अनेक लोगों मे इस्लाम के विषय मे एक भ्रम ये है, कि इस्लाम को फैलाने के लिए तलवार उठाने की इस्लाम मे इजाजत है, और स्वयं इस्लाम के पैगंबर ﷺ ने इस्लाम को फैलाने के लिए काफिरों से युद्ध किए.
इस्लाम फैलाने के लिए तलवार उठाने की इसी इजाजत के कारण आज दुनियाभर मे अनेक सशस्त्र इस्लामी जिहादी संगठन पैदा हो गए हैं, जिन्होंने विश्व भर मे आतंक फैला रखा है .
जबकि असल बात ये है कि इस्लाम मे इस्लाम को फैलाने के लिए तलवार उठाने की कतई इजाजत नही है.
बेशक नबी ﷺ ने अरब के काफिरों से युद्ध किए लेकिन वो युद्ध उन्होंने इस्लाम को फैलाने के लिए नही किए थे, बल्कि उन्हें वो युद्ध मजबूरन करने पड़े, इस्लाम को "बचाने" के लिए !
इस्लाम को फैलाना और इस्लाम को बचाना, दोनों बातों मे बड़ा फर्क है.
जिहाद
जिहाद के बारे मे लगातार दुष्प्रचार किया जाता है कि जिहाद का अर्थ मुस्लिमों द्वारा हथियारों से लैस होकर, गैर मुस्लिमों की हत्या करने को उनसे युद्ध करना होता है, पर ये सरासर गलत है
बल्कि जब आप जिहाद शब्द का अर्थ भी देखेंगे, तो उस अर्थ का हिंसा से कोई सम्बन्ध नही निकलता । जिहाद का अर्थ युद्ध अथवा जनसंहार कतई नही होता.
बल्कि जिहाद शब्द अरबी के "जहद" से बना है जिसका अर्थ होता है कोशिश या प्रयास करना, जरा प्रयास शब्द मे हिंसा ढूंढ के दिखाइए,
इस्लाम मे जिहाद का अर्थ है "किसी भी प्रकार की बुराई को मिटाने के लिए कोशिश करना" फिर चाहे कोई बुराई गैर मुस्लिम समाज मे हो, या मुस्लिम समाज मे कोई बुराई पनप गई हो, या खुद हमारे अन्दर ही कोई बुराई पैदा हो गई हो, हर बुराई का खात्मा करने के लिए मुसलमान को प्रतिबद्ध होना चाहिए.
वस्तुत: जिहाद का सम्बन्ध खून खराबे या हथियार उठाने से नही है, अब जैसे इस हदीस पर ध्यान दीजिए कि प्यारे नबी ﷺ ने फरमाया सबसे उच्च श्रेणी का जिहाद वो है जो एक व्यक्ति खुद अपने चरित्र की बुराइयों के खिलाफ करता है .....(तिबरानी)
ज़ाहिर है कि कोई व्यक्ति जब सबसे उच्च श्रेणी का जिहाद करेगा, तो वो अपने चरित्र की बुराई के खिलाफ जिहाद करेगा तो इसमें हथियार उठाने या खून बहाने की कोई सम्भावना ही नही है, और जब वो व्यक्ति अपने चरित्र की बुराइयों को खत्म कर लेगा तो फिर आगे परिस्थितियोंवश अगर उसे कभी युद्ध भी करना पड़ जाए तो भी वो किसी पर अत्याचार करने की सोच भी नही सकता
इसी प्रकार एक और हदीस मे जिक्र है कि आप ﷺ ने फरमाया कि ये एक बेहतर जिहाद है कि अत्याचारी शासक के सामने शासक के विरुद्ध इन्साफ की कोई बात कह दी जाए
(सुनन अल-निसाई)
और जैसी धारणा जिहाद का कुप्रचार करने वालों ने समाज की बना दी है कि जिहाद का अर्थ इस्लाम को फैलाने के लिए गैर मुस्लिमों से जबरन युद्ध करना है वैसा तो बिल्कुल भी नही है, इस्लाम कभी भी मुसलमान को खुद कोई भी युद्ध शुरू करने की इजाजत नही देता
प्यारे नबी ﷺ ने एक जंग के मौके पर लोगों को खिताब करते हुए फरमाया है
" ऐ लोगों खुद कभी दुश्मन से लड़ाई भिड़ाई करने की चाहत न करो, बल्कि अल्लाह से दुआ किया करो कि वो दुश्मन के शर से तुम्हारी हिफाज़त करे ।
लेकिन जब बहुत मजबूरी मे तुम्हें दुश्मन के मुकाबले जंग करनी पड़ जाए तो न्याय पर कायम रहते हुए युद्ध लड़ो.
