इस्लाम में किसी गैरमुस्लिम से मुस्लिमों के विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया गया है.... अक्सर ही ये सवाल किया जाता है कि जब कोई मुस्लिम लड़का या लड़की किसी गैरमुस्लिम स्त्री या पुरूष से शादी करते हैं तो अपना धर्म हमेशा गैरमुस्लिम पक्ष को ही क्यों बदलना पड़ता है, कभी विवाह के लिए मुस्लिम पक्ष क्यों नहीं अपना धर्म बदलते ?
देखिये, सबसे पहली बात तो ये समझ लें कि इस्लाम में कहीं किसी व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध जबरन उसका धर्म बदलवाने की शिक्षा नही दी गई, बल्कि कहा गया है कि "ला इकराहा फिद्दीन" अर्थात धर्म के विषय में किसी से ज़ोर ज़बरदस्ती न कि जाए........ तो जो ये आजकल प्रेम विवाह के लिये गैरमुस्लिम अपना धर्म बदलकर मुस्लिम बन जाते हैं इन गैरमुस्लिमों को पूरी सामर्थ्य प्राप्त होती है कि वो विवाह के लिये अपना धर्म बदलने का निर्णय न लें, और इसकी बजाय ऐसे विवाह का विचार त्याग दें....!!!
जहां तक मुस्लिमों द्वारा विवाह के लिए धर्म न बदलने का सवाल है, तो इसका उत्तर ये है कि इस्लाम की मुख्य शिक्षा एकेश्वरवाद पर पूर्ण विश्वास रखने की, और ईश्वरीय सत्ता में किसी को भागीदार न मानने की है, मुस्लिमों से आस्था के इस मामले में कोई समझौता न करने पर ज़ोर दिया गया है, सिवाय तब के जब व्यक्ति की जान पर ख़तरा बन आया हो.... आम हालात में मुसलमानों को ऐसे किसी काम में हाथ डालने से मना किया गया है जिसमें उनकी आस्था को नुकसान पहुँचने का डर हो, तो ज़ाहिर है एक आस्थावान मुस्लिम अपनी इच्छा से विवाह के लिए अपना धर्म परिवर्तन नही करेगा….... लेकिन ऐसा हो सकता था कि मुस्लिम बिना धर्म परिवर्तन किए किसी गैरमुस्लिम से विवाह कर ले और विवाह के बाद उसका गैरमुस्लिम जीवनसाथी उसपर इस्लाम छोड़ने का दबाव डालने लगे और उसे बुरी तरह मजबूर कर दे... इसी कारण अंतर्धार्मिक विवाह को हराम ठहराते हुए क़ुरआन में सूरह बक़रह की 221वीं आयत में ये आदेश दिया गया है कि "चाहे वो तुम्हें कितने अच्छे लगते हों, पर न बहुदेववादी स्त्रियों से विवाह करो, न बहुदेववादी पुरुषों से, जब तक वो ईमान न लाए हों !! क्योंकि बहुदेववादी तुम्हें जहन्नम की ओर बुलाते है, यानी इस आयत में ऐसे विवाह की मनाही का कारण भी स्पष्ट कर दिया गया है कि विवाह के बाद बहुदेववादी लोग मुस्लिम स्त्री या पुरुष पर दबाव डालेंगे कि मुस्लिम अपना धर्म छोड़कर उनमें मिल जाये... इसलिये आयत में ये कहा गया कि बहुदेववादी स्त्री या पुरुष से उत्तम एक मुस्लिम के लिए ईमानवाले दास या दासी (यानी कम सामाजिक प्रतिष्ठा वाले मुस्लिम) से विवाह करना है, ... ताकि एक मुस्लिम को अपनी आस्था को लेकर कोई समझौता न करना पड़े
यहां स्पष्टता से मुस्लिमों को ये आदेश दिया गया है कि वो किसी ग़ैरधर्म के व्यक्ति के प्रति चाहे जितना आकर्षण महसूस करते हों, लेकिन आस्था की सुरक्षा के लिए उनसे विवाह न करना बेहतर है, अलबत्ता यदि वो बहुदेववादी स्वेच्छा से इस्लाम का वरण कर लेते हैं तो मुस्लिमों को उनसे विवाह करने की अनुमति दी गयी है....
