मुस्लिमों पर दस स्त्रियों के साथ गलत व्यवहार के आरोप ।

इस्लाम के विषय में कुछ विरोधी अक्सर कुछ हदीसों की गलत व्याख्या करके ये सिद्ध करने के प्रयास में लगे रहते हैं कि मुस्लिमों ने युद्ध में गैरमुस्लिमों को पराजित करने के बाद उनकी स्त्रियों को गुलाम बनाकर रख लिया था, व उनके साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाते थे

कुछ अतिउत्साही विरोधी ये भी कहते मिलते हैं कि मुस्लिमों ने युद्ध में जीती स्त्रियों को मंडी लगाकर वहां निवस्त्र करके उन्हें बेचने की भी प्रथा बनाई थी .

दरअसल ऐसे तमाम आरोप लगाने वाले लोग इस कुंठा में ये आरोप लगाते हैं कि खुद आरोप लगाने वालों की प्राचीन सभ्यता में स्त्रियों को भोग की वस्तु समझा गया और युद्ध में जीती हुई स्त्रियों के सतीत्व को नष्ट कर डालने में कोई बुराई नहीं समझी गई.  स्त्रियों को निवस्त्र होने पर पर मजबूर किया गया.  इसी हीनताबोध को दबाने के लिए ऐसे लोग इस्लाम पर झूठे आरोप लगाकर आक्रामक रहा करते हैं.

खैर इस्लाम के विषय में उठाई आपत्तियों के उत्तर देता हूँ,  सबसे पहले ध्यान देने की बात ये है कि जो स्त्रियां पहले आज़ाद थीं, उन्हें गुलाम बनाकर रख लेना तो इस्लाम की प्रकृति के ख़िलाफ़ है,  बुख़ारी शरीफ़ और अबू दाऊद शरीफ़ ने नबी ﷺ की हदीस है जिसमें किसी भी आज़ाद मर्द-औरत को गुलाम बनाना बहुत बड़ा गुनाह बताया गया है. यानी स्त्रियों की मंडी लगाने वाला आरोप तो पूरी तरह कपोल कल्पित ही सिद्ध होता है

हदीस साहित्य से जो वास्तव में सिद्ध होता है वो ये है कि युद्ध में जिन भी आज़ाद स्त्रियों को मुस्लिमों द्वारा बंदी बनाया जाता था, उन्हें मुस्लिमों ने घरेलू नौकरानी के तौर पर थोड़े समय रखने के बाद उनको पवित्र रूप रखते हुए ही आज़ाद भी कर दिया जाता था.

दरअसल युद्ध मे पराजित लोगों को मुस्लिम दुश्मनी निकालने के लिए प्रताड़ित करने को नही बल्कि इस कारण दास बनाते थे क्योंकि उस समय की यही प्रथा थी, कि युध्द लड़ने आये तमाम प्रतिपक्षी योद्धाओं को युद्ध हराकर बन्दी बना लेने पर ही युद्ध समाप्त माना जाता था, यदि मुस्लिम किसी युद्ध में हारते थे तो उन्हें भी बन्दी बना लिया जाता था, मुस्लिमों के पास शांति बनाने के लिए पहले से चली आ रही परम्परा पर चलने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था, लेकिन मुस्लिमों ने फिर भी इस परंपरा की बुराइयों को दूर कर के इसे अपनाया था.  उस समय युद्धबन्दियों को जेल में बंद करके रखने वाली वो व्यवस्था नही थी जो आज विश्व भर में प्रचलन में है, बल्कि उस समय युद्धबन्दियों को विजेता समुदाय के घरों में घरेलू नौकरों के तौर पर रखे जाने की व्यवस्था थी,  जिस व्यवस्था की स्वीकार्यता होने के कारण इसका पालन मुस्लिमों ने भी खास उद्देश्यों से किया. इन बंधकों के बदले मुस्लिम गैरमुस्लिमों से उनके पास बंधक मुस्लिम बन्दियों को छुड़ाने के समझौते कर सकते थे जैसे कि सही मुस्लिम, किताब 19, नम्बर 4345 में मुस्लिमों के पास बंधक बने कबीले बनु फ़ज़ारा के युद्ध बन्दी स्त्री पुरुषों का ज़िक्र है जिनके बदले गैरमुस्लिमों से एक समझौता कर के मुस्लिम युद्ध बन्दियों को मुस्लिमों ने आज़ाद करवाया था.  इस प्रकार के बंधक स्त्रियों और पुरुषों से इस कारण कोई अपमानजनक व्यवहार भी मुस्लिम नही करते थे, ताकि यदि किसी समझौते के तहत गैरमुस्लिमों के यहाँ बन्दी मुस्लिमों को छुड़वाया न भी जा सके, तो भी उनके यहां बन्दी मुस्लिम बंधकों के साथ अच्छा व्यवहार करने की उन गैरमुस्लिमों को सन्मति मिले.   इसी नाते ऐसी युद्धबन्दी स्त्रियों के साथ भी मुस्लिम पक्ष का कोई व्यक्ति प्रणय निवेदन भी नही कर सकता था, शारीरिक संबंध बनाने की बात तो बहुत दूर है, ये बात भी बनु फ़ज़ारा के युद्ध बंधकों वाली ही रिवायत में पता चल जाती है जब एक मुस्लिम व्यक्ति को घरेलू नौकरानी के तौर पर दी गई बनु फ़ज़ारा की एक सुंदर युद्धबन्दी स्त्री पसन्द आ गई थी पर वे इस हदीस में कम से कम तीन स्थानों कसम खाकर कहते कि मैंने उस स्त्री को कभी भी नही छुआ.   और अंततः गैरमुस्लिमों के साथ मुस्लिमों का समझौता हुआ और दोनों तरफ के युद्धबन्दियों को एक दूसरे के बदले रिहा कर दिया गया, और वो स्त्री जैसी पवित्र मुस्लिमों के पास गुलाम बनकर आई थी, वैसी ही पवित्र उसके लोगों के पास वापस पहुँचा दी गई

