनू कुरैज़ा के वाले मर्दों को सज़ा ए मौत दी जाए, जबकि उनके साथ की औरतों और बच्चों को गुलाम बनाया जाए. ये बात ध्यान मे रखनी चाहिए खुद उन यहूदियों के चुने हुए न्यायाधीश ने उन यहूदियों के ही कानून के मुताबिक उन्हें सज़ा दी थी जिस तरह वो यहूदी अपने दुश्मनों को सज़ा देते थे. इस तरह की सज़ा यहूदी और ईसाईयों द्वारा अपने दुश्मनों को देने का हुक्म आज भी बाइबल के लेविटिकस, अध्याय 20, आयत 10 मे आप देख सकते हैं. सो अगर सज़ा सख्त थी तो इसके लिए इस्लाम को दोष नहीं दिया जा सकता , यदि दोष ही दिया जाए तो वह यहूदियों के अपने कानून को जाएगा ॥
और क्योंकि बनू कुरैज़ा का फैसला उन यहूदियों की ही मांग पर नबी ﷺ ने नही किया था, इसलिए बनू कुरैज़ा को मिली सख्त सजा का दोष नबी ﷺ को नही दिया जा सकता बल्कि नबी ﷺ से नफरत या दुश्मनी के चलते बनू कुरैज़ा वालों ने नबी ﷺ से अपना फैसला न करवाकर, और नबी ﷺ से साद बिन मुआज़ का फैसला मानने का वादा लेकर अपना ही नुकसान कर लिया, वरना हमें पूरा यकीन है कि अगर बनू कुरैज़ा वालों ने अपना फैसला नबी ﷺ पर छोड़ा होता तो उन यहूदियों को आप ﷺ मौत की सज़ा तो न ही सुनाते , जैसे आप ﷺ ने पहले भी ऐसे ही अपराधों पर बनू केनुक़ाअ और बनी नज़ीर जैसे कबीलों को मौत की सजा न दी थी
फिर भी आप ﷺ ने मुसलमानों के खून के प्यासे इन बनू कुरैज़ा मे से भी कुछ की सज़ा माफ करवा दी थी, जैसे ज़ुबैर यहूदी और रिफ़ाआ बिन शमूईल यहूदी दोनों की जां बख्शी फरमा दी थी (तारीखे तबरी)
याद रखिए गुलाम बनाने या कत्ल करने की सजा उन्हीं स्त्री पुरुष और बच्चों को दी गई थी जो लोग युद्ध मे मुस्लिमों के विरुद्ध शामिल थे, और मुस्लिमों की हत्याओं के दोषी थे. और एक बात और याद रखनी चाहिए कि मुस्लिमों द्वारा गुलाम बनाए गए लोगों का कुरान और हदीस के स्पष्ट आदेशों के कारण, कभी किसी तरह से शोषण नहीं किया जाता था, जैसा गम्भीर शोषण गैरमुस्लिम अपने युद्धबंदियों के साथ उन्हें गुलाम बनाकर करते थे ॥
कुछ विरोधियों ने ये साबित करने के लिए कि मुस्लिमों ने बनू कुरैज़ा के बच्चों को मारा, अबू दाऊद शरीफ़ की रिवायत 39/4390 दिखाई कि बनू कुरैज़ा के युद्ध अपराधियों को परीक्षित किया व जिनके शरीर पर युवावस्था के बाल निकल आए थे उन्हे मृत्युदण्ड दिया गया जबकि जिनके शरीर पर ये बाल नही निकले थे उन्हें जीवित छोड़ दिया गया .
