इस्लाम को छोड़ने की घोषणा करने वाले लोग हर साल होली दिवाली पर ये बात ज़रूर कहते हैं कि हमने इस्लाम इसलिए भी छोड़ दिया क्योंकि इस्लाम में हमें हिन्दू भाइयों के त्योहारों में हिस्सा लेने पर दोज़ख़ का डर दिखाया जाता था, तो जो मज़हब रंग और आतिशबाजी जैसी आनन्द की चीज़ों से भी ख़तरे में पड़ जाता है, हमने उस मज़हब को छोड़ देना बेहतर समझा,
इन भाइयों की मानसिक स्थिति को मैं बहुत अच्छी तरह समझ सकता हूँ, क्योंकि मैंने खुद एक अरसे तक यही सब सोचते हुये इस्लाम से दूर हो गया था
ये बातें बहुत बाद में समझ आईं कि इस्लाम को हमारे सामने गलत तरीके से पेश किया जाता है, इस्लाम को पेश करने वाले इस्लाम की भली सीखों का ज़िक्र नही करते हैं, और छोटी छोटी बातों पर दोज़ख़ की ऐसी भयंकर सज़ाओं का डर फैलाते हैं कि एक सादी प्रकृति का व्यक्ति आतंकित होकर ही रह जाता है.
जबकि अपने अनुभव से कह रहा हूँ कि अगर इस्लाम की भली बातों का ज़िक्र ही ज़्यादा किया जाए तो बन्दा खुद ब खुद इस्लाम की तरफ लपकेगा और दूसरे मज़ाहिब की आंखों को अच्छी लगने वाली चीज़ों की तरफ़ उसका रुझान नही रहेगा !
बहरहाल, अपने इस्लाम त्यागने वाले भाइयों से मेरा ये कहना है कि होली के रंग या दिवाली के पटाखों से इस्लाम को खतरा नहीं है, आप इस्लाम में बने रहके भी इन खेलों में हिस्सा ले सकते हैं, इसके लिए इस्लाम को छोड़ने की ज़रूरत नहीं है
देखिये, किन्हीं भी गैरइस्लामी त्योहारों में आनन्द लेने के लिए कुछ खेलकूद के रिवाजों को बनाया गया होता है, इन आनन्द वाले खेलों की तरफ नई उम्र के मुस्लिम बच्चों का रुझान होना फ़ितरी बात है,
जहां तक मेरी स्टडी और ऑब्जर्वेशन है, किसी भी कल्चर में जिन रिवाजों का सम्बंध पूजापाठ से न हो, बल्कि ज़्यादा सम्बन्ध क्षेत्रीय रहन सहन रुचि और संस्कृति से हो, इस्लाम इंसान को ऐसी मुबाह और तफरीही चीज़ों से काटने का पैरोकार नही है, बल्कि इस्लाम सिर्फ इंसान के अक़ीदे को कुफ्र और शिर्क से पाक करने और हराम ठहराए गए कामों से रोकने का पैरोकार है,
मदीना के लोग जब इस्लाम नही लाये थे उनके यहां दो सालाना त्यौहार मनाए जाते थे जिसमें ये लोग खेलते नाचते और गाते बजाते थे, बाद में जब नबी ﷺ वहां पहुँचे तो वहां के मुसलमानों को बताया कि इनसे बेहतर दो त्योहार अल्लाह की तरफ से तुम्हे दिए गए हैं,
बुख़ारी और मुस्लिम से पता चलता है कि मदीना में एक ईद (ईद का शाब्दिक अर्थ कोई भी त्योहार है, अरबी में गैरमुस्लिम त्योहारों के लिए भी ईद का शब्द प्रयोग किया जाता था) के दिन माँ आयशा रज़ि० के घर में दो अंसार लड़कियां गैरइस्लामी दौर का "बुआत की जंग" का गीत गा रही थीं और कोई वाद्ययंत्र बजा रही थीं, हज़रत आयशा उन्हें सुन रही थीं, और नबी सल्ल० उनके घर में मुँह दूसरी ओर करके लेटे हुए थे, जब आयशा रज़ि० के पिता अबूबक्र रज़ि० घर में आये तो क्रोध करने लगे, तब नबी सल्ल० ने हज़त अबूबक्र रज़ि० को रोक दिया और उन लड़कियों को गाने बजाने दिया, फिर इस दिन हब्शी लोग ढाल और भालों के साथ करतब दिखाने का खेल करते थे, नबी सल्ल० ने हज़रत आयशा को उनकी इच्छा पर ये करतब भी उनका दिल भर जाने तक दिखाए और करतब दिखाने वालों का उत्साह भी ये कह कहकर बढ़ाते रहे "ओ बनी अफरीदा, लगे रहो" (सही बुख़ारी, किताब-15 हदीस नम्बर-70)
इस हदीस में तो पता नहीं चलता पर एक दूसरी हदीस ये कहती है कि उस दिन कोई इस्लामी ईद थी
ख़ैर, हो सकता है ईद इस्लामी ही हो, लेकिन त्योहार मनाने के ये रिवाज़ इस्लामी नही हैं, ये रिवाज़ पहले से मनाए जाते रहे गैरइस्लामी त्योहार के थे, तो क्या त्योहार की खुशी मनाने के इन गैरइस्लामी रिवाज़ों गाना बजाना सुनने, और कलाबाजी देखने से नबी ﷺ ने हज़रत आयशा रज़ि० को दूर रहने का हुक्म दिया ? नही, बल्कि उन्होंने खुद उन्हें वो खेल तमाशे दिखाए, और खेल दिखाने वालों का उत्साहवर्धन भी करते रहे.... क्योंकि उन खेल तमाशों, गीत वगैरह का ताल्लुक आनन्द लेने से था शिर्क और कुफ्र से नही था