(सहीह मुस्लिम)
अर्थात् हथियार उठाना तो बहुत मजबूरी की बात है जबकि गैर मुस्लिम इस्लाम का खात्मा करने के लिए मुस्लिमों पर आक्रामक हो गए हों तभी मुसलमान को आत्मरक्षा मे युद्ध करने की इजाजत है और इस युद्ध मे भी न्याय का पूरा ध्यान एक मुस्लिम को रखने के निर्देश दिए गए हैं ।
कुरान स्पष्ट रूप से और बार बार कहता है कि कोई मुसलमान से बुरा सुलूक करे तो भी मुसलमान उससे भला सुलूक करे,
(क़ुरान 41.34)
लड़ाई झगड़े को अपनी ओर से भरसक टालने की कोशिश की जाए, किसी भी निर्दोष की हत्या, चाहे वो मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम उसकी हत्या महापाप है, किसी भी स्त्री का बलात्कार चाहे वो दुश्मन की स्त्री क्यों न हो, महापाप है, और यदि युद्ध करना पड़े तो भी दुश्मन के स्त्रियों बच्चों और युद्ध मे भाग न लेने वाले शांतिप्रिय पुरुषों की सुरक्षा का ध्यान रखो
संक्षेप मे, जिहाद शान्तिप्रिय लोगों को कष्ट देने का नाम नहीं बल्कि जिहाद तो नाम है लोगों के कष्ट दूर करने को एक मुस्लिम द्वारा खुद कष्ट उठाने का
जिहाद हर वो भलाई का काम है जिसे करने मे एक मुस्लिम को थोड़ा भी कष्ट उठाना पड़े ,और वो अल्लाह की रज़ा के लिए कष्ट उठाकर भी वो काम कर जाए. ये है जिहाद , और समाज से बुराई मिटाने का प्रयास अर्थात् जिहाद एक सत्कार्य है, न कि कोई पाप ये अब आपके सामने भी स्पष्ट हो गया है .
बहुत से भाई प्रश्न करते हैं कि क़ुरान में काफिरों से युद्ध करने का आदेश क्यों दिया गया है, केवल धर्म अलग होने मात्र से किसी के साथ युद्ध करना कहाँ का न्याय है ?
एक बात समझ लेनी चाहिए कि क़ुरान सभी काफिरों से युद्ध की बात कभी कह ही नहीं रहा, इसलिये ये अंदाज़ लगाना कि केवल धर्म अलग होने मात्र पर इस्लाम मुस्लिमों को युद्ध के लिए उकसाता है, ये अनुमान गलत है, पवित्र कुरान मे जिन काफिरो से युद्ध के समय आत्मरक्षा मे मुस्लिमों को भी युद्ध की अनुमति दी गई है, वे मक्का के मूर्तिपूजक हैं, आइए देखें कि उन काफिरो का स्वभाव क्या था, अपराध क्या था ?
चौदह सौ वर्ष पहले के अरब मूर्ति-पूजक गैर मुसलिम समाज के व्यवहार की ओर हम ध्यान दें तो पता चलता है, वे अरब बड़े ही हिंसक प्रवृत्ति के लोग हुआ करते थे. इसी माहौल मे जब नबी ﷺ ने मक्का के लोगों को इस्लाम की दावत देनी शुरू की, लोगों को नवजात बच्चियों की हत्या करने से रोकने लगे, गुलामों के साथ दुर्व्यवहार करने से लोगों को रोकने लगे , मूर्ति पूजा से लोगों को रोका और एक अल्लाह की इबादत की ओर बुलाया और आप ﷺ की इन बातों से प्रभावित होकर मक्का के कुछ गरीब लोगों और कुछ गुलामों ने इस्लाम कुबूल कर लिया तो अरब के अमीर और प्रभावशाली वो लोग जो अपने हिंसक रीति रिवाज़ो से प्रेम करते थे, इस बात से चिढ़ गए ,और उन्होने उन गरीब नव मुस्लिमों को मार पीटकर उनका धर्म छुड़वा देना चाहा ताकि इस्लाम की कहानी शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाए
लेकिन ऐसा न हुआ, उन गरीब मुसलमानों ने खुद को बुरी तरह प्रताड़ित किए जाने के बावजूद इस्लाम का त्याग न किया, और उन नव मुस्लिमों का इस्लाम से इस कदर प्रेम देखकर अरब के गैर मुस्लिम और बौखला गए और मुस्लिमों पर और सख्ती से अत्याचार करने लगे, लेकिन इसका असर उल्टा ही हुआ, और नव मुस्लिमों के मुंह से इस्लाम की प्यारी प्यारी तालीमात का जिक्र सुनकर इस्लाम कुबूल करने वालो की तादाद बढ़ती गई.