ज़रा वे खुद आँखे साफ कर के देखें कि हदीस से सिद्ध होता है कि केवल जवान पुरूषों को दण्ड दिया मुस्लिमों ने और कम उम्र लड़कों को अपराधी होने के बावजूद कड़े दण्ड से बचा लिया
जहाँ तक स्त्रियों और बच्चों की हत्याओं का प्रश्न है तो आजकल देख रहा हूँ कि साम्प्रदायिक दंगों के समय अल्पसंख्यकों के छोटे छोटे बच्चों को निर्ममता से काट डालने वालों की भर्त्सना तो छोड़िए, हमारे बंधुवर तो करोड़ों बच्चियों की भ्रूण हत्या, तान्त्रिकों द्वारा अनगिनत अबोध बच्चों की हत्या और धर्म के नाम पर अब तक जारी सती प्रथा पर भी मुंह नहीं खोलते, और हाय तौबा मचाते हैं मुस्लिमों द्वारा बनु कुरैज़ा के उन युवकों को मृत्युदण्ड दिए जाने पर जो कि मुस्लिमों की हत्या के दोषी थे.
वैसे जिस उम्र के यहूदी युद्ध अपराधियों को मुस्लिमों ने मृत्युदण्ड दिया आठ वर्ष पहले इसी उम्र के बलात्कारी को (निर्भया केस के नाबालिग 17 वर्षीय बलात्कारी के विषय मे) मृत्युदण्ड दिए जाने की मांग को लेकर देश के अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग और आम जनता ने आन्दोलन चलाया था. यदि कमउम्र के जघन्य अपराधियों को कड़े दण्ड का पक्ष लेना क्रूरता है तो फिर यही कहा जाएगा कि हमारे देश का बुद्धिजीवी समाज सबसे बड़ा क्रूर है ॥
खैर . इस्लाम मे किसी कमउम्र लड़के को युद्ध के योग्य और उसी तरह युद्ध अपराधी मानने की दो शर्तें हैं पहली शर्त ये कि लड़का पन्द्रह वर्ष की आयु पार कर चुका हो (देखिए अबू दाऊद, 39/4392) 15 वर्ष से आशय कि इस उम्र तक लड़के पूर्ण बढ़त, कद पा चुके होते हैं , एवं इसके बाद वे युवावस्था (प्यूबर्टी) को भी पा चुके हों, क्योंकि नबी स. ने निर्देश दिया है कि अल्लाह युवावस्था प्राप्त करने से पहले की आयु के लड़कों के कर्मो (पाप) का हिसाब नहीं करता (अबू दाऊद, किताब 39, हदीस 4384, 4385, 4386, 4387, 4388 और 4389) इसलिए इनके अपराधों पर मुस्लिमों को भी इन्हें गम्भीर दण्ड देने का अधिकार नहीं ॥
स्वयं अरब के गैरमुस्लिम भी 15 वर्ष की आयु से पहले लड़कों को युद्ध मे नही ले जाते थे क्योंकि जिक्र मिलता है कि जब इस्लाम का कोई विधान अरब मे नही आया था तब भी नबी ﷺ को पहली बार अपने चचाओं के साथ युद्ध मे तब जाना पड़ा था जब आप स. की उम्र 15 वर्ष थी . स्पष्ट है कि बनू कुरैज़ा के यहूदियों ने भी 15 वर्ष से ऊपर की आयु के लड़के लड़कियों को अपने साथ युद्ध मे शामिल किया था
खैर. इसलाम नियमानुसार जिन (15 वर्ष की आयु के) लड़कों की बढ़वार ही न हो पाई हो ऐसे लड़कों को तो आब्वियस ही है कि बच्चा मानकर छोड़ दिया जाने का नियम है. तो बनू कुरैज़ा के जिन लड़कों का कद अच्छी तरह बढ़ा हुआ था एवं जो मुस्लिमों के हत्यारे थे, केवल उन्ही की प्यूबर्टी को परीक्षित किया गया. और अबू दाऊद शरीफ़ 39/4390 को रिवायत करने वाले अतिया अल कुरैज़ी जो मुस्लिमों के हत्यारे थे और कद मे पूरे थे, लेकिन उनके जिस्म पर बाल न पाए जाने के कारण मौत की सजा से बच गए
यहां एक बात और स्पष्ट कर दी जाए कि जिन बच्चों को गुलाम बनाने का आदेश साद बिन मुआज़ रज़ि. ने दिया था उन बच्चों से आशय 15 वर्ष के वे लड़के थे जिन्होंने मुस्लिमों को युद्ध मे हानि पहुंचाई थी या मुस्लिमों के कत्ल भी किए थे, लेकिन इन लड़को के शरीर पर बाल न निकले होने के कारण इनके साथ सख्त व्यवहार नहीं किया गया. खैर स्पष्ट ये होता है कि किसी अबोध बच्चे को मुस्लिमों ने गुलाम नहीं बनाया, बल्कि समझदार और पर्याप्त उम्र के अपराधी लड़कों को सजा के तौर पर बंधक बनाया जैसे निर्भया का बलात्कार करने वाले नाबालिग बलात्कारी को जेल मे बन्द कर के रखा गया है उसके 17 वर्ष के कमउम्र होने पर भी उसे छोड़ नही दिया गया .
