माल-ए-गनीमत लूट नहीं वैध अधिकार

मुसलमानों को क्रूर और बर्बर दिखाने के उद्देश्य से अक्सर एक जुमला बोला जाता है कि "हदीसों में लिखा है कि मुसलमान मूर्तिपूजकों से युद्ध करते थे और फिर जीते हुए क्षेत्र में मिले लूट के सामान को आपस में बांट लिया करते थे"   क्या वास्तव में इस्लाम किसी प्रकार की लूट की अनुमति देता है ?

लूट ये है कि कोई आतताई आये और अपने घर में शांति से बैठे एक व्यक्ति पर हमला कर के उसकी धन संपत्ति छीन ले जाये.   तो क्या हदीसों में मुस्लिमों द्वारा जिन युध्दों में भाग लेने की बात कही गई है वो युद्ध मुस्लिमों ने शांति से बैठे मूर्तिपूजकों पर चढ़ाई कर के किये थे ?  नही. बल्कि हदीसों से पता चलता है कि शुरुआत से लेकर अधिकांशतः युद्ध अरब के मूर्तिपूजकों ने शांति से बैठे मुस्लिमों पर चढ़ाई कर के किए, और मुसलमानों के पास आत्मरक्षा में हथियार उठाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा.   मुसलमानों द्वारा मूर्तिपूजकों के यहां लूट का आरोप तो यहीं ध्वस्त हो जाता है.

और आगे देखिये,   उस समय अरब के गैरमुस्लिमों द्वारा निर्धारित पहले से चली आ रही व्यवस्था ये थी कि युद्ध जीतने लोग हारने वालों को गुलाम बना लेते थे, हारने वालों की बस्तियां तबाह कर देते थे, युद्धक्षेत्र में लाये गए हथियार व अन्य उपयोगी सामान तो आपस में बांटते ही थे साथ ही युद्ध के मैदान से आगे बढ़ कर दुश्मन के घरों से उनके युद्ध से विरत स्त्रियों और बच्चों को उठाकर गुलाम बना कर बाज़ारों में बेच देने, या गुलामों के साथ बलात्कार करने में भी वे अरब के गैरमुस्लिम कोई बुराई नहीं मानते थे बल्कि इसे वीरता की बात माना जाता था.   असल में यही चीज़ तो लूट और डकैती है कि कोई दुश्मन के शांतिप्रिय लोगों के घरों का सामान छीन ले जाए, और दुश्मन पक्ष के युद्ध से विरत लोगों के मानवाधिकारों को भी रौंद डाले.

तो जब मुसलमानों पर ये गैरमुस्लिम आक्रमण करने आते थे तो इसी तरह मुसलमानों की सम्पत्ति को लूट लेने, मुस्लिमों की स्त्रियों को उठा कर उनके साथ बलात्कार करने आदि के सपने उनके मन में होते थे.   क्या ऐसे लोगों के आगे मुसलमानों को समर्पण कर देना चाहिये था ? ताकि वे गैरमुस्लिम मुस्लिमों की सम्पत्ति लूट लें, मुस्लिमों के स्त्रियों बच्चों को उठा लें और मुस्लिम योद्धाओं की हत्या कर दें ?

उस समय अपने स्त्रियों बच्चों की रक्षा करने के लिए हर आत्मसम्मान वाला व्यक्ति उठ खड़ा होगा.   मुस्लिम भी उठ खड़े होते थे. और फिर जब मुसलिम वो युद्ध जीत जाते थे तो पहले से बने नियम के तहत ही मुस्लिमों को मारने के उद्देश्य से जो शक्ति वे गैरमुस्लिम युद्धक्षेत्र में लाये होते थे केवल उन्हीं चीज़ों को माल ए गनीमत के रूप में आपस मे बांट लेते थे.  वास्तव में मुस्लिमों द्वारा ऐसा करने का कारण दुश्मन का आगे युद्ध लड़ने का हौसला तोड़ना, और अपनी शक्ति की धाक दुश्मन के दिल में बिठाना था ताकि फिर वे गैरमुस्लिम मुस्लिमों पर चढ़ाई करने का हौसला न कर सकें और बहुत समय के लिए युद्ध टल जाए व शांति हो जाये.   मुस्लिमों द्वारा कब्ज़े में लिये गए ये वे सारे जानवर और हथियार व सैनिक होते थे जो मुसलमानों को मारने के उद्देश्य से युद्ध के मैदान में लाये जाते थे. तो जब उन्हें मुस्लिमों ने बांट लिया और व्यक्तियों को बंदी बना लिया. इसे लूट का माल नही कहा जाएगा क्योंकि गैरमुस्लिम ये सब कुछ मुस्लिमों के लिए ही तो तैयार कर के लाये थे कि अगर मुसलमानों की हत्या करते समय में इनमें से बहुत से लोग मर भी जाएं तो चिंता नहीं.   तो जब खुद वो ये फौज, हथियार और जानवर मुस्लिमों के लिये होम करने को तैयार होते थे, तो जब मुसलमान उन इंसानों, जानवरों और हथियारों को नुकसान पहुचाएं बिना अपने पास रख लेते थे तो नैतिक आधार पर इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए,   क्योंकि मुस्लिम किसी शांतिप्रिय दुश्मन को उसके घर से अगवा कर के नही लाते थे, युद्धक्षेत्र से आगे बढ़ कर दुश्मन के घरों में जाकर उनकी सम्पत्ति नही उठाते थे, मुस्लिम केवल युद्धक्षेत्र में लाई गई शक्ति पर कब्ज़ा करते थे !!

जैसा कि मैंने बताया कि ये अरब का पहले से प्रचलित कानून था कि युद्ध जीतने लोग हारने वालों को गुलाम बना लेंगे और उनकी बस्तियां तबाह कर देंगे, और हथियार व अन्य उपयोगी सामान आपस में बांट लेंगे.   लेकिन नबी ﷺ ने बस्तियों को तबाह करने और युद्धक्षेत्र में न लाये लोगों को पूरी सुरक्षा देने का कानून बनाया. युद्धक्षेत्र में लड़ने आये लोगों को मुस्लिमों ने युद्धबंदी बनाया, पर उनके साथ भी दुर्व्यवहार नही किया जिस प्रकार काफ़िर अपने युद्धबन्दियों को भयंकर शारीरिक प्रताड़नाएं दिया करते व स्त्रियों के बलात्कार किया करते थे.  

बल्कि मुस्लिमों ने युद्धबन्दियों के साथ भी सम्मानजनक व्यवहार करने की वो शानदार परम्परा डाली जो आनेवाली दुनिया के लिए एक बड़े आदर्श के रूप में स्थापित हुई !!!