लगभग 11 वर्ष तक मक्का के गैर मुस्लिमों ने मुस्लिमों पर अमानवीय अत्याचार किए.
उन्होंने अपने अनेक गुलामो के यातनाएँ देकर अंग भंग कर दिए क्योंकि उन गुलामो ने इस्लाम कुबूल कर लिया था, और कुछ गरीब मुसलमानों को यातनाएँ दे देकर मार डाला,
लेकिन मुस्लिम शांति और इस्लाम के मार्ग पर अडिग रहे. न मुस्लिमों ने पलटकर कभी किसी पर वार किया और न ही इस्लाम से हटे कई मुसलमान इन भयंकर तकलीफो से बचने के लिए प्यारे नबी ﷺ की सलाह पर मक्का से बाहर ऐसी जगहों पर चले गए जहाँ वे शांति से अपने धर्म इस्लाम का पालन करते हुए जीवन गुज़ार सकें,
और जब मक्का मे रहना एकदम दूभर हो गया और पैगंबर ﷺ के कत्ल की कोशिशें मक्का के गैर मुस्लिम करने लगे तो पैगंबर मोहम्मद ﷺ भी बाकी मुसलमानों के साथ मक्का से मदीना प्रस्थान कर गए
लेकिन इसके बावजूद मक्का के गैर मुस्लिमों ने मुसलमानों का पीछा नही छोड़ा,
उन हिंसक गैर मुस्लिमों ने सोचा कि यदि ये मुस्लिम इस्लाम का त्याग नहीं कर रहे हैं, तो फिर मदीना पर चढ़ाई कर के सारे मुस्लिमों की ही हत्या कर डाली जाए तो इस्लाम जड़ से खत्म हो जाएगा.
और फिर मुस्लिमों के मदीना पहुंचने के दूसरे वर्ष, मक्का के काफिरो ने मुस्लिमों पर चढ़ाई कर दी , इसके पहले हमेशा मुस्लिमों ने काफिरो के अत्याचारों को पैगंबर ﷺ के हुक्म पर चुपचाप बर्दाश्त कर लिया था, और यदि काफिरो की मुस्लिमों पर ये चढ़ाई केवल मुस्लिमों को बंदी बनाने, मुस्लिमो को मारने पीटने या मुस्लिमों की माल दौलत छीनने के लिए होती तो बात कुछ और होती, लेकिन अब तो सारे मुस्लिमों की हत्या कर के इस्लाम के खात्मे का अरमान लेकर काफिरो ने चढ़ाई की थी,
अत: मुस्लिमों की जान की हिफाज़त के लिए और इस्लाम का अस्तित्व बचाने के लिए मुस्लिमों को आत्मरक्षा मे युद्ध की इज़ाज़त दी गई.
इसके बाद भी पैगम्बर ﷺ के जमाने मे काफिरो ने बार बार मुस्लिमों पर चढ़ाई की और मुस्लिमों ने सदा आत्मरक्षा मे और काफिरो से मुस्लिमों की जान बचाने के लिए बहुत मजबूर होकर तलवार उठाई न कि गैर मुस्लिमों को तलवार का भय दिखाकर जबरन मुसलमान बनाने के लिए
क्योंकि इस्लाम मे ये बिल्कुल स्पष्ट है कि किसी को विवश कर के इस्लाम कुबूल कराने की कोई आवश्यकता नहीं है, अल्लाह जिसे चाहता है वो व्यक्ति केवल समझाने मात्र से मुस्लिम बन जाता है .
पवित्र कुरान मे लिखा है
"अगर तुम्हारा रब्ब चाहता, तो इस धरती मे जितने लोग हैं, वे सारे के सारे ईमान ले आते . फिर क्या तुम लोगों को विवश करोगे कि वे ईमान वाले बन जाएं ?"
[ पवित्र कुरान 10:99 ]
रही बात इस्लाम के प्रसार की, तो उसके लिए केवल दो ही कारण उत्तरदायी थे, एक तो मुस्लिमों द्वारा इस्लामी शिक्षा के प्रवचन दिए जाना, और दूसरा मुस्लिमों के नए आचार व्यवहार, जिनसे प्रभावित होकर लोग स्वत: ही इस्लाम कुबूल कर लेते थे
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पिछले दिनों नाइजीरिया मे "बोको हराम" नाम के एक हराम संगठन ने वहाँ की तकरीबन 200 अबला लड़कियों को अगवा कर के इस कुकर्म को इस्लाम से जोड़ने की साजिश की
बीबीसी के इण्टरव्यू मे मलाला यूसुफज़ई ने उन आतंकवादियो को मुसलमान मानते हुए उन्हें कुरान शरीफ पढ़ने की नसीहत की, यानि मलाला जैसी 15 साल की कमउम्र और अनुभवहीन लड़की को भी मालूम है कि आतंकवाद की मनाही है कुरान मे.