तो मै नही समझता कि इस केस मे मुस्लिमो से कोई गलती हुई जिन यहूदियों ने अपने बच्चों (यदि इन्हें बच्चा माना जाए) को युद्ध मे झोंक दिया गलती तो उनकी थी, वो बच्चे दुश्मनों के हाथों मारे जा सकते थे, उनका किसी भी तरह का शोषण हो सकता था, इन सारी फिक्रो को दरकिनार कर के जब खुद वे यहूदी अपने बच्चों को लड़ाई लड़ने के लिए ले आए थे तो फिर उन्होंने तो अपने बच्चों को मार ही डाला था. ये तो मुस्लिम थे जिन्होंने उन बच्चों को अपने पारिवारिक सदस्य सा बना लिया कोई और तो जाने क्या करता
और एक बहुत बड़ा झूठ एक भारी संख्या मे बनू कुरैज़ा के पुरूषों की हत्या मुस्लिमों द्वारा किए जाने का बोला जाता है, जो कि पूरी तरह अस्वीकार्य है, चूंकि इस्लाम मे जान के बदले जान का नियम है, तिस पर भी माफी को वरीयता दी गई है, तो उन यहूदियों द्वारा यदि 40-50 से अधिक मुस्लिम नहीं मारे गए थे तो मृत्युदण्ड भी इससे अधिक लोगों को नहीं दिया जा सकता था. उसपर इनमें से कई लोग अतिया की तरह अलग अलग कारणों से मौत की सजा से बच गए थे तो मौत की सजा पाने वालों का आंकड़ा 30-35 से ऊपर जा ही नही सकता ..!!
By- Zia imtiyaz
बनू कुरैज़ा एक यहूदी कबीला था जिसने मुसलमानों के साथ ये सन्धि की थी कि वे मुस्लिमों के विरुद्ध युद्ध मे काफिरों की सहायता नही करेंगे, बल्कि मदीना की हिफाज़त मे मुस्लिमों का साथ देंगे
लेकिन अस्ल मे उन यहूदियों के दिलों मे मुस्लिमों से नफरत और दुश्मनी भरी थी, और सन्धि उन्होंने केवल दिखावे के लिए की थी ताकि ये यहूदी खुद तो अन्दर ही अन्दर मुस्लिमों की जड़ें काटते रहें, पर मुस्लिम इन साज़िशों से अनजान रहें और इन यहूदियों के विरुद्ध कोई कदम न उठा पाएँ.
अपनी इसी छिपी रणनीति के तहत ये बनू कुरैज़ा के यहूदी मुस्लिमों के दुश्मनों की मुस्लिमों के विरुद्ध युद्ध मे चुपके चुपके मदद करते रहते थे, पहले बद्र की लड़ाई मे मुस्लिमों पर हमला करने वाले कुरैश की मदद बनू कुरैज़ा वालों ने हथियारों से की थी, जिसका पता भी प्यारे नबी ﷺ को लगा, मगर उस वक्त रहमतुल्लिल आलमीन ﷺ ने बनू कुरैज़ा का ये कसूर माफ कर दिया
फिर अहज़ाब की लड़ाई के वक्त ये यहूदी खुलकर सामने आ गए और इन यहूदियों ने खुद जा जाकर मुसलमानों के दुश्मनों को लड़ाई के लिए उकसाया , और उनको मुस्लिमों के विरुद्ध पूरी मदद देने के वायदे किए, ताकि तमाम मुसलमानों का इसी लड़ाई मे खात्मा हो जाए
अहज़ाब की लड़ाई मे बनू कुरैज़ा की इस गद्दारी की वजह से बहुत मुसीबतों का सामना करना पड़ा
इसलिए अहज़ाब की लड़ाई खत्म हो जाने के बाद बनू कुरैज़ा का घेराव किया गया, इन यहूदियों को सज़ा देना जरूरी था, वरना अगर मुस्लिम इन यहूदियों को सबक न सिखाते तो ये यहूदी हमेशा काफिरों को उकसा कर मुसलमानों पर हमले करवाते रहते, मुस्लिमों को खत्म करवाते रहते.
