कुछ हदीसों से प्रतीत होता है कि मुस्लिमों ने युद्ध में गैरमुस्लिमों को पराजित करने के बाद उनकी स्त्रियों को गुलाम बनाकर रख लिया था, व उनको उपपत्नी बनाने लगे थे.!
पर सबसे पहले ध्यान देने की बात ये है कि जो स्त्रियां पहले आज़ाद थीं, उन्हें गुलाम बनाकर रख लेना तो इस्लाम की प्रकृति के ख़िलाफ़ है ,
बुख़ारी शरीफ़ 2227 और अबू दाऊद शरीफ़ ने नबी ﷺ की हदीस है जिसमें किसी भी आज़ाद मर्द-औरत को गुलाम बनाना बहुत बड़ा गुनाह बताया गया है.
इसका अर्थ है कि युद्ध में जिन भी आज़ाद स्त्रियों को बंदी बनाया गया था, उन्हें मुस्लिमों ने घरेलू नौकरानी के तौर पर थोड़े समय रखने के बाद उनको पवित्र रूप रखते हुए ही आज़ाद भी कर दिया था.
दरअसल युद्ध मे पराजित लोगों को मुस्लिम दुश्मनी निकालने के लिए प्रताड़ित करने को नही बल्कि इस कारण दास बनाते थे क्योंकि एक तो उस समय युद्धबन्दियों को जेल में बंद करके रखने वाली वो व्यवस्था नही थी जो आज विश्व भर में प्रचलन में है, बल्कि उस समय युद्धबन्दियों को विजेता समुदाय के घरों में घरेलू नौकरों के तौर पर रखे जाने की व्यवस्था थी, जिस व्यवस्था की स्वीकार्यता होने के कारण इसका पालन मुस्लिमों ने भी खास उद्देश्यों से किया.
इन बंधकों के बदले मुस्लिम गैरमुस्लिमों से उनके पास बंधक मुस्लिम बन्दियों को छुड़ाने के समझौते कर सकते थे
जैसे कि सही मुस्लिम, किताब 19, नम्बर 4345 में मुस्लिमों के पास बंधक बने कबीले बनु फ़ज़ारा के युद्ध बन्दी स्त्री पुरुषों का ज़िक्र है जिनके बदले गैरमुस्लिमों से एक समझौता कर के मुस्लिम युद्ध बन्दियों को मुस्लिमों ने आज़ाद करवाया था.
इस प्रकार के बंधक स्त्रियों और पुरुषों से इस कारण कोई अपमानजनक व्यवहार भी मुस्लिम नही करते थे, ताकि यदि किसी समझौते के तहत गैरमुस्लिमों के यहाँ बन्दी मुस्लिमों को छुड़वाया न भी जा सके, तो भी उनके यहां बन्दी मुस्लिम बंधकों के साथ अच्छा व्यवहार करने की उन गैरमुस्लिमों को सन्मति मिले.
इसी नाते ऐसी युद्धबन्दी स्त्रियों के साथ भी मुस्लिम पक्ष का कोई व्यक्ति प्रणय निवेदन भी नही कर सकता था, शारीरिक संबंध बनाने की बात तो बहुत दूर है, ये बात भी बनु फ़ज़ारा के युद्ध बंधकों वाली ही रिवायत में पता चल जाती है
जब एक मुस्लिम व्यक्ति को घरेलू नौकरानी के तौर पर दी गई बनु फ़ज़ारा की एक सुंदर युद्धबन्दी स्त्री पसन्द आ गई थी पर वे इस हदीस में कम से कम तीन स्थानों कसम खाकर कहते कि मैंने उस स्त्री को कभी भी नही छुआ. और अंततः गैरमुस्लिमों के साथ मुस्लिमों का समझौता हुआ और दोनों तरफ के युद्धबन्दियों को एक दूसरे के बदले रिहा कर दिया गया, और वो स्त्री जैसी पवित्र मुस्लिमों के पास गुलाम बनकर आई थी, वैसी ही पवित्र उसके लोगों के पास वापस पहुँचा दी गई
हां इनमे से कुछ स्त्रियां जो आज़ाद होने के बाद किसी मुस्लिम से विवाह करना चाहती थीं, या वो स्त्री जो पहले से ही ग़ुलाम थी, उसने अपने मुस्लिम मालिक से विवाह करने की सहमति दे दी तो उनके विवाह करा दिए जाते थे, बुख़ारी शरीफ़ की किताब-86, हदीस-100 में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि जब तक एक ग़ुलाम स्त्री किसी से विवाह के लिए सहमति न दे उसका विवाह नही किया जा सकता
तो सच्चाई यह है कि एक तो ज़्यादातर युद्धबन्दी आज़ाद स्त्रियां उसी तरह आज़ाद कर दी जाती थीं जिस तरह बनु फ़ज़ारा की वो युवती या उनके आज़ाद होने के बाद यदि वो विवाहिता नही थीं और किसी मुस्लिम से विवाह की इच्छुक होती थीं, तो उनका पूरे सम्मान से विवाह करवाया जाता था, और इसमें जबर्दस्ती की कोई जगह नहीं थी