अस्ल मे सवाल उठाते समय लोगों के जहन मे दासों के साथ किया जाने वाला वो दुर्व्यवहार रहता है जो विश्व भर के गैर मुस्लिम समाजों ने अपनाया हुआ था
गैरमुस्लिम समाज मे वास्तव मे दासों की हालत चिंतनीय थी चाहे वो भारत के शूद्र हों या फिर प्री इस्लामिक अरब के गुलाम हों उनकी स्थिति उनके शासक वर्ग ने एक पालतू जानवर से अधिक नहीं रखी थी, जिसे भूखा रखने, उसकी शक्ति से बहुत अधिक काम उससे लेने , उसको किसी भी छोटी मोटी बात पर बुरी तरह पीटने, यहां तक कि उसके हाथ पैर तोड़ डालने और उसकी हत्या तक कर डालने को भी उन समाजों मे बुरा नही समझा जाता था , दास स्त्री को इन सारे अत्याचारों के साथ ही ये नर्क भी भोगना पड़ता था कि उसे खरीदने वाला उसका स्वामी खुद तो उस स्त्री की इच्छा की परवाह किए बिना जब तब उसके शरीर से खेला ही करता था , साथ ही अपने दोस्तों और मेहमानों के आगे भी दासी को पेश कर देता था ॥
इस्लाम ने दास प्रथा को तत्काल बन्द नहीं करवाया, लेकिन इस्लाम ने गुलामो के साथ होने वाली उपरोक्त तमाम अमानवीय और गन्दे कामों को बन्द करवाया
गुलाम पर हाथ उठाने की मनाही
Muslim,15:4088
गुलाम की ताकत से ज्यादा उसपर काम का बोझ न डालना, और अगर गुलाम को कोई मेहनत वाला काम सौंपना तो मालिक को स्वयं उस गुलाम के साथ उस काम मे हाथ बंटाने का हुक्म Muslim,15:4094
मालिक को खुद कम खाना खाकर गुलाम को भरपेट खाना खिलाने की तालीम
Muslim,15:4096
गुलाम स्त्री के साथ विधिवत विवाह करने के बाद ही उससे सम्बन्ध बनाने और विवाह से पहले एक मुस्लिम पुरुष की दासी अपना सतीत्व बनाए रख सके ये व्यवस्था क़ायम की गई Quran 4:25
और गुलाम स्त्रियों को व्यभिचार के लिए विवश न करने का हुक्म Quran 24:33
इस्लाम ने गुलामो के लिए ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित की कि यदि कोई मुस्लिम ने किसी गुलाम को खरीदे तो फिर उस गुलाम के कष्ट भूली भूली बिसरी बात हो जाएं, और वो गुलाम उस मुसलमान के घर मे उसी हैसियत से रहे जैसे एक घर मे मोहब्बत करने वाले बड़े भाई के साथ उसके छोटे भाई रहते हैं.
नबी करीम ﷺ ने फरमाया:
“तुम्हारे गुलाम तुम्हारे भाई हैं जिन्हें अल्लाह ने तुम्हारे संरक्षण मे दिया है ”
Muslim, 15:4094
इस्लाम ने पूर्णतः
हराम ठहराकर तत्काल दास प्रथा को बन्द न करवाया. इसके पीछे एक बहुत बड़ा कूटनीतिक उद्देश्य ये था कि मुसलमान लोग बिना किसी युद्ध या विरोध, शांतिपूर्ण ढंग से उन गुलाम स्त्री पुरूषों को खरीदकर उन्हें आज़ाद करवा सकें, इस व्यवस्था का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण हजरत बिलाल रज़ि. का है . हज़रत बिलाल रज़ि. को उनपर घोर अत्याचार करने वाले उनके काफिर मालिक से खरीदकर हजरत अबूबक्र रज़ि. ने आज़ाद करवाया था
हाँ, अपना धन खर्च कर के दास को खरीदने वाले मुस्लिम, गुलाम को तत्काल आजाद करने के हुक्म को खुद पर अनावश्यक बोझ न समझने लगें, इसलिये खरीद कर तत्काल नही, लेकिन अनेक बहानों से गुलामों को आजाद करने के आदेश क़ुरआन में दिए गए हैं.