जब इन यहूदियों ने खुद को मुसलमानों की पकड़ मे पाया तो मुसलमानों के सामने ये मांग रखी कि "हज़रत साद बिन मुआज़ को हमारे (बनु कुरैज़ा) के मामले मे मुंसिफ (सरपंच) बना दिया जाए ,और जो फैसला साद बिन मुआज़ करें वो हमें भी मन्ज़ूर होगा, और उस फैसले को नबी ﷺ. भी मान लें ! "
आप ﷺ ने यहूदियों की ये मांग मान ली, शायद यहूदियों की नज़दीकी हज़रत साद बिन मुआज़ से थी जिस वजह से बनू कुरैज़ा को फैसले मे हज़रत साद से यहूदियों की तरफदारी की उम्मीद थी. मगर ज़रूरी तहकीकात के बाद हज़रत साद ने ये फैसला दिया कि मुसलमानों से युद्ध करने वाले बनू कुरैज़ा के वाले मर्दों को सज़ा ए मौत दी जाए, जबकि उनके साथ की औरतों और बच्चों को गुलाम बनाया जाए. ये बात ध्यान मे रखनी चाहिए खुद उन यहूदियों के चुने हुए न्यायाधीश ने उन यहूदियों के ही कानून के मुताबिक उन्हें सज़ा दी थी जिस तरह वो यहूदी अपने दुश्मनों को सज़ा देते थे. इस तरह की सज़ा यहूदी और ईसाईयों द्वारा अपने दुश्मनों को देने का हुक्म आज भी बाइबल के लेविटिकस, अध्याय 20, आयत 10 मे आप देख सकते हैं. सो अगर सज़ा सख्त थी तो इसके लिए इस्लाम को दोष नहीं दिया जा सकता , यदि दोष ही दिया जाए तो वह यहूदियों के अपने कानून को जाएगा ॥
और क्योंकि बनू कुरैज़ा का फैसला उन यहूदियों की ही मांग पर नबी ﷺ ने नही किया था, इसलिए बनू कुरैज़ा को मिली सख्त सजा का दोष नबी ﷺ को नही दिया जा सकता बल्कि नबी ﷺ से नफरत या दुश्मनी के चलते बनू कुरैज़ा वालों ने नबी ﷺ से अपना फैसला न करवाकर, और नबी ﷺ से साद बिन मुआज़ का फैसला मानने का वादा लेकर अपना ही नुकसान कर लिया, वरना हमें पूरा यकीन है कि अगर बनू कुरैज़ा वालों ने अपना फैसला नबी ﷺ पर छोड़ा होता तो उन यहूदियों को आप ﷺ मौत की सज़ा तो न ही सुनाते , जैसे आप ﷺ ने पहले भी ऐसे ही अपराधों पर बनू केनुक़ाअ और बनी नज़ीर जैसे कबीलों को मौत की सजा न दी थी
फिर भी आप ﷺ ने मुसलमानों के खून के प्यासे इन बनू कुरैज़ा मे से भी कुछ की सज़ा माफ करवा दी थी, जैसे ज़ुबैर यहूदी और रिफ़ाआ बिन शमूईल यहूदी दोनों की जां बख्शी फरमा दी थी (तारीखे तबरी)
याद रखिए गुलाम बनाने या कत्ल करने की सजा उन्हीं स्त्री पुरुष और बच्चों को दी गई थी जो लोग युद्ध मे मुस्लिमों के विरुद्ध शामिल थे, और मुस्लिमों की हत्याओं के दोषी थे. और एक बात और याद रखनी चाहिए कि मुस्लिमों द्वारा गुलाम बनाए गए लोगों का कुरान और हदीस के स्पष्ट आदेशों के कारण, कभी किसी तरह से शोषण नहीं किया जाता था, जैसा गम्भीर शोषण गैरमुस्लिम अपने युद्धबंदियों के साथ उन्हें गुलाम बनाकर करते थे ॥
कुछ विरोधियों ने ये साबित करने के लिए कि मुस्लिमों ने बनू कुरैज़ा के बच्चों को मारा, अबू दाऊद शरीफ़ की रिवायत 39/4390 दिखाई कि बनू कुरैज़ा के युद्ध अपराधियों को परीक्षित किया व जिनके शरीर पर युवावस्था के बाल निकल आए थे उन्हे मृत्युदण्ड दिया गया जबकि जिनके शरीर पर ये बाल नही निकले थे उन्हें जीवित छोड़ दिया गया .
ज़रा वे खुद आँखे साफ कर के देखें कि हदीस से सिद्ध होता है कि केवल जवान पुरूषों को दण्ड दिया मुस्लिमों ने और कम उम्र लड़कों को अपराधी होने के बावजूद कड़े दण्ड से बचा लिया
जहाँ तक स्त्रियों और बच्चों की हत्याओं का प्रश्न है तो आजकल देख रहा हूँ कि साम्प्रदायिक दंगों के समय अल्पसंख्यकों के छोटे छोटे बच्चों को निर्ममता से काट डालने वालों की भर्त्सना तो छोड़िए, हमारे बंधुवर तो करोड़ों बच्चियों की भ्रूण हत्या, तान्त्रिकों द्वारा अनगिनत अबोध बच्चों की हत्या और धर्म के नाम पर अब तक जारी सती प्रथा पर भी मुंह नहीं खोलते, और हाय तौबा मचाते हैं मुस्लिमों द्वारा बनु कुरैज़ा के उन युवकों को मृत्युदण्ड दिए जाने पर जो कि मुस्लिमों की हत्या के दोषी थे.
वैसे जिस उम्र के यहूदी युद्ध अपराधियों को मुस्लिमों ने मृत्युदण्ड दिया आठ वर्ष पहले इसी उम्र के बलात्कारी को (निर्भया केस के नाबालिग 17 वर्षीय बलात्कारी के विषय मे) मृत्युदण्ड दिए जाने की मांग को लेकर देश के अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग और आम जनता ने आन्दोलन चलाया था. यदि कमउम्र के जघन्य अपराधियों को कड़े दण्ड का पक्ष लेना क्रूरता है तो फिर यही कहा जाएगा कि हमारे देश का बुद्धिजीवी समाज सबसे बड़ा क्रूर है ॥
खैर . इस्लाम मे किसी कमउम्र लड़के को युद्ध के योग्य और उसी तरह युद्ध अपराधी मानने की दो शर्तें हैं पहली शर्त ये कि लड़का पन्द्रह वर्ष की आयु पार कर चुका हो (देखिए अबू दाऊद, 39/4392) 15 वर्ष से आशय कि इस उम्र तक लड़के पूर्ण बढ़त, कद पा चुके होते हैं , एवं इसके बाद वे युवावस्था (प्यूबर्टी) को भी पा चुके हों, क्योंकि नबी स. ने निर्देश दिया है कि अल्लाह युवावस्था प्राप्त करने से पहले की आयु के लड़कों के कर्मो (पाप) का हिसाब नहीं करता (अबू दाऊद, किताब 39, हदीस 4384, 4385, 4386, 4387, 4388 और 4389) इसलिए इनके अपराधों पर मुस्लिमों को भी इन्हें गम्भीर दण्ड देने का अधिकार नहीं ॥
स्वयं अरब के गैरमुस्लिम भी 15 वर्ष की आयु से पहले लड़कों को युद्ध मे नही ले जाते थे क्योंकि जिक्र मिलता है कि जब इस्लाम का कोई विधान अरब मे नही आया था तब भी नबी ﷺ को पहली बार अपने चचाओं के साथ युद्ध मे तब जाना पड़ा था जब आप स. की उम्र 15 वर्ष थी . स्पष्ट है कि बनू कुरैज़ा के यहूदियों ने भी 15 वर्ष से ऊपर की आयु के लड़के लड़कियों को अपने साथ युद्ध मे शामिल किया था
खैर. इसलाम नियमानुसार जिन (15 वर्ष की आयु के) लड़कों की बढ़वार ही न हो पाई हो ऐसे लड़कों को तो आब्वियस ही है कि बच्चा मानकर छोड़ दिया जाने का नियम है. तो बनू कुरैज़ा के जिन लड़कों का कद अच्छी तरह बढ़ा हुआ था एवं जो मुस्लिमों के हत्यारे थे, केवल उन्ही की प्यूबर्टी को परीक्षित किया गया. और अबू दाऊद शरीफ़ 39/4390 को रिवायत करने वाले अतिया अल कुरैज़ी जो मुस्लिमों के हत्यारे थे और कद मे पूरे थे, लेकिन उनके जिस्म पर बाल न पाए जाने के कारण मौत की सजा से बच गए
यहां एक बात और स्पष्ट कर दी जाए कि जिन बच्चों को गुलाम बनाने का आदेश साद बिन मुआज़ रज़ि. ने दिया था उन बच्चों से आशय 15 वर्ष के वे लड़के थे जिन्होंने मुस्लिमों को युद्ध मे हानि पहुंचाई थी या मुस्लिमों के कत्ल भी किए थे, लेकिन इन लड़को के शरीर पर बाल न निकले होने के कारण इनके साथ सख्त व्यवहार नहीं किया गया. खैर स्पष्ट ये होता है कि किसी अबोध बच्चे को मुस्लिमों ने गुलाम नहीं बनाया, बल्कि समझदार और पर्याप्त उम्र के अपराधी लड़कों को सजा के तौर पर बंधक बनाया जैसे निर्भया का बलात्कार करने वाले नाबालिग बलात्कारी को जेल मे बन्द कर के रखा गया है उसके 17 वर्ष के कमउम्र होने पर भी उसे छोड़ नही दिया गया .
तो मै नही समझता कि इस केस मे मुस्लिमो से कोई गलती हुई जिन यहूदियों ने अपने बच्चों (यदि इन्हें बच्चा माना जाए) को युद्ध मे झोंक दिया गलती तो उनकी थी, वो बच्चे दुश्मनों के हाथों मारे जा सकते थे, उनका किसी भी तरह का शोषण हो सकता था, इन सारी फिक्रो को दरकिनार कर के जब खुद वे यहूदी अपने बच्चों को लड़ाई लड़ने के लिए ले आए थे तो फिर उन्होंने तो अपने बच्चों को मार ही डाला था. ये तो मुस्लिम थे जिन्होंने उन बच्चों को अपने पारिवारिक सदस्य सा बना लिया कोई और तो जाने क्या करता
और एक बहुत बड़ा झूठ एक भारी संख्या मे बनू कुरैज़ा के पुरूषों की हत्या मुस्लिमों द्वारा किए जाने का बोला जाता है, जो कि पूरी तरह अस्वीकार्य है, चूंकि इस्लाम मे जान के बदले जान का नियम है, तिस पर भी माफी को वरीयता दी गई है, तो उन यहूदियों द्वारा यदि 40-50 से अधिक मुस्लिम नहीं मारे गए थे तो मृत्युदण्ड भी इससे अधिक लोगों को नहीं दिया जा सकता था. उसपर इनमें से कई लोग अतिया की तरह अलग अलग कारणों से मौत की सजा से बच गए थे तो मौत की सजा पाने वालों का आंकड़ा 30-35 से ऊपर जा ही नही सकता ..!!
By- Zia imtiyaz