क्या काबा शरीफ़ को मूल रूप से एक मूर्ति स्थल माना जाता था ?

काबा के विषय में हमारे कुछ भाइयों को बड़ी पीड़ा है कि काबा मूल रूप से एक मूर्ति स्थल था, जिस पर पैग़म्बर मोहम्मद ﷺ ने एक दिन जबरन अधिकार कर के काबा के भीतर की मूर्तियों को ध्वस्त कर डाला.   इन भाइयों के हिसाब से काबा के भीतर जमाई गई मूर्तियों को वहां से हटाना अन्याय और अत्याचार था क्योंकि काबा में हमेशा से मूर्तियां थीं और काबा के किसी निराकार ईश्वर के उपासना स्थल होने का जो दावा पैग़म्बर ﷺ ने किया था वो केवल अनुमान या झूठ पर आधारित था !

हम कहते हैं कि काबा को मूलतः मूर्तिस्थल मानना दरअसल हमारे इन भाइयों का पूर्वाग्रह है.   क्योंकि उस समय के इतिहास और क़ुरआन के प्रमाणों से सिद्ध होता है कि क़ाबा अदृश्य ईश्वर, सर्वशक्तिमान अल्लाह का उपासना स्थल था इस बात को वहां के मूर्तिपूजक भी स्वीकारते थे, 

ये बात सबसे पहले पता चलती है कि नबी ﷺ के जन्म से भी पूर्व क़ाबा शरीफ़ पर अब्रहा के आक्रमण की घटना से,  जब अब्रहा भारी लश्कर लेकर क़ाबा को ध्वस्त करने आगे बढ़ा, और मक्का के नगरवासी बेहद चिंतित हो कर क़ुरैश के सरदार हज़रत अब्दुल मुत्तलिब के पास पहुँचे तो अब्दुल मुत्तलिब ने नगरवासियों से ये कहा कि हम अपने सामान की रक्षा करें और काबा अल्लाह का घर है, तो अल्लाह ही इसकी रक्षा करेगा, उनकी इस बात को मानकर समस्त नगरवासी काबा को छोड़कर दूर चले गए थे,  इस बात से सिद्ध होता है कि मक्का के लोग पैग़म्बर मोहम्मद ﷺ के जन्म से पहले से क़ाबा को अल्लाह का ही उपासना स्थल मानते थे और अल्लाह को सर्वोच्च ईश्वर भी स्वीकारते थे, इसी बात पर विश्वास के कारण वो क़ाबा को छोड़कर दूर चले गए, व उन्होंने अब्रहा के लश्कर को आश्चर्यजनक रूप से तहस नहस होते भी देखा,  जिसने उन लोगों का अल्लाह की शक्ति पर और विश्वास बनाया. इसी विश्वास के कारण मक्कावासी अल्लाह के विरुद्ध कभी अपमानजनक बातें नहीं करते थे जब अब्रहा वाली घटना के चालीस वर्ष बाद नबी ﷺ उन्हें केवल एक अल्लाह की इबादत की ओर बुलाने लगे थे, बल्कि तब अल्लाह की बजाए मक्कावासी हज़रत मोहम्मद ﷺ के लिए अपमानजनक बातें किया करते थे.

सूरह अकंबूत सूरह-29 में आयत 61 से 65 तक ये प्रमाण मिलते हैं कि मक्का के मूर्तिपूजक इस बात को मानते थे कि संसार की रचना करने वाला, ज़िन्दगी और मौत देने वाला अल्लाह ही है,  और मनुष्यों की सुरक्षा भी अल्लाह ही करता है. पर अन्य सांसारिक लाभों के लालच में वो शिर्क किया करते थे. मक्का के मूर्तिपूजकों को मुश्रिक कहा गया है,  मुश्रिक का अर्थ होता है ऐसा विश्वास करने वाले लोग जो अल्लाह पर रब होने का विश्वास करने के साथ ही अन्य देवी देवताओं को भी अपना संरक्षक मानते हों. अर्थात मक्का वासी मूर्तिपूजक होने के साथ साथ अल्लाह में भी विश्वास रखते थे