हां इनमे से कुछ स्त्रियां जो आज़ाद होने के बाद किसी मुस्लिम से विवाह करना चाहती थीं, या वो स्त्री जो पहले से ही ग़ुलाम थी, उसने अपने मुस्लिम मालिक से विवाह करने की सहमति दे दी तो उनके विवाह करा दिए जाते थे, बुख़ारी शरीफ़ की किताब-86, हदीस-100 में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि जब तक एक ग़ुलाम स्त्री किसी से विवाह के लिए सहमति न दे उसका विवाह नही किया जा सकता

इसी तरह पवित्र क़ुरआन में बड़ी स्पष्टता से आदेश दिए गए हैं कि यदि कोई मुस्लिम अपने यहां गुलाम के तौर पर कार्यरत किसी स्त्री से सम्बन्ध बनाना चाहे तो उससे विधिवत विवाह करने व जीवन भर के लिए उस स्त्री का साथ देने के लिए प्रतिबद्ध होने के बाद ही वो उस स्त्री से सम्बन्ध बना सकता है, और विवाह से पहले एक मुस्लिम पुरुष की दासी अपना सतीत्व बनाए रख सके ये व्यवस्था क़ायम की गई 
क़ुरआन 4:25

और साथ ही गुलाम स्त्रियों को किसी भी तरह के व्यभिचार पर विवश न करने का हुक्म इस्लाम मे दिया गया.   यानी शत्रु की भी स्त्री के सम्मान और सतीत्व की रक्षा करने का मुस्लिमों को स्पष्ट आदेश दिया गया.
क़ुरआन 24:33

युद्ध में बन्दी बनाई गई स्त्रियों से मुस्लिम कैसा व्यवहार करते थे इस बात का अनुमान एक अन्य युद्ध, यानी "अल मुरैसी" के युद्ध में बन्दी बनीं जुवैरिया बिन्त हारिस रज़ि० के वृत्तांत से भी आप लगा सकते हैं, इनके पति इसी युद्ध में मारे गए थे और ये विधवा हो गई थीं, इन्हें दासी के रूप में एक सहाबी हज़रत साबित बिन क़ैस रज़ि० को दिया गया था, पर हज़रत जुवैरिया रज़ि० ऐश्वर्य में पली बढ़ी थीं उन्हें घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करने में असुविधा होने लगी और वे फ़रियाद लेकर नबी ﷺ के पास गईं नबी ﷺ ने उनकी विपदा सुनकर उनकी आज़ादी की क़ीमत चुका दी, फिर आप ﷺ ने हज़रत जुवैरिया रज़ि० को विवाह का प्रस्ताव दिया जिसे स्वीकार करके हज़रत जुवैरिया रज़ि० ने नबी ﷺ से विवाह कर लिया व मुसलमानों के मध्य सबसे ज्यादा सम्माननीय महिलाओं में से एक बन गई थीं इसके साथ ही उनके पिता और बनु मुस्तलिक़ के अन्य कई बंधकों को भी मुस्लिमों ने आज़ाद कर दिया, बाद में इन लोगों ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया 
अबू दाऊद, किताब-30, हदीस-3920

क्या ऐसे उदाहरणों को देखते हुए आप यह सोच भी सकते हैं कि मुसलमानों ने युद्धबन्दी पुरुषों के साथ किसी तरह का ज़ुल्म किया या युद्धबन्दी स्त्रियों या दासियों के साथ कोई अशोभनीय व्यवहार किया होगा ?

बल्कि सच्चाई यह है कि एक तो ज़्यादातर युद्धबन्दी आज़ाद स्त्रियां उसी तरह आज़ाद कर दी जाती थीं जिस तरह बनु फ़ज़ारा की वो युवती या उनके आज़ाद होने के बाद यदि वो विवाहिता नही थीं और किसी मुस्लिम से विवाह की इच्छुक होती थीं, तो उनका पूरे सम्मान से विवाह करवाया जाता था, और इसमें जबर्दस्ती की कोई जगह नहीं थी.   इस्लाम शर्म, तहज़ीब, स्त्रियों के मान सम्मान की सुरक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देने वाला धर्म है. और धर्म से जुड़ाव रखने वाले मुस्लिमों ने हमेशा इन नियमों का पालन भी किया है !