एक भाई ने एक किताब के पन्ने की फोटो हमें दिखाई जिसमें दावा किया गया था कि तिरमिज़ी शरीफ़ मे हजरत इब्न अब्बास से रिवायत है कि "यदि कोई व्यक्ति सुअर, बकरी ,कुतिया, ऊंट, गाय आदि जानवरों के साथ संभोग करे तो उसपर कोई जुर्म लागू नहीं होता "
भाई, सबसे पहले तो आपका ध्यान इन दो रिवायतों की तरफ खींचना चाहता हूँ जिनमे से एक रिवायत तो हजरत इब्न अब्बास रज़ि. से ही सम्बन्धित है,
पहली हदीस ये है कि नबी ﷺ ने फरमाया "लानत है उस शख्स पर जो किसी जानवर के साथ व्यभिचार करे, और लानत है उस शख्स पर जो कौमे लूत अ. का काम (समलैंगिक सम्बन्ध बनाए) करे ॥" ( सही अल जामी)
और हजरत इब्न अब्बास रज़ि. से रिवायत है कि "अगर कोई शख्स किसी जानवर के साथ संभोग करता है तो उस शख्स को मौत की सज़ा देनी चाहिए, और उस जानवर को भी कत्ल कर देना चाहिए, "
यही पशु से संभोग पर मौत की सज़ा की रिवायत अन्य कई किताबों मे भी मौजूद है जैसे तिरमिज़ी, इब्न माजाह, मुस्नद अहमद आदि, यानी पशु से सम्भोग करने को निश्चित ही इस्लाम मे बेहद घृणित , और दण्डनीय अपराध माना गया है
पर इस अपराध के लिए देश निकाला, कोड़े मारना या अंग भंग जैसी सजाओं को छोड़कर केवल मौत की सजा निर्धारित की गई हो, इस बात पर इस्लामी विद्वानों मे मतभेद है मतभेद का एक कारण तो ये कि पशु से संभोग पर मौत की सजा के आदेश वाली रिवायतो को कमजोर माना गया है, और दूसरा कारण वो ही रिवायत है जो आपने दिखाई.
परन्तु भाई ने जिस पेज का फोटो दिया, सबसे पहली बात तो ये है कि वो एक एण्टी इस्लामिक बुक है और जो शब्द और जानवरों के नाम भाई ने दिखाए वो शब्द रिवायत मे बिल्कुल नहीं हैं , तिरमिज़ी शरीफ़ की रिवायत के शब्द ये हैं कि "किसी जानवर के साथ संभोग करने वाले व्यक्ति के लिए कोई "निर्धारित" दण्ड नही है " .
इसका अर्थ ये है कि किसी पशु के साथ अनैतिक सम्बन्ध बनाने के अपराध मे किसी विशेष सजा का आदेश नहीं दिया गया है . और ये अपने समय के विधि व्यवस्थापकों पर निर्भर करता है कि वे इस अपराध के लिए अपराधी को मौत की सजा, या उससे इतर कोई दण्ड दे सकते हैं ।
दरअसल नबी सल्ल. के समय से ही जिन कार्यों को इस्लाम ने अपराध ठहराया मगर कोई निर्धारित सजा न रखी थी, ऐसे अपराधों के लिए मुस्लिम विधि व्यवस्थापकों ने यहूदी और ईसाई दण्ड संहिता लागू करने की नीति बना रखी थी, ऐसा हमें बनू कुरैज़ा के मामले मे भी देखने को मिलता है,
यही विधान बाइबल मे लिखा होने के कारण शुरू के मुस्लिमों ने रखा, लेकिन नबी करीम ﷺ ने सहाबा के सामने ये भी स्पष्ट किया था की इस अपराध के लिए अनिवार्य रूप से मौत की सजा निर्धारित नहीं है . बल्कि किसी विशेष प्रकार की सजा निर्धारित नहीं है, और न्यायाधीश बाइबल के विधान से हटकर भी कोई दण्ड अपराधी को दे सकता है
अत: इब्न अब्बास रज़ि. ने फरमाया कि पशु से संभोग के अपराध की निर्धारित सजा नही है, जिस रिवायत को तोड़ मरोड़ कर विरोधी ये साबित करने मे लगे हुए हैं इस्लाम मे पशुओं से सम्भोग करना जायज़ है .
गौर कीजिएगा अगर पशु संभोग पर व्यक्ति और पशु को मार डालने की शिक्षा बाइबल की न होती और केवल इस्लाम की ये शिक्षा होती, तो सारे मानवतावादी इस बात पर हाय तौबा मचा रहे होते कि "इतने छोटे से जुर्म पर मौत की भयंकर सजा क्यों ?"
पर क्योंकि ये मौत की सजा यहूदियों और ईसाई लोगों के धार्मिक कानून पर सवाल उठाती है, इसलिए इस मौत की सजा पर आपत्ति उठाए जाने की बजाय इस मामले मे मौत की सजा की अनिवार्यता समाप्त करने के इस्लामी विधान पर सवाल उठाए जा रहे हैं कि इस्लाम ने तो पशु सम्भोग को जायज़ बता दिया है,
इसे इस्लाम विरोधियों की धूर्तता नहीं तो और क्या कहा जाएगा ?
वैसे इस विषय मे प्रश्न करने वाले भाई से एक रिक्वेस्ट ये है कि वो बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर साहब का शोध "अश्वमेध यज्ञ" के बारे मे पढ़ लें, एवं एक बार खजुराहो की मूर्तियों पर पैनी नजर डाल के देखें, उन्हें कुछ ऐसा मिलेगा जो वो पहले नहीं जानते थे