फिर सूरह जुमर की तीसरी आयत (39:3) में पता चलता है कि मक्का के मूर्तिपूजक कहा करते थे कि हम तो इन मूर्तियों को इसलिए पूजते ताकि ये हमें अल्लाह से क़रीब कर दें.   यानी इनके मन में ये भावना थी कि अल्लाह ही सुप्रीम गॉड है, वो महान है उसकी बन्दगी करनी चाहिए, और बन्दे को अल्लाह के ही करीब होना चाहिए,    "हम असल में तो अल्लाह को ही महान ईश्वर मानते हैंमक्का के मूर्तिपूजकों की ये स्वीकारोक्ति ये भी साबित करती है कि वो अंदर से एक अपराधबोध में भी थे कि हमने अल्लाह के उपासना स्थल में अनाधिकृत रूप से अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां रखीं हुई हैं,   इसी कारण वो मूर्तिपूजक अपनी मूर्तियों को न्यायोचित ठहराने के लिए तर्क दिया करते थे !!

सूरह नजम 53 में आयत 18-22 तक में मालूम चलता है कि मक्का में जिन देवियों, लात, मनात व उज़्ज़ा को पूजा जाता था, उन देवियों के भक्त उन देवियों को अल्लाह की बेटियां माना करते थे,  यानी सुप्रीम अल्लाह को ही माना करते थे, और अन्य देवी देवताओं को दर्जे में अल्लाह से छोटे माना जाता था.!

फिर ये भी ज़िक्र मिलता है कि नबी ﷺ से पूर्व काबे में मरियम अस०, हज़रत ईसा और हज़रत इब्राहीम के चित्र भी मौजूद थे, जिससे तत्कालीन मक्कावासियों के इस विश्वास का भी पता चलता है कि वे भी मानते थे कि काबे को नबी इब्राहीम अ.स. ने बनाया था.!

इन सभी प्रमाणों से ये स्पष्ट मान्यता पता चलती है कि मक्का के मूर्तिपूजकों के अनुसार भी अल्लाह के उपासना स्थल काबे मे अनाधिकृत रूप से बुत जमाए गए थे,  हमें पता चलता है कि वास्तव में मूल रूप में काबा एक अल्लाह की मस्जिद थी इसलिए न्यायसंगत ही था कि वहाँ से मूर्तियों को निकाल दिया जाता !!

फिर क़ाबा की मूर्तियों को तोड़ने वाले तमाम वो ही लोग थे जो पहले उन मूर्तियों को पूजते थे,  और जब उन मूर्तियों से उनकी आस्था हट गई थी तो उन्होंने उन मूर्तियों को अपनी एकेश्वरवादी आस्था के स्थल से हटा दिया.   इस घटना से कुछ समय पूर्व क़ाबा के संरक्षक अबु सुफ़यान ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया था. फ़तह मक्का के दिन क़ाबा के पास कोई भी संघर्ष नही हुआ,   इससे हमें ये भी इशारा मिलता है कि काबे से मूर्तियों को हटा दिए जाने की न्यायोचितता पर उन लोगों को भी अब कोई संदेह नहीं रहा था जिन्होंने अब तक इस्लाम स्वीकार भी नहीं किया था, अल्लाह के सर्वशक्तिमान ईश्वर होने में ये पहले से आस्था रखते थे,  अन्य देवी देवताओं का दर्जा अल्लाह से छोटा मानते थे,   

By- Zia imtiyaz

अरबी भाषा में ईश्वर का मतलब अल्लाह होता है। तथा काबा मे मूर्ति पूजन होता था परंतु जब हजरत मोहम्मद साहब ने लोगों को विश्वास दिलाया कि बिना मूर्ति पूजन के भी ईश्वर की आराधना संभव है। लोगों ने उस विश्वास को कायम किया और यह विश्वास सत्य निकला ईश्वर की आराधना के लिए किसी मूर्ति किसी चादर किसी मोमबती या किसी दूध दही मिठ्ठाई जैसी वस्तुओ की कोई आवश्यकता ही नही है और यह बात हजरत मोहम्मद साहब ने पूरे संसार को समझाइ है परंतु इतिहास गवाह है कि सभी धर्म के ठेकेदार जैसे पंडित मुललो ने धर्म को अपने हिसाब से मोङकर उसका गलत निकाला और वही अर्थ लोगो के सामने अपने हिसाब से प्रस्तुत किया है जो कि गलत है। इसलिए मनुष्य को अपनी बुद्धि का प्रयोग करने की आवश्यकता है। और इसका आदेश तो हो हर धर्म भी देता है।