कुछ गैर मुस्लिम भाई अपनी अज्ञानता के कारण तो कुछ जानते हुवे भी इस्लाम पे यह झुटा इलज़ाम लगाते है की इस्लाम में गैर मुस्लिम से दोस्ती करना माना है हराम है आइये हम और आप क़ुरआन पाक की रोशनी में देखते है सत्य क्या है
सवाल-क्या इस्लाम मे गैर मुस्लिमो से दोस्ती करना मना या हराम है ?
जवाब-
जिस आयत पर आक्षेप किया जाता है उसका सही अनुवाद यह है।
“ईमानवालों को चाहिए कि वे ईमानवालों के विरुद्ध काफिरों को अपना संरक्षक मित्र न बनाएँ, और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई सम्बन्ध नहीं”
[सूरह आले इमरान, आयत 28]
इस आयत में जो अरबी शब्द “अवलिया” आया है। उसका मूल “वली” है, जिसका अर्थ संरक्षक है, ना कि साधारण मित्र। अंग्रेजी में इसको “ally” कहा जाता है। जिन काफिरों के बारे में यह कहा जा रहा है उनका हाल तो इसी सूरह में अल्लाह ने स्वयं बताया है।
सुनिए।
“ऐ ईमान लानेवालो! अपनों को छोड़कर दूसरों को अपना अंतरंग मित्र न बनाओ, वे तुम्हें नुक़सान पहुँचाने में कोई कमी नहीं करते। जितनी भी तुम कठिनाई में पड़ो, वही उनको प्रिय है। उनका द्वेष तो उनके मुँह से व्यक्त हो चुका है और जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए है, वह तो इससे भी बढ़कर है। यदि तुम बुद्धि से काम लो, तो हमने तुम्हारे लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं।”
[सूरह आले इमरान, आयत 118]
आप ही कहिए, ऐसे काफिरों से किस प्रकार मित्रता हो सकती है? यह तो एक स्वाभाविक बात है कि जो लोग हमसे हमारे धर्म के कारण द्वेष करें और हमें हर प्रकार से नुकसान पहुंचाना चाहें उन से कोई भी मित्रता नहीं हो सकती | कुरआन में गैर धर्म के भले लोगों से दोस्ती हरगिज़ मना नहीं है। सुनिए, कुरआन तो खुले शब्दों में कहता है।
“अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निस्संदेह अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की। जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम है।”
[सूरह मुम्ताहना; 60, आयत 8-9]
और सुनिए
“ऐ ईमानवालो! अल्लाह के लिए खूब उठनेवाले, इनसाफ़ की निगरानी करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड़ दो। इनसाफ़ करो, यही धर्मपरायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर हैं।”
[सूरह माइदह 5, आयत 8]
एक हदीस में कुछ इस तरह आया है
अस्मा बिन्ते अबी बकर रज़िअल्लाह अन्हुमा ने खबर दी कि,"मेरी माँ (जो मुशरिक/गैर मुस्लिम थी) नबी करीम ﷺ के ज़माने में मेरे पास आई, वह इस्लाम की मुनकिर थी | मैं ने हज़रत मुहम्मद ﷺ पूछा क्या मैं उन के साथ अच्छा व्यवहार कर सकती हूँ ? तो हज़रत ﷺ ने फरमाया कि हां । उस के बाद अल्लाह तअला ने यह आयत नाज़िल की
“अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला । निस्संदेह अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है । अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मित्रता करने से रोकता हैं जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की । जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम है"
[कुरआन 60 : 8 - 9 ] सहीह बुखारी 5978
अल्लाह कभी लोगों को नहीं बाँटते। सब अल्लाह के बन्दे हैं। लोग अपनी मूर्खता और हठ से बट जाते हैं। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते वह स्वयं अलग हो जाते हैं। इसमें अल्लाह का क्या दोष?
इन आयात से स्पष्ट होता है कि कुरआन सभी गैर मुस्लिमों से मित्रता करने से नहीं रोकता। तो यह है इस्लाम की शिक्षा जो सुलह, अमन और इन्साफ की शिक्षा है।
By- Quraan Fm Hindi