सन्दर्भ के लिए क़ुरआन 4:42, 5:89, 58:3 और 90:13 देखिये
और बीच का जितना समय गुलाम अपने मुस्लिम मालिक की सेवा में रहे वो प्रताड़ित न किया जाए इसकी व्यवस्था में वो सारे आदेश दिए गए जो मैंने पहले बताये.
और कुरान मे इस को बड़ा ही पुण्य कार्य बताया गया है कि किसी गुलाम को आजाद कराने मे उसकी सहायता की जाए क़ुरआन 9:60
अस्ल मे 1400 साल पहले जब अरब मे इस्लाम के नियम दोबारा से स्थापित किए गए उस समय दुनियाभर मे सिर्फ राजशाही और सामन्त सत्ता की व्यवस्था ही लागू थी और दास प्रथा उन्मूलन की बात सिर्फ इस्लाम जैसी लोकतांत्रिक व समाजवादी व्यवस्था मे ही पनप सकती थी,
पर उस समय मुस्लिम संख्या मे बहुत कम थे, और इस्लामी नियमों को गैर मुस्लिम मानने के लिए कतई तैयार नहीं थे उस पर अगर इस्लाम गुलामो को खरीदने पर रोक लगा देता तो फिर मुस्लिम उन गुलामो को इतनी सरलता से आज़ाद नही करवा सकते थे जैसे उन्होंने आज़ाद करवाया, इस्लाम में दासों को ख़रीदकर रखने की अनुमति न होती तो दासों के साथ भले व्यवहार की शिक्षाओं का पालन गैरमुस्लिम तो करते नही . पर ये मानवीय प्रवृत्ति है कि जो चीज़ें वो नसीहतों से नही सीखते, पर दूसरे समुदायों में उसी शिक्षा की वजह से अच्छा व्यवहार चलते और उसके अच्छे परिणाम मिलते देखते हैं तो उन बातों से प्रभावित होते हैं और उन व्यवहारों को सहर्ष आत्मसात कर लेते हैं, गुलामों के साथ अच्छे, सहृदय व्यवहार की शिक्षा देने के पीछे इस्लाम का ये उद्देश्य भी था कि इसे देखकर गैरमुस्लिम समुदाय भी अपने गुलामों के साथ अच्छा व्यवहार करने को प्रेरित हों
समझ आता है इस्लाम मे तत्काल हराम ठहरा कर दासो को खरीदने पर इसलिये रोक नहीं लगाई गई थी, ताकि गैरइस्लामी व्यवस्था में प्रताड़ित किये जा रहे दासों को तत्काल इस्लामी व्यवस्था में लाया जा सके, उनके साथ अच्छा व्यवहार करके दूसरे समुदायों को भी गुलामों से अच्छा व्यवहार करने को प्रेरित किया जा सके, और धीरे ही धीरे दास व्यवस्था को ख़त्म करते रहा जा सके, क्योंकि एक मुस्लिम द्वारा ग़ुलाम को खरीद कर उसे दोबारा बेचने की व्यवस्था नही थी, उसे सिर्फ़ आज़ाद करने का ही आदेश इस्लाम में दिया गया है. दूसरी ओर, हदीस साहित्य में किसी भी आजाद स्त्री या पुरुष को दास बनाना महापाप बताया गया है, किसी व्यक्ति को ग़ुलाम के तौर पर बेचकर उसकी क़ीमत वसूलना इस्लाम मे महापाप बताया गया है देखें बुख़ारी शरीफ़, किताब-36, हदीस-470
जिससे स्पष्ट है कि इस्लाम दास व्यापार को उत्साहित नही करता बल्कि नकारता है, दास प्रथा को अपनी ओर से इस्लाम ने खत्म करते जाने के नियम बनाये पर शेष गैर इस्लामी विश्व द्वारा बनाये गए दासों को इस्लामी व्यवस्था में लाकर उनका जीवन सुधारने का मार्ग खुला रखा, इस्लाम ने तत्कालीन दास व्यवस्था को निस्संदेह स्वीकार किया था, उसको बाकी तत्कालीन समुदायों की तरह ही खुद भी क़ानूनी मान्यता दे दी थी पर उसके पीछे दासप्रथा के विरुद्ध ही उद्देश्य निहित थे, ये बात आप इस्लाम की दासों के लिये बनाई गई व्यवस्थाओं और ऐतिहासिक घटनाओं के अध्ययन के बाद अच्छी तरह समझ सकते हैं।।