हर उस मुस्लिम परिवार मे बच्चों को बहुत छुटपन से ही कुरान की शिक्षा दी जाती है जो परिवार धर्म से थोड़ा भी लगाव रखता है.
ऐसे मे कोई ये कैसे सोच सकता है कि मलाला जैसी कम उमर लड़की जो इस्लामी तालीम से ज्यादा झुकाव पश्चिमी तालीम की तरफ रखती है, उसे तो कुरान का ज्यादा ज्ञान है लेकिन उस से कहीं ज्यादा उम्र वाले मुसलमानों को कुरान का ज्ञान ही नही होगा और वो भी ऐसे मुसलमान जो कि इस्लाम के प्रेम मे मरने मारने की हद तक पहुंचने का दावा करते हों, जाहिर है जब छोटे छोटे मुस्लिम बच्चों को भी इस्लाम की शांति की सीख का ज्ञान है तो फिर कोई परिपक्व बुद्धि वाला और इस्लाम से अतिरिक्त लगाव का दावा करने वाला व्यक्ति इस्लाम की इतनी अहम शिक्षा को न जानता हो ऐसा हो ही नही सकता
कुरान स्पष्ट रूप से और बार बार कहता है कि कोई मुसलमान से बुरा सुलूक करे तो भी मुसलमान उससे भला सुलूक करे,
कुरान की इन शिक्षाओ का पालन न करना हराम है,
और जबकि दुनिया भर के इस्लामी विद्वान बार बार बोको हराम और तहरीके तालिबान को चेता चुके हैं , कि ये आतंकवादी अल्लाह की आज्ञा की अवहेलना कर रहे हैं, और इस्लाम ने जिन कामों को सबसे ज्यादा बुरा गुनाह बताया है वो ही गुनाह ये आतंकी कर के दोजखी बन रहे हैं. इसके बावजूद ये आतंकी संगठन अल्लाह की आज्ञा को फालतू मानकर अपनी दुष्ट मनमर्जी चलाये और फिर दावा करें कि वो ये इस्लाम के लिए कर रहे है तो इससे बड़ा झूठ मैं नहीं समझता कि कुछ और होगा
ऐसे लोग या तो गैर मुस्लिम होते हैं, जो इस्लाम को बदनाम करने के लिए ये स्वांग रचते हैं,
यदि इनमे से कोई व्यक्ति पहले कभी मुस्लिम था भी तो अल्लाह की आज्ञा की जानबूझ कर और उद्दण्डता पूर्वक अवहेलना कर के समाज मे आतंकवाद फैलाने के कारण उसी दिन इस्लाम से खारिज हो चुके हैं जिस दिन इन्होंने पहली कोई हराम आतंकी वारदात कर के उसे इस्लाम से जोड़कर, इस्लाम को बदनाम करने की साज़िश को अंजाम दिया था
खुद ध्यान लगाकर सोचिए कि बोको हराम जैसे ये आतंकी संगठन अपने इस्लामी ज्ञान से भरपूर होने का दावा करते हैं, और पश्चिमी शिक्षा के विरोध जैसे महत्वहीन मुद्दे पर पराई लड़कियों को अगवा करने और उनकी इज़्ज़त का सौदा करने जैसे नाकाबिल ए माफी बदतरीन गुनाह करते है, जिनकी इस्लाम मे बहुत सख्त सजा है
और हर मुसलमान को पता है कि इस्लाम मे औरत की इज्जत से खिलवाड़ को सबसे बड़ा और सबसे घिनौना पाप कहा गया है.
तो बोको हराम के इस हराम कारनामे को कोई इस्लाम से किस तरह जोड़ सकता है ?
स्पष्ट है कि ये बोको हराम या तहरीक ए तालिबान या फिर इन्डियन मुजाहिदीन जैसे आतंकवादी संगठन मुस्लिमों के नही बल्कि मुस्लिमों के गैर मुस्लिम या बद अकीदा दुश्मनों के हैं
मलाला जैसी कम उम्र लड़की से अभी इतनी गहरी सोच की आशा नहीं की जा सकती कि वो इस्लामी आतंकवाद के पीछे छिपी इस्लाम के दुश्मनों की गहरी साजिश को समझ सके मगर बाकी सबकी समझ को क्या हुआ है ?