वैसे पूरा वृतांत पढ़ने से तो यही लगता है कि उपरोक्त हदीस में कोई गैरइस्लामी त्योहार था, पर ये तर्क दिया जा सकता है कि उस दिन इस्लामी ईद थी, इस्लामी त्योहार पर मनोरंजन के काम कर सकते हैं, लेकिन जिस दिन गैरमुस्लिम त्योहार मना रहे हों उस दिन उनसे अलग दिखने के लिए आपको उनके किसी भी रिवाज़ में पार्टिसिपेट नही करना चाहिए, ताकि वो अपने शिरकिया अक़ीदे पर मुतमईन न हों
पर जब हम बुख़ारी, पर ये हदीस पढ़ते हैं कि जब नबी ﷺ मदीना आये तो यहां यहूदियों को दसवीं मुहर्रम का रोज़ा इस ख़ुशी में रखते देखा कि उस दिन हज़रत मूसा को फ़िरऔन से बचाया गया था, तो आप ﷺ भी इस दिन रोज़ा रखने लगे कि हम तो मूसा अलैहिस्सलाम के ज़्यादा क़रीब हैं, ये रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ होने से पहले की बात है, पर क़ुरआन में अल्लाह की तरफ से न मुहर्रम के रोज़े का हुक्म रमज़ान के फ़र्ज़ होने के पहले आया था और न रमज़ान के बाद में आया,
ये एक ऐच्छिक रोज़ा है मुसलमान के लिए, वैसे ये तो इस्लाम में एक धार्मिक रिवाज़ पैदा करने की मिसाल है जिसका अधिकार सिर्फ़ नबी ﷺ को था,
पर इस मिसाल से ये भी साबित होता है कि गैरमुस्लिमों के त्योहारों का बायकाट, और उनके त्योहारों पर उनके हर रिवाज से इसलिये विरक्त रहना कि कहीं उन्हें अपने शिरकिया मज़हब में बने रहने का बढ़ावा न मिले, ये नबी ﷺ की सुन्नत से साबित नही होता,
बल्कि उस मौके पर नबी ﷺ ने अपनी ये कोशिश की कि इस्लाम और यहूदियों में समरुपता को उभारा जाए जिससे गैरमुस्लिमों के दिल में भी मुस्लिमों के लिये जगह बने, एकता और प्रेम बने
निस्संदेह इस हदीस से हम ये सीख ले सकते हैं कि गैरमुस्लिमों के त्योहार पर किसी ग़ैरधार्मिक गतिविधि में अगर हम सौहार्द के उद्देश्य से भाग ले लेते हैं तो ये गुनाह नही है
इस्लाम हमें नेक आदत वाले गैरमुस्लिमों से अच्छे रिश्ते बनाने का, उनके साथ नेक सुलूक और अच्छे ढंग से बातचीत करने का ही हुक़्म देता है, कुफ़्र और शिर्क या हराम के कामों को छोड़कर सब जगह नेक गैरमुस्लिमों के साथ रहने की इजाज़त मुसलमान को है, .
हमारे यहाँ होली और दीवाली इन दोनों त्योहारों के ख़ास रिवाज़ यानी रंग खेलना और आतिशबाजी करना ये रिवाज इंसान ने अपनी ज़ाती ख़ुशी को बढ़ाने के लिये ईजाद किये हैं, ये रिवाज़ उनकी पूजा का हिस्सा नही हैं, और पता ये भी चलता है कि ये रिवाज़ शुरू में इन त्योहारों में थे भी नहीं, इन खेलकूद के रिवाज़ों को वर्तमान रूप मुस्लिम बादशाहों और सूफ़ी सन्तों द्वारा ही दिया गया है,
गौर करें तो इन त्योहारों का ताल्लुक किसी एक मज़हब से भी नही है, बल्कि भारत की ज़मीन के कल्चर से है, ये किसी एक मज़हब से जुड़े त्योहार होते तो इन्हें सिर्फ़ एक मज़हब के ही लोग मनाते, लेकिन होली और दिवाली सिर्फ हिन्दू नही बल्कि सिख भी, जैन, आदिवासी और भारत के कई समुदायों के लोग अलग अलग कहानियां इन त्योहारों के पीछे मानकर, मनाते है, मतलब ये कि इस खास त्योहार को अपने से जुड़ा बताने के लिए लोगों ने अलग अलग कहानियां बाद में इस त्योहार पर फिट कर दी हैं
विशेषज्ञों की ये मान्यता है कि ये दोनों त्योहार मूलतः भारत के किसानों के त्योहार थे, होली रबी की फसल तैयार होने का और दिवाली खरीफ की फसल काटने का त्योहार है,
तो अगर आप के बच्चे अपने दोस्तों के साथ रंग खेलना चाहें, या दिवाली में उनके पास आतिशबाजी देखने जाएं, तो इससे इस्लाम पर कोई फ़र्क नही पड़ता.
हां जुआ, नशा, अश्लील कर्म जो इन त्योहारों में किये जाने लगे हैं, इनसे ज़रूर इस्लाम को कड़ी आपत्ति है, और इन चीज़ों से बच्चों सख़्ती से रोका जाना चाहिए,
ये चरित्र को दूषित करने वाली चीजें हैं जिनकी तरफ इंसान का फ़ितरी/प्राकृतिक झुकाव नही होता है, तो आशा है कि मेरे नास्तिक दोस्तों को इस्लाम की इन बातों से आपत्ति नही होगी, और इन बातों को वो बेवजह का बंधन नहीं समझेंगे !!