यहां कुछ भाई ये आक्षेप कर सकते हैं कि आयत में ये शब्द "जब तक बहुदेववादी ईमान न लाएं उनसे विवाह न करो" बहुदेववादी लोगों पर विवाह के लिए धर्म परिवर्तन का दबाव बनाने की शिक्षा है, ... पर ऐसा नहीं है, जैसा मैंने पहले बताया धर्म परिवर्तन के दबाव की इस्लाम इजाज़त नहीं देता, तो इस आयत में भी दबाव देने की बात नही है बल्कि गौर कीजिये, आयत में बात ऐसे बहुदेववादी स्त्री पुरुषों की, की गई है जिनके प्रति मुस्लिम स्त्री-पुरुष आकर्षण रखते हैं, न कि उन बहुदेववादी लोगों को मुस्लिमों के प्रति आकर्षण है, तो आयत में बताई स्थिति में स्पष्ट है कि विवाह के लिए कोई भी शर्त अपनी ओर से रखने की स्थिति में मुस्लिम पक्ष नही होगा.... बल्कि क्योंकि मुस्लिम पक्ष को उनकी चाह है, इसलिए ऐसी स्थिति में तो गैरमुस्लिम पक्ष अपनी शर्तें मनवाने की स्थिति में होगा, और इस स्थिति में आयत में बहुदेववादी लोगों से आकर्षण महसूस करने के बावजूद उनकी बजाए ईमान वाले गरीब व्यक्ति से विवाह को वरीयता दी गई है… और आयत में ईमान लाने की बात बहुदेववादी लोगों की स्वेच्छा पर कही गई है... कि उनका दिल स्वयं अगर इस्लाम की ओर झुक गया हो तो तुम उनसे विवाह कर सकते हो !!
आस्था के मामले में वैवाहिक जीवन में कोई पक्ष किसी पर दबाव न डाले इसी का ध्यान रखते हुए मुस्लिम पुरुषों को मुस्लिम स्त्रियों के अतिरिक्त केवल एकेश्वरवाद में विश्वास रखने वाली अहले किताब स्त्रियों से विवाह की अनुमति है, जहां स्त्रियों के पूर्वधर्म का उनको पालन करने की आज़ादी देने में मुस्लिमों को अपनी आस्था में ख़राबी का कोई डर न हो... क़ुरआन में अहले किताब पुरुषों से मुस्लिम स्त्रियों के विवाह पर कुछ नहीं कहा गया, अतः मुस्लिम विद्वानों की अधिकांश राय ये है कि क्योंकि स्त्रियों को पुरुषों के मातहत रहना पड़ता है, इसलिए अहले किताब पुरुष से विवाह की स्थिति में ये डर है कि पुरूष स्त्री को इस्लामी ढंग से रोज़ा नमाज़ करने से रोकेंगे, इसलिए मुस्लिम स्त्रियों को ऐसे विवाह नही करने चाहिये !!
तो हम देखते हैं कि क़ुरआन में जो स्थिति बताई गई है वो मुस्लिमों से विवाह करने के लिए गैरमुस्लिमों पर धर्म परिवर्तन का दबाव देने की नही है, .... और सोचिये कि अगर क़ुरआन में ये स्थिति बताई भी होती तो भी क़ुरआन या इस्लाम के आदेशों का पालन करने के लिए गैरमुस्लिम प्रतिबद्ध नहीं हैं,..... क़ुरआन के आदेशों का पालन करने के लिए मुस्लिम प्रतिबद्ध हैं, जिन्हें "ला इकराहा फिद्दीन" सिखाया गया है और आदेश दिया गया है कि अपनी आस्था की सुरक्षा के लिए मनपसंद गैरमुस्लिमों से विवाह करने की बजाय वो गरीब मुस्लिम से विवाह को वरीयता दें ....और गैरमुस्लिम जब मुस्लिमों से विवाह के इच्छुक हों तो ज़ाहिर है वो क़ुरआन के आदेश से नही बल्कि अपने विवेक से फ़ैसला करने को स्वतंत्र होंगे.!
By- Zia imtiyaz