प्यारे नबी ﷺ ने खुदगर्ज़ इन्सानों की बनाई ज़ात पांत और ऊंच नीच की भर्त्सना करते हुए फरमाया था कि "अल्लाह के नज़दीक सारे इन्सान उसी तरह एक बराबर हैं, जैसे कंघी के तमाम दांत एक बराबर होते हैं "
नबी ﷺ की तमाम हयाते मुबारक (पवित्र जीवन) ही इंसानो के बीच नस्लभेद, ऊंच नीच, छोटे बड़े, और गुलाम और आका के बीच के नाइन्साफ फर्क को मिटाने मे गुज़री . बल्कि अपने अंतिम हज के समय दिए अभिभाषण मे भी आप ﷺ फरमा गए कि
"इसलाम मे न तो किसी अरबी को किसी ग़ैर अरबी पर कोई बड़ाई दी गई है, न किसी गैर अरबी को किसी अरबी पर, न गोरे को काले पर बड़ाई दी गई है, और न काले को गोरे पर, बड़ाई अगर किसी को है तो उसको, जो तक़वा व परहेज़गारी का व्यवहार अपनाने मे दूसरों से आगे है ,"
Imaam Ahmad, 22391; al-Silsilat al-Saheeh, 2700
यानी रंग, नस्ल, देश और वंश के कारण इस्लाम किसी व्यक्ति को दूसरों से बेहतर नहीं मानता, बल्कि उसे बेहतर मानता है, जिसके व्यवहार नेक हैं ,
इसके बावजूद आज भारतीय मुसलमानों को जात पांत और ऊंच नीच का विचार करते देखकर बड़ी मायूसी होती है कि कहाँ इस्लाम आया था दुनिया के तफरके (विभेद) मिटाने, और कहाँ खुद इसी दीन मे दुनिया के तफरके आकर पड़ गए हैं ॥
मुझे याद है एक दिन मेरे सबसे अजीज़ दोस्त ने मुझे फोन कर के पूछा कि क्या उसकी बिरादरी के लोगों को मस्जिद मे इमामत करने का हक नहीं है इस्लाम के हिसाब से ?
मैंने उसे कहा कि भाई, ये तो निरी जाहिलियत की बात हुई और ऐसी कोई इन्सानो के बीच फर्क पैदा करने वाली बात इस्लाम मे नहीं है ॥ दोस्त ने भारतीय मुस्लिमों के बीच बड़े प्रतिष्ठित मौलाना का नाम लेते हुए बताया कि उन्होंने ऐसा लिखा है कि अजलफ अर्थात् छोटी जाति के मुसलमानों को मस्जिद मे इमामत का अधिकार नहीं, ये अधिकार केवल अशरफ यानि उच्च जाति को है .
जब मैने इस विषय मे खोजबीन की तो ये खबर सही पाकर मुझे बड़ा धक्का पहुंचा कि आखिर उन मौलाना ने क्या सोचकर ऐसी बेबुनियाद बात इस्लाम पर थोपी जिसका इस्लाम से बिल्कुल ही ताल्लुक नहीं था ?
अफसोस, कि ज़ात पांत के ऐसे ही न जाने और कितने ही बेबुनियाद खयालात आज मुसलमानों के बीच फल फूल रहे हैं ।
वैसे एक बात पूरे दावे से कही जा सकती कि बर्रे सगीर के मुसलमानों मे ज़ात पांत की घुसपैठ पूरी तरह से भारतीय समुदाय से प्रेरित है , कि जिस तरह भारत मे ब्राह्मण दैवीय अंश के कारण, व क्षत्रिय शासक होने के कारण सवर्ण माने गए, और सेवक और शासित हेय जाति के, ठीक वैसे ही भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिमों मे भी नबी सल्ल. के वंशजों को और भारत पर शासन करने वाले मुगल, पठान, तुर्क और अरबों को ऊंची कौम मान लिया गया और भारत की ही छोटी और सामान्य जातियों से धर्म परिवर्तन कर के मुस्लिम बने लोगों को छोटी कौम का माना जाने लगा, जबकि ऐसी मान्यताओं को मानना सरासर गैर इस्लामी बात थी ॥
वैसे इस्लाम की अनेकानेक शिक्षाओं के कारण मुस्लिमों मे जात पांत के आगमन के बावजूद छुआछूत, और खाने पीने मे अलगाव जैसी बुराइयां नहीं आ सकीं, फिर भी जो थोड़ा बहुत आया भी है, यानी तथाकथित ऊंची मुस्लिम जातियों का घमण्ड, और स्वयंघोषित नीची मुस्लिम जातियों की गुटबाजी, ये भी इस्लाम मे पूरी तरह अस्वीकार्य हैं
इस्लाम समस्त मानव जाति को एक समान पवित्र मानता है और मनुष्य की अच्छाई और बुराई का निर्णय केवल उस मनुष्य के अच्छे और बुरे कर्मो के आधार पर लेता है, इसलिए किसी भी मुस्लिम को अपनी जाति पर बेजा घमण्ड हो, या किसी मुस्लिम के मन मे जाति को लेकर गुटबन्दी का ख्याल हो तो बिना रत्ती भर के शक के वो आदमी इस्लाम और नबी ﷺ की तालीम की तौहीन करने का गुनाहगार है
इस्लाम मे नस्लभेद पैदा होने की शुरुआत सम्भवत: इस विचार से हुई कि पैगंबर हजरत मोहम्मद ﷺ के वंशजो के शरीर मे पैगंबर मोहम्मद के रक्त का अंश मिला होने के कारण वे दैवीय आशीर्वाद से पवित्र होते हैं, जबकि पैगंबर के वंश से अलग कोई व्यक्ति उतना पवित्र और श्रेष्ठ नही हो सकता. अल्लाह भी शेष मुसलमानों से ज्यादा नबी ﷺ. के वंशजों से प्रेम करता है, इसीलिए दुरूद शरीफ़ मे सारे मुस्लिमो को नबी ﷺ के साथ आप ﷺ के वंशजों के लिए भी दुआ करने का आदेश है, अत: नबी ﷺ की आल (वंश) जिन्हें "सय्यद" कहा जाता है वो अल्लाह की नजर मे बाकी मनुष्यों से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ हैं .
लेकिन क्या ये बातें नबी ﷺ. द्वारा दी गई इस्लामी तालीम के अनुरूप ठहरती हैं ?
ज़ात बिरादरी की ये बातें मुसलमानों को इस्लाम की रूह से ही नाआश्ना किए डाल रही हैं, लिहाज़ा ज़रूरी है कि कुरआनी लुगत मे "आल" के मानी क्या हैं ये समझा जाए, और ये जाना जाए कि वो आले मुहम्मद ﷺ कौन हैं, जिन पर बरकतों और रहमतों के नाज़िल होने की दुआ हम रोज़ दुरूद शरीफ़ मे किया करते हैं ॥
दरअसल, शब्द "आल" को हमारे भाईयों ने बड़े संकुचित अर्थ मे लिया है . कुरआन पढ़िए तो पाएंगे कि हकीकत मे कुरआनी अलंकरण मे "आल" का मतलब सिर्फ किसी की जैविक संतान नहीं बल्कि जब ये शब्द "आल" विशेषकर किसी कौम के सरदार, किसी लीडर या किसी महात्मा से जोड़कर बोला जाए, तो समझ लीजिए कि उस सरदार के समस्त अनुयायियों को उस सरदार की आल कहा गया है
उदाहरण के लिए देखिए कुरान 40:46 मे फिरऔन की आल को मौत के बाद दण्ड का ज़िक्र है, लेकिन इस्लामी ज्ञान रखने वाले दोस्त जानते होंगे कि फिरऔन नि:संतान था और फिरऔन की पत्नी एक पुण्यात्मा थी, यानी यहाँ न फिरऔन की जैविक संतानों को दण्डित किए जाने का ज़िक्र है, न उसके परिवार को बल्कि फिरऔन के उन अनुयायियों को दण्डित किए जाने का ज़िक्र है जो फिरऔन के आदेश पर निर्दोष मासूमो की हत्या और जनता पर भयंकर अत्याचार किया करते थे .और अल्लाह ने इन्हीं अनुयायियों को कुरआन मे फिरऔन की आल कहा है ॥
अत: ये भी स्पष्ट है कि दुरूद पाक मे जो दुआ हम करते हैं, वो सिर्फ नबी ﷺ और उनकी संतानों के लिए नहीं, बल्कि नबी ﷺ और नबी ﷺ के समस्त आज्ञाकारी अनुयायियों के लिए करते हैं ॥
ये तो बात हुई कि दुरूद शरीफ़ मे केवल नबी ﷺ की संतानें ही नहीं बल्कि वे सारे मुस्लिम शामिल हैं जो भले कामों के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, फिर चाहे वो किसी भी वंश से हों और उनका नबी ﷺ के खानदान से दूर दूर तक का वास्ता न हो
इसके बरअक्स ये भी सोच का विषय है कि क्या नबी ﷺ के वंशज अनिवार्य रूप से पवित्र और श्रेष्ठ हैं, और इसलिए अनिवार्य रूप से दुरूद शरीफ़ मे शामिल हैं ?
नबी ﷺ के वंशज चाहे पापी ही क्यों न हों, अल्लाह उनसे विशेष प्रेम रखता है, ऐसा निराधार भ्रम पालने वालों को मैं याद दिलाना चाहूंगा कुरान मे एक बड़े नबी हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के बेटे का ज़िक्र, जो कि पापी था, और इसलिए जब वो जल प्रलय मे डूबा और हज़रत नूह ने अल्लाह को ये कहते हुए पुकारा कि ऐ अल्लाह मेरा बेटा मेरे घरवालों मे से था, ... तो अल्लाह की ओर से जवाब आया कि वो आपके घरवालों मे से नहीं था, और ऐसी बात न कहिए जिस बात का आपको ज्ञान न हो
Qur'an 11:46
यानि इस महान किताब मे अल्लाह ने खुद स्पष्ट कर दिया है कि अल्लाह किसी व्यक्ति को रक्त और वंश के आधार पर प्रेम और आशीर्वाद नहीं देता, बल्कि अल्लाह तो नबियों की जैविक सन्तानो को भी नबी ﷺ का सम्बन्धी नहीं मानता,
यदि ये सन्ताने पाप मे लिप्त रहती हों, तो स्पष्ट है कि कोई भी पापी व्यक्ति जिसका रक्त सम्बन्ध हकीकत मे नबी ﷺ से हो भी, वो नबी की आल नहीं है अल्लाह के नज़दीक, जब तक वक्त रहते तौबा न कर ले ...॥
अल्लाहु